जवाहरलाल नेहरू की जगह सरदार पटेल प्रधानमंत्री होते तो देश के हालात कुछ और होते. ये सवाल नेहरू या कांग्रेस से नाराज नेता या राजनीतिक दल खासकर आरएसएस या बीजेपी हमेशा उठाते रहे हैं. समय-समय पर समाचार पत्र और पत्रिकाओं में भी इस पर चर्चा की जाती है. लेकिन इस सवाल को किसी ने कभी नहीं उठाया कि अगर नेहरू की जगह डॉ. आंबेडकर पीएम होते तो हालात कैसे होते यह सवाल न किसी राजनीतिक पार्टी ने उठाया और न तो समाचार पत्र पत्रिकाओं में चर्चा का विषय बना.
गांधी ने ‘गांधी वांग्मय’ में जिक्र किया है कि आजादी के बाद वे देश के सर्वोच्च पद पर किसी हरिजन को देखना चाहते हैं. इसके बावजूद फिर भी डॉ. आंबेडकर पर चर्चा क्यों नहीं होती? आंबेडकर को या तो संविधान निर्माता या फिर दलितों के मसीहा के तौर पर कमोबेश हर राजनीतिक सत्ता ने देश के सामने पेश किया लेकिन ऐसे लोगों ने आंबेडकर के राष्ट्रीय चरित्र, व्यक्तित्व और प्रतिभा को रिड्यूस (कमतर) करने का काम क्यों किया.
संवैधानिक समानता की जरूरत
सिर्फ संविधान देश में सामाजिक और आर्थिक समानता नहीं ला सकता है. संविधान में लिखी सामाजिक और आर्थिक समानता को लाने की मुहिम चलानी होगी. डॉ. आंबेडकर असमानता के उस सच को उस दौर में ही समझ रहे थे जिस सच से अभी भी राजनीतिक सत्ता आंखे मूंदे रहती हैं या फिर सत्ता पाने के लिए असमानता का जिक्र करती रहती है.
नेहरू के प्रस्ताव भारत को “स्वतंत्र संप्रभु गणराज्य” घोषित करने के बारे में बोलते हुए डॉ. आंबेडकर ने संविधान सभा में कहा था, “प्रस्ताव हालांकि यह कुछ अधिकारों का उल्लेख करता है लेकिन उपायों की बात नहीं करता है. हम सभी इस तथ्य से अवगत हैं कि अधिकार तब तक कुछ भी नहीं है जब तक की ऐसे उपाय न दिए जाएं जिनके माध्यम से लोग अधिकारों पर आक्रमण होने पर निवारण प्राप्त करने की मांग कर सकें.“
13 दिसंबर 1946 को जब जवाहरलाल नेहरू ने संविधान सभा में संविधान के उद्देश्