इंग्लैंड के कॉर्नवाल शहर, जिसने अभी-अभी दुनिया के सबसे समृद्ध लोकतंत्रिक देशों जी-7 के शिखर सम्मेलन की मेजबानी की है, की नैसर्गिक सुंदरता हम सब को इस बात की याद दिलाती है कि कोविड –19 की महामारी को थाम सकने में सक्षम दोहरे टीकाकरण का कार्य समाप्त होने के बाद भारत सहित पूरी दुनिया फिर से कैसी नजर आ सकती है.
दुनिया के सबसे शक्तिशाली देशों के इस समूह की मुलाकात से और भी कई सारे शक्तिशाली संदेश निकले. भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को ‘ओपन सोसाइटीज सत्र’ में मुख्य वक्ता के रूप में आमंत्रित किया गया था – हालांकि कुछ जी-7 राजनयिकों ने इस रिपोर्टर को बताया कि उन्हें इस बात पर काफी अधिक चिंता है कि कैसे भारत में एनजीओ और राजनीतिक कार्यकर्ताओं को कठोर राष्ट्रीय सुरक्षा कानूनों के तहत केवल सरकार के विरुद्ध बोलने के अपराध में गिरफ्तार कर लिया जा रहा है और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर भी सरकार के नकारात्मक प्रतिक्रिया पर काफी करीब से नजर रखी जा रही है.
यह भी पढ़ेंः कोविड वैक्सीन की एक अरब डोज़ दान करने का संकल्प लेंगे G7 देश, अमेरिका दान देगा 50 करोड़ खुराकें
जी-7 शिखर सम्मेलन और भारत
दरअसल, जी-7 शिखर सम्मेलन की पूर्व संध्या पर एक मिडल रैंक के अमेरिकी अधिकारी का कांग्रेस को यह बताने के लिए समर्थन किया गया कि नई दिल्ली की कुछ कार्रवाइयां, ‘अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध सहित’, ने कुछ ऐसी चिंताएं पैदा की हैं जो इस देश के लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ मेल नहीं खाती हैं. लेकिन इस संदेश का स्वर काफी हल्का था, यह कोई चेतावनी भी नहीं थी. वास्तविक तथ्य यह है कि भारत और अमेरिका दोनों एक साथ मिलकर काम कर रहे हैं, खासकर क्वाड के मामले में, और दोनों में से कोई भी दूसरे पक्ष को धर्मसंकट में नहीं डालना चाहता.
चीन की लगातार बढ़ती ताकत के बीच जम्मू और कश्मीर सहित कई मामलों में नई दिल्ली के वर्तमान कुछ हद तक अविवेकपूर्ण व्यवहार को गंभीरता से नहीं देखा जाता है. जी-7 यह भी देखना चाहेगा कि कैसे इसके आमंत्रित मेहमान अपने-अपने क्षेत्रों में स्थिरता के लिए आवश्यक ताकत बन सकते हैं – उदाहरण के लिए, क्या भारत अपने बाजार के अनुकूल लोकतांत्रिक मॉडल को दक्षिण एशिया के अन्य देशों में भी निर्यात कर सकता है?
फिलहाल तो, इस सवाल पर कोई भी निर्णय लंबित ही रहेगा, क्योंकि जी-7 का ध्यान कहीं और – चीन पर – केंद्रित था. जी-7 के आधिकारिक बयान में शिनजियांग में चीन के द्वारा किए जा रहे मानवाधिकारों के उल्लंघन के लिए काफी जगह दी गयी तथा इतालवी और ब्रिटिश सरकारों की अनिच्छा के बावजूद, कोविड –19 महामारी की उत्पत्ति की दुबारा से उचित जांच के लिए भी कहा गया. स्वाभाविक रूप से, अमेरिका इस तरह के आरोपों का नेतृत्व कर रहा था. जो बाइडन ने ट्वीट भी किया – ‘कूटनीति वापस आ गई है,’ अनुमान के मुताबिक ही चीन ने जी-7 के इस बयान की कड़ी निंदा की.
