उत्तर प्रदेश में जो हो रहा है क्या वह उत्तर प्रदेश के दलित चाहते है या राजनीतिक दल अपनी राजनीतिक आकांक्षा को सत्ता में परिवर्तन करने के लिए दलितों से अपेक्षा कर रहे है? यह सवाल उत्तर प्रदेश में हुए हाल के राजनीतिक घटनाओं से जुड़ा हुआ है.
पहला वाक़िए 20 फरवरी का है, जब राहुल गांधी अपने संसदीय क्षेत्र राय बरेली के अपने दौरे पर थे. जहां राहुल गांधी ने सभा संबोधित करते हुए दलितों के समाने यह सवाल रख दिया कि मायावती (बहनजी) अपने पुराने अंदाज में चुनाव में हिस्सा क्यों नहीं लेती है? उन्हें भारतीय राष्ट्रीय विकासशील समावेशी गठबंधन (इंडिया) का हिस्सा होना चाहिए. कांग्रेस 2027 में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले दलित समुदाय को एकजुट करने के लिए राज्य भर में कई कार्यक्रम कर रही हैं.
वही दूसरा वाकिए फरवरी में ही लखनऊ के गोमतीनगर में आयोजित भाजपा के एक सेमिनार का है. समाजवादी पार्टी के द्वारा पीडीए (पिछड़ा, दलित व आदिवासी) के खिलाफ भाजपा दलित युवाओं और बुद्धिजीवीयों से जुड़ने के मिशन पर समुदाय की सोच को आकार देने और मतदान व्यवहार को परिवर्तित करने के लिए “समाजिक न्याय” नाम से सेमिनार का आयोजन किया है.
यह आयोजन भाजपा के राज्य सचिव धर्मपाल सिंह के संरक्ष्ण में आयोजित हुआ है. इस सेमिनार में दलित छात्रों, शिक्षक, प्रोफ़ेसर को आमंत्रित किया गया था. इससे भाजपा शिक्षित दलित समाज को अपने पाले में खीचना चाहती है. दलितों में पैठ बनाने की प्रतिद्वंद्वी पार्टियों की मुहीम का मुकाबला करने के लिए मायावती ने अपने समर्थकों को आगाह करते हुए कहा कि भाजपा, सपा और कांग्रेस की चाल, चरित्र और चेहरा हमेशा डॉ आंबेडकर का घोर विरोधी रहा है.
बसपा के यूपी इकाई के अध्यक्ष विश्वनाथ पाल ने कहा “पार्टी समर्थकों को भाजपा, सपा और कांग्रेस की चाल के साथ-साथ बसपा के आदर्शों के बारे में बताने के लिए विधानसभा क्षेत्रों में “कैडर कैंप” आयोजित किए जा रहे है. पार्टी के वरिष्ट नेताओं और युवाओं को पार्टी के संस्थापक कांशीराम और पार्टी प्रमुख के संघर्ष से अवगत कराने के लिए शिविरों में भाग लेने के लिए निर्देशित किया गया है.
मायावती की चुनौतियां
अब सवाल है की क्या बसपा की यह रणनीति दलितों की उस राजनीतिक स्मृति को ज़मीन पर उतार पाएगा जिसकी शुरुआत बीएस-4 से होते हुए 2007 में बसपा सरकार के रूप में समाने आई थी. बसपा के एक पुराने कार्यकर्त्ता का मानना है कि बसपा को राजनीतिक खेल सजाने के लिए रणनीति परिवर्तित करने की ज़रूरत नहीं है बल्कि पुराने रणनीति का फिर से देखने और समझने की जरूरत है. क्योंकि आज भी मायावती कि राजनीतिक शक्ति का प्रभाव उत्तर प्रदेश के राजनीतिक मायनों को बदल सकता है. मायावती के कृतित्व कि एक गहरी छाप आज भी उत्तर प्रदेश पर है. मसलन लखनऊ में भव्य स्मारक, पार्टी कार्यालय, आंबेडकर स्मारक, पार्क, उद्यान, सड़कें और पुल आदि.
