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Sunday, 3 November, 2024
होममत-विमतहिंडेनबर्ग के बाद इक्विटी ने ली कर्ज की जगह, मोदी की मेगा परियोजनाओं पर लगा सवालिया निशान

हिंडेनबर्ग के बाद इक्विटी ने ली कर्ज की जगह, मोदी की मेगा परियोजनाओं पर लगा सवालिया निशान

भारत को ‘नेशनल चैंपियनों’ का बड़ा आधार चाहिए. जनता के पैसे को इस तरह निवेश करने की गुंजाइश कम है कि वित्तीय गणित गंभीर रूप से गड़बड़ न हो. जाहिर है, कुछ योजनाओं पर पुनर्विचार ही करना पड़ सकता है.

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अडाणी समूह पर हिंडेनबर्ग रिसर्च के मंदड़ियानुमा हमले का अनपेक्षित लेकिन लाभदायक परिणाम यह हुआ कि ‘नेशनल चैंपियन’ बनने की ख़्वाहिश रखने वाले (सरकार की योजनाओं और प्रोत्साहनों के मद्देनजर भारी निवेश की योजना बना रहे बड़े व्यावसायिक समूह) इस डर से ज्यादा सावधान हो गए हैं कि अपनी महत्वाकाक्षाओं के चक्कर में भारी कर्ज में न डूब जाएं.

हिंडेनबर्ग के निशाने पर रहे गौतम अडाणी पिछले कुछ सप्ताह से अपने कर्ज का जल्दी-जल्दी भुगतान करके अपने समूह के लिए भरोसा जीतने में जुटे हैं. वेदांत समूह के अनिल अग्रवाल 1 ट्रिलियन रुपये का कर्ज “मध्य अवधि” में चुका कर कर्ज मुक्त होने की बात कर रहे हैं. मुकेश अंबानी तीन साल पहले इक्विटी के कई सौदे करके ऐसा कर चुके हैं, जिन सौदों ने उन्हें 1.6 ट्रिलियन रु. का कर्ज भुगतान करने में मदद की. लेकिन अडाणी के कर्ज का पहाड़ इतना ऊंचा है कि उसे 3.39 ट्रिलियन के बराबर आंका जा रहा है, हालांकि खुद वे इससे काफी कम की रकम बताते हैं.

कर्ज से जल्दी मुक्त होना आसान नहीं होता. ज़िंक का उत्पादन करने वाली अपने नियंत्रण की दो इकाइयों का विलय करने की अग्रवाल की ताजा कोशिश (ताकि निष्क्रिय पूंजी मुक्त हो सके) को सरकार ने लाल झंडी दिखा दी है. इनमें से एक इकाई में सरकार की छोटी दावेदारी है. अडाणी शेयरों के नाम पर लिये गए सभी कर्जों का भुगतान करने में सफल रहे हैं लेकिन समूह के शेयरों की कीमतें गिर रही हैं तो कर्जदाता मांग कर रहे हैं कि और ज्यादा शेयर उनके नाम किए जाएं. इसलिए, एक ऑस्ट्रेलियायी समूह द्वारा सेकेंडरी मार्केट में निवेश ने उनके शेयरों की कीमत बढ़ा दी है जिससे मदद मिली है.

इस तरह, कर्ज को दूसरा नाम मिल गया है—इक्विटी. यह कर्ज भुगतान की लागत बढ़ा देगा क्योंकि केंद्रीय बैंकों ने ब्याज दरें बढ़ा दी हैं. इसके साथ ही जोखिम के बारे में बॉन्डधारकों की बढ़ी हुई जागरूकता कर्ज के भुगतान के समय ‘रोल ओवर’ विकल्प को महंगा बना देगी.


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इसके अलावा साख का मसला भी है. कर्ज का भुगतान आपकी क्रेडिट रेटिंग घटाने को रोक सकता है. वैश्विक बाजार के खिलाड़ी नहीं चाहते कि उनके पास जो कागज है उसकी कीमत में 30 फीसदी या उससे ज्यादा की कटौती हो. इस चीज ने कम-से-कम तीन अंतरराष्ट्रीय बैंकों को यह घोषणा करने का मसाला जुटा दिया कि वे अब अडाणी के कागजात कबूल नहीं करेंगे. लेकिन साख का मसला इससे भी आगे जाता है, जैसा कि अडाणी को तब पता चला जब विशाल फ्रांसीसी इनर्जी कंपनी टोटल एक प्रस्तावित संयुक्त उपक्रम परियोजना से बाहर निकल गई.

इनमें से कुछ बातें यूं भी हो सकती हैं. कई लोगों को याद होगा कि पिछली पीढ़ी के एक महत्वाकांक्षी, कर्ज के भूखे व्यवसायी ने बड़ी-बड़ी परियोजनाएं शुरू कर दी और ऐसे कर्ज के जाल में फंस गया जिनका भुगतान मुश्किल हो गया और उस व्यवसायी को खुद को दिवालिया घोषित करना पड़ा क्योंकि बाजार की हक़ीक़तें बदल गईं. व्यापक अर्थव्यवस्था को इसकी कीमत भुगतनी पड़ी क्योंकि बैंकों के बैलेंसशीट को इतने भारी झटके लगे कि वित्त क्षेत्र को करीब पांच साल तक पाला मार गया.

इस बार यह कहानी दोहराई जाए, इससे पहले ही लगाम खींच ली गई. समय पर तीर चलाने के लिए हिंडेनबर्ग का आभार, चाहे उसकी रिपोर्ट में लगाए गए सारे आरोप सही न हों.

तब सवाल उठता है कि मेगा उपक्रमों को फंड कैसे मिलेगा? ग्रीन इनर्जी, सेमीकंडक्टर्स, टेलिकॉम, डिफेंस, और ट्रांसपोर्ट के इन्फ्रास्ट्रक्चर को लेकर भारत की अधिकतर महत्वाकांक्षाएं इन्हीं ‘नेशनल चैंपियनों’ के भरोसे ही तो हैं. रिलायंस और टाटा के पास तो पर्याप्त नकदी है लेकिन यह जाहिर हो कि अडाणी को कई तरह के उद्योगों में निवेश की अपनी कई योजनाओं पर पुनर्विचार करना पड़ेगा.

वास्तव में, हिंडेनबर्ग रिपोर्ट के बाद उन्होंने निवेश के कुछ अवसरों को छोड़ दिया है और हो सकता है कि निवेश की जगह वे विनिवेश शुरू कर दें. इंतजार इसका भी करना पड़ेगा कि सेमीकंडक्टर की एक परियोजना के लिए फॉक्सकॉम के साथ गठबंधन करने वाली वेदांत भी क्या इसी तरह अपनी कुछ परियोजनाओं से हाथ खींचने को मजबूर होती है या नहीं. जेएसडब्लू समूह के कर्ज को 1 ट्रिलियन रुपये से ज्यादा का आंका गया है. इसे काबू में रखने लायक माना जाता है, लेकिन यह और ज्यादा कर्ज के लिए कम गुंजाइश ही छोड़ता है.

इसका अर्थ यह है कि भारत को ‘नेशनल चैंपियनों’ का बड़ा आधार चाहिए. कई कंपनियों ने हाल के वर्षों में कर्ज-इक्विटी का अपना अनुपात बेहतर कर लिया है लेकिन क्या वे इतनी बड़ी हैं कि मेगा परियोजनाओं को संभाल सकें? अगर नहीं, तो सरकार को इसके लिए सार्वजनिक क्षेत्र पर निर्भर करना पड़ेगा. इसमें दिक्कत यह है कि बजट के जरिए पहले ही काफी पूंजीगत निवेश किया जा चुका है और जनता के पैसे को इस तरह निवेश करने की गुंजाइश कम है कि वित्तीय गणित गंभीर रूप से गड़बड़ न हो. जाहिर है, कुछ योजनाओं पर पुनर्विचार ही करना पड़ सकता है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(विचार निजी हैं. बिजनेस स्टैंडर्ड से विशेष प्रबंध द्वारा)


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