यह बड़े अफ़सोस की बात थी कि मोदी कॉर्नवाल में मौजूद नहीं थे, क्योंकि दूसरों से सीखना हमेशा पीएम के विकास वक्र का अहम् हिस्सा रहा है. बिग-7 नेताओं के अलावा, यहां मोदी को कई अन्य विकासशील देश के नेताओं के साथ भी करीबी मुलाक़ात का अवसर मिलता. इनमें प्रमुख हैं दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति सिरिल रामफोसा जो एक पारम्परिक ट्रेड यूनियनिस्ट हैं और जो अपने सहज व्यक्तित्व के कारण विदेशों में लोकप्रिय हैं, जिनकी उपस्थिति इस बात का प्रमाण है कि दक्षिण अफ्रीका को काफी मदद की जरूरत है क्योंकि यह देश कोविड महामारी की ‘तीसरी लहर’ में प्रवेश कर चुका है और क्योंकि यहां चीन अपनी भारी पैठ बना रहा है. वे दक्षिण कोरियाई राष्ट्रपति मून–जे-इन के साथ भी मिलते जिनका देश अमेरिका का एक करीबी सहयोगी है, जो सबको इस बात का व्यावहारिक ज्ञान दे सकता है कि कैसे एक-महामारी से निपटा जा सकता है और जो चीन का एक प्रमुख आर्थिक भागीदार होने के बावजूद उसका एक असहज पड़ोसी बना हुआ है. वहां ऑस्ट्रेलियाई प्रधान मंत्री स्कॉट मॉरिसन भी होते, जिनका देश अमेरिका के साथ एक संधि से जुड़ा है, क्वाड का एक सदस्य है, और चीन – जिसका वह कभी अत्यंत करीबी आर्थिक भागीदार था – के साथ तनावपूर्ण स्थिति में सबसे आगे है.
दरअसल, अगर मोदी कॉर्नवाल गए होते तो क्वाड की बैठक भी आसानी से हो सकती थी क्योंकि इसके अन्य अभी सदस्य – अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया वहां मौजूद थे.
यह भी पढ़ेंः PM मोदी ने जी-7 के शिखर सम्मेलन को किया संबोधित, ‘वन अर्थ- वन हेल्थ’ का दिया मंत्र
भारत का वैक्सीन मुद्दा
हालांकि, फ़िलहाल तो भारत की कोविड का सामना करने के लिए बिल्कुल नदारद तैयारी ने एक उभरती हुई वैश्विक या क्षेत्रीय शक्ति बनने के इसके सभी दावों की धज्जियां उड़ा दी हैं. मोदी सरकार भी मानती है कि इसकी तैयारी ठीक नहीं थी. भारत अब जी-7 देशों द्वारा वादा किए गए 1 बिलियन वैक्सीन की खुराक – जिसमें से करीबन आधा अमेरिका से आएगा – का एक बड़ा हिस्सा हासिल करने की उम्मीद लगा रहा है. जी-7 के एक अन्य सत्र में ‘वन अर्थ, वन हेल्थ’ का मंत्र देने के साथ ही मोदी ने विश्व व्यापार संगठन में भारत-दक्षिण अफ्रीका के प्रस्ताव को फिर से दोहराया और एकत्रित नेताओं से अनुरोध किया कि वे कोविड के टीकों और संबंधित बौद्धिक संपदा अधिकारों पर लगे प्रतिबंध को हटा लें.
हालांकि, जी-7 राजनयिक भी अब भारत के सर्वोच्च न्यायालय द्वारा 1 मई को उठाये प्रश्न को ही फिर से उठाते दिख रहे हैं कि आखिर मोदी सरकार ने कोविड के टीके, अन्य दवाओं और उपचार संबंधी सामग्री के निर्माण के लिए भारतीय फार्मा कंपनियों को अनिवार्य लाइसेंस प्रदान करने हेतु पेटेंट अधिनियम के सम्बन्घित प्रावधानों को क्यों लागू नहीं किया?
ये राजनयिक बताते हैं कि अमेरिकी ट्रेड रेप्रेसेंटिव्स की अप्रैल माह की रिपोर्ट इस ‘गंभीर सार्वजनिक स्वास्थ्य आपात स्थिति‘ का सामना करने के लिए अनिवार्य लाइसेंस जारी करने हेतु भारत जैसे भागीदारों के अधिकार को स्वीकार करती है और उसका यह भी मानना था कि कोविड –19 महामारी इस तरह की छूट के योग्य है. उनका कहना है कि भले ही फार्मा कंपनियां कोविड के टीकों के बारे में समूची जानकारी साझा नहीं करती हैं, लेकिन फिर भी यह भारतीय दवा कंपनियों के लिए भारत में अन्य दवाएं बनाने का एक सही अवसर है.
यह रिपोर्ट कहती है, ‘इसी दृष्टिकोण के अनुरूप, संयुक्त राज्य अमेरिका ट्रिप्स समझौते और ट्रिप्स समझौते तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य पर दोहा अधिघोषणा के प्रावधानों के अनुरूप अनिवार्य लाइसेंस प्रदान करने के अपने व्यापारिक भागीदारों के अधिकारों का सम्मान करता है.’
पिछले पांच वर्षों में, अमीर और गरीब दोनों देशों ने इस अधिकार का प्रयोग किया है. 2016 में, जर्मनी ने राल्टेग्राविरके लिए अनिवार्य लाइसेंस जारी किया, जो एचआईवी-एड्स के इलाज के लिए एक एंटीरेट्रोवाइरल दवा है 2020 में, इज़राइल ने लोपिनवीर – जो एक एचआईवी-एड्स विरोधी दवा के लिए इस प्रावधान का इस उम्मीद के साथ प्रयोग किया कि वह कोविड –19 का भी इलाज कर पायेगी (हालांकि इससे वास्तव में कोई मदद नहीं मिली). इस साल, रूस और हंगरी ने कोविड से निपटने के लिए रेमडेसिविर के निर्माण के लिए अनिवार्य लाइसेंस जारी किए.
सरल शब्दों में कहें तो, दोहा समझौता भारत जैसे सदस्य देशों को स्वास्थ्य आपातकाल की अवधि के दौरान व्यापक समान्य हित में किसी भी दवा का अनिवार्य रूप से लाइसेंस देने का अधिकार देता है, जो भारतीय दवा कंपनियों की पेटेंट संबंधी चिंताओं को दूर करने और उन्हें सार्वजनिक डोमेन में मौजूद जानकारी का उपयोग करके दवा का निर्माण करने में सक्षम बनाता है.
यह भी पढ़ेंः डोनाल्ड ट्रम्प ने जी7 सम्मेलन टाला, भारत समेत अन्य देशों को करना चाहते हैं शामिल
पेटेंट में छूट से राह की तलाश
कुछ लोग विदेशी फार्मा कंपनियों द्वारा भारतीय कंपनियों को अदालत में ले जाने के बारे में व्याप्त चिंताओं का हवाला देते हैं, जैसे कि रेमेडिसविर के निर्माता और प्रमुख अमेरिकी फार्मा कंपनी गिलियड ने रूस में किया है. मॉस्को ने फ़ार्मासिंटेज़ नामक एक कंपनी को रेमडेफ़ॉर्म नामक एक जेनेरिक दवा का उत्पादन करने की अनुमति दी थी क्योंकि गिलियड की रेमेडिसविर दवा, जिसे रूस में वेक्लरी कहा जाता है, की कीमत 11,544 रूबल आ रही थी, जो सरकार द्वारा निर्धारित अधिकतम 7,400 रूबल की अधिकतम मूल्य सीमा से अधिक थी.
इस सन्दर्भ में वकीलों का कहना है कि गिलियड के इस मुकदमे को जीतने की संभावना बहुत कम है क्योंकि अदालत यह भी देखेगी कि क्या अनिवार्य लाइसेंस के लिए आवश्यक शर्तों – जो किसी भी देश में एक आपातकालीन स्थिति की उपस्थिति है – को पूरा किया गया था.
भारत-दक्षिण अफ्रीका के सह–प्रस्ताव पर जी-7 की प्रतिक्रिया का अभी तक पता नहीं चला है, लेकिन विश्व व्यापार संगठन में जर्मनी, इटली और यूके का इस पर विरोध जारी है, जबकि अमेरिका ने कोविड के टीकों से संबंधित पेटेंट को माफ करने पर सहमति व्यक्त कर दी है. फ्रांस, जिसका अभी इस खेल में कुछ भी दांव पर नहीं है क्योंकि सनोफी की कोविड-विरोधी दवा अभी तक बाजारों में आई हीं नहीं है – कोविड के टीकों पर से पेटेंट प्रतिबंध हटाने के लिए सहमत हो गया है.
अंत में, जी-7 का 2021 शिखर सम्मेलन निश्चित रूप से न केवल कॉर्नवाल की प्राचीन सुंदरता के लिए, बल्कि कोविड महामारी के ज्वलंत प्रश्न को संबोधित करने और चीन की कड़ी निंदा करने के लिए भी याद किया जाएगा. अब सवाल यह है कि भारत यहां से किस ओर जाता है?
(लेखक कंसल्टिंग एडिटर हैं और यहां व्यक्त विचार निजी हैं)
इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.
यह भी पढ़ेंः महारानी एलिज़ाबेथ से बाइडन ने की मुलाकात, कहा- मुझे मेरी मां की याद दिला दी