लद्दाख की गलवान घाटी में चीनी सैनिकों के साथ हुए संघर्ष, जिसमें 20 भारतीय सैनिक मारे गए थे, के बाद नरेंद्र मोदी सरकार ने स्पष्ट किया कि सैनिक निहत्थे नहीं थे. लगता यही है कि उन्होंने अपने हथियारों का उपयोग इसलिए नहीं किया क्योंकि दोनों पक्षों के बीच स्थिति को ‘नहीं भड़काने’ की शर्त थी. यदि भारतीय सैनिक खुद को 15 जून वाली स्थिति में पाते हों तो उन्हें इस उक्ति का पालन करना चाहिए: आदेशों की प्रतीक्षा नहीं करो, बस उन्हें मान लो.
मुझे इसका कोई कारण नहीं दिखता कि जब हमारे बहादुर जवानों की जान पर बन आए, तो वैसे में वे हथियारों से अपनी रक्षा क्यों नहीं करें. जब आदेश मौजूद नहीं हो तो शर्तों के सख्ती से पालन के ऊपर कार्रवाई की पहलकदमी को वरीयता मिलनी चाहिए.
गलवान घाटी संघर्ष इस बात का अच्छा उदाहरण है कि कैसे ‘तय नियमों’ से चिपके रहना बुरी तरह गलत साबित हो सकता है. कई बार ऐसे पल आते हैं जब मौके पर मौजूद जवानों या अधिकारियों, जो कि हमेशा इस बात के सबसे सही निर्णायक होते हैं कि कैसी कार्रवाई करनी या नहीं करनी चाहिए, खुद को वो ‘आदेश’ देना चाहिए कि जिसकी अनुपस्थिति कई बार ‘निष्क्रियता’ की वजह बन जाती है.
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एक उल्लेखनीय मामला
सशस्त्र बल न्यायाधिकरण में सेवा के दौरान 2009-10 में विचार के लिए एक अपील आई थी. ‘कायरता’ दिखाने के कारण नौकरी से बर्खास्त किए गए एक जूनियर कमीशंड ऑफिसर (जेसीओ) ने अपनी सज़ा के खिलाफ अपील की थी. उसे जम्मू कश्मीर में एक जंगल में आतंकवादियों के ठिकाने पर की जा रही छापेमारी के दौरान, पास में स्थित नालों वाले एक इलाके में घात लगाने को कहा गया था.
जेसीओ छापा मारने गए दस्ते के साथ रेडियो संपर्क में था. कार्रवाई के दौरान उसे मिले रेडियो संदेश में साफ संकेत था कि आतंकवादी पास के एक नाले से होकर भाग रहे हैं जहां घात लगाकर हमले के लिए कोई टुकड़ी मौजूद नहीं थी. जेसीओ ने वहां अपने गश्ती दल की तैनाती नहीं की और आतंकवादी भाग निकले.
जेसीओ ने अपनी ‘निष्क्रियता’ के बचाव में ये दलील दी कि उसे गश्ती दल की नई तैनाती के लिए आदेश नहीं दिए गए थे. उसके कमांडिंग ऑफिसर ने उसकी दलील को नहीं माना, जिसका मानना था कि जेसीओ ने आतंकवादियों से भिड़ंत से बचने के लिए कार्रवाई नहीं की. जेसीओ का कोर्ट मार्शल हुआ और उसे सेवा से बर्खास्त कर दिया गया.
सशस्त्र बल न्यायाधिकरण ने उसकी अपील पर विचार किया लेकिन उसकी बर्खास्तगी को इस आधार पर सही ठहराया कि रेडियो संपर्क में होने के कारण जेसीओ छापे की प्रगति, छापेमारी में लगे दस्ते की कार्रवाई और अंतत: बच निकले आतंकवादियों के भागने के रास्ते के बारे में पूरी तरह वाकिफ था.
स्पष्टतया, यदि जेसीओ ने ‘मान लिया’ होता कि उसे ऐसी जगह तैनाती का आदेश है जहां कि आतंकवादियों के खिलाफ कोई घात नहीं लगाया गया था, तो वैसे में वह उन्हें बच निकलने से रोक सकता था. उसके पास ऐसा करने का ‘आदेश’ नहीं होने की दलील नहीं टिकी क्योंकि मौके पर मौजूद अधिकारी से बदलती परिस्थितियों के अनुसार फैसले लेने की अपेक्षा की जाती है. सबकुछ ‘आदेश’ के ज़रिए ही निर्देशित नहीं किया जा सकता.
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अपने स्तर पर पहलकदमी
ऐसे कई उदाहरण हैं जब निर्देशों का आंख मूंदकर पालन किए जाने को इस आधार पर सही ठहराया गया कि उनके ‘विपरीत कोई आदेश’ मौजूद नहीं था. ये आवश्यक है कि किसी सैन्य कार्रवाई में शामिल जवान परिस्थिति के अनुरूप फैसले ले.
आतंकवादियों या पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पीएलए) जैसे शत्रु के खिलाफ कार्रवाइयों के संदर्भ में कोई भी पहलकदमी, भले ही बाद में वो अपर्याप्त साबित हो, निष्क्रियता से बेहतर है. सशस्त्र बल सही मंशा से की गई किसी भी कार्रवाई को जायज ठहराते हैं— पर निष्क्रियता को कभी नहीं. आदेशों की अपरिवर्तनीयता के हिमायती हो सकता है इसे मुद्दे को अति सरलीकरण किए जाने के रूप में देखें. लेकिन संघर्ष की परिस्थितियां परिवर्तनशील होती हैं, जहां अपने स्तर पर पहलकदमी अनिवार्य हो जाती है.
(लेफ्टिनेंट जनरल ज़मीरुद्दीन शाह, पीवीएसएम, एसएम, वीएसएम (सेवानिवृत्त) सेना के उप प्रमुख और अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के कुलपति रह चुके हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं)
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