ज़ाहिर है कि यह कृतियां आज भी दलितों के राजनीतिक यादों में ज़िंदा हैं. लेकिन इस स्मृतिओं को कैसे राजनीतिक व्यवहारिकता का रूप दिया जाए? यह मायावती के लिए कड़ी चुनौती होगी.
लोकनीति-सीएसडीएस (सेंटर फॉर दि स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज) के चुनाव-पश्चात सर्वे के अनुसार, पार्टी ने अपने पारंपरिक मतदाता जाटव वोट का केवल 44 प्रतिशत ही बरकरार रखा, जो 2014 में 68 प्रतिशत से कम है, इसके अलावा गैर-जाटव दलित वोट का केवल 15 प्रतिशत ही बरकरार रखा, जबकि एक दशक पहले यह 30 प्रतिशत था.
इस राजनीतिक समीकरण को एक बार फिर से सत्ता परिवर्तन करने के लिए यह आवश्यक है कि मायावती ख़ुद राजनीतिक सभाओं को संबोधित करें और युवाओं के बीच अपनी पहुंच को मजबूती दें. कांशीराम के बाद बसपा में विचारधारात्मक परिवर्तन भी देखा जा चुका है. जो पार्टी तिलक तराजू और तलवार इनको मारों जूते चार से हाथी नहीं गणेश है ब्रम्हा विष्णु महेश है तक आ आगई हो उसे एक बार फिर दलितों पिछड़ों के बीच राजनीतिक विश्वास हासिल करने के लिए उन बस्तियों तक का दौरा करना पड़ेगा जो बसपा के सरकार में आबाद हुआ करती थी.
दलितों की राजनीतिक भागेदारी नामक अपने सर्वे में दलित महिलाओं का मानना है कि एक दिन ज़रूर बहनजी हमलोगों के बीच आएगी और वही उत्तर प्रदेश में राज करेगी. इन सब के बावजूद उत्तर प्रदेश के क्षेत्रीय दलों के पास अभी कोई ऐसी राजनीतिक भाषा नहीं है जो वहां के समान्य बाशिंदे को आंदोलित कर दे.
मसलन, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव, मायावती, अखिलेश के मुख्यमंत्री काल में लगभग ये अंदाजा लगाया जा चूका था कि उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री होने का श्रेय पिछड़ी जातियों या दलितों को ही जाएगा. जनता का भी राजनीतिक मिजाज़ लगभग इन्ही मुरादों पर कायम था. भाजपा के आगमन के बाद यह कहानी उलटी पड़ती गई. बसपा के एक दलित कार्यकर्त्ता का मानना है की भाजपा की सरकार ने दलितों और पिछड़ों को केवल वोट के रूप में देखती है.
यूपी में राजनीतिक विरोधाभास
उत्तर प्रदेश की इस राजनीतिक विरोधाभास के दो कारण है. पहला, क्षेत्रीय दल चाहे वह समाजवादी पार्टी हो या बहुजन समाज पार्टी उनके शीर्ष नेतृत्व में परिवर्तन हो चुका है. अब बात मुलायम सिंह यादव के ‘नेता जी’ और ‘चाचा जी’ वाली छवि से बहार निकल चुकी है. अब कमान अखिलेश जी या भैया के हाथ में आ चुकी है. जो ग्रामीण परिवेश की राजनीतिक भाषा न बोलकर विदेश की शिक्षा की सूझ-बुझ पर आधारित राजनीतिक रणनीति की बात कहने लगे थे.
इसका ही एक परिणाम रहा की शिवपाल को एक अलग पार्टी बनानी पड़ी थी. दूसरी ओर सपा अपने जातिगत लामबंदी को अपना जनाधार मानती रही. गैर यादव के बीच खोती अपना जनाधार के लिए समाजवादी पार्टी के पास कोई रणनीति अभी तक नज़र नहीं आ रही है. लेकिन सपा-कांग्रेस गठबंधन ने दलित वोट बैंक में महत्वपूर्ण सेंध लगाई थी, जो पार्टी को पुराने मुस्लिम-यादव समीकरण के परे ले जाता है. लोकनीति-सीएसडीएस के चुनाव-पश्चात सर्वे के अनुसार इंडिया ब्लॉक ने गैर-जाटव दलित वोट का 56 प्रतिशत और जाटव वोट का 25 प्रतिशत हासिल किया है.
परंपरागत रूप से मुसलमानों और यादवों की पार्टी के रूप में देखी जाने वाली सपा, वास्तव में अनुसूचित जातियों के लिए आरक्षित 17 निर्वाचन क्षेत्रों में से सात जीतने में सफल रही. जबकि पिछले लोकसभा चुनाव में उसे कोई सीट नहीं मिली थी. लेकिन स्वतंत्र तौर पर सपा का यदि राजनीतिक आकलन किया जाए तो सपा के पास अभी कोई राजनीतिक आधार न होने के कारण 2027 के विधानसभा चुनाव में उसकी स्थिति बेहतर नहीं दिखाई देती है. इलाहबाद विश्विद्यालय के छात्रों के बीच किये एक राजनीतिक चर्चा में एक साझा मत यह निकलता है कि अखिलेश राजनीतिक दौड़ तो लगा रहे है लेकिन रणनीतिक दौड अभी बाक़ी है.
वही दूसरा कारण मायावती अपने भतीजे आकाश आनंद की भूमिका को ही नहीं तय कर पा रही है कि पार्टी में वह किस पद पर रहेंगे. आकाश आनंद की दलित पैठ की तुलना जब आज़ाद समाज पार्टी (कांशी राम) के प्रमुख चन्द्रशेखर आज़ाद से की जाती है तो वहां आकाश आनंद का महत्व बहुत कम होता हुआ दिखाई देता है.
गौरतलब है कि आज़ाद समाज पार्टी भले ही दलितों की राजनीतिक चेतना और उनके सशक्तिकरण के दम पर खड़ी है. लेकिन आज भी अगर मायावती अपने रणनीतियों के तहत मैदान में उतरती है तो चन्द्रशेखर की राजनीति हाशिये पर जा सकती है. क्योंकि बसपा दलितों के बीच गुज़र बसर करते हुए, वैचारिक मंचन के साथ अस्तित्व में आई थी और आज भी पश्चिमी और पूर्वी उत्तर प्रदेश के कई इलाके ऐसे है जहां मायावती की प्रतीक्षा आज भी दलित बस्तियों को है. आज़ाद की राजनीति बसपा की अनुपस्थिति से उत्तर प्रदेश में पैदा हुई है.
इन विश्लेषणों के आधार पर उत्तर प्रदेश की राजनीति अपने आगामी विधानसभा चुनाव में किस करवट बैठेगी इसका आकलन अभी नहीं किया जा सकता. लेकिन यह ज़रूर है कि मायावती यदि क्षेत्र में और अपने संगठनात्मक सुझबुझ को बनाए रखेगी तो उत्तर प्रदेश की सियासत का एक विकल्प ज़रूर बन सकती है. इसी के साथ इन दोनों क्षेत्रीय दलों सपा और बसपा का अगर ज़मीनी राजनीतिक हक़ीकत से जुड़ाव टूटता है तो एक बार फिर हिंदुत्व को फैलने और व्यापक होने का मौका भी मिल सकता है.
आपका वाक्य लगभग सही है, बस कुछ छोटे सुधार की ज़रूरत है:
(डॉ. प्रांजल सिंह, दिल्ली यूनिवर्सिटी के पॉलिटिकल साइंस डिपार्टमेंट में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)
यह भी पढ़ें: आंबेडकर की छवि पार्टियों ने संविधान निर्माता तक सीमित रखी, अगर वे PM होते तो कुछ ऐसा होता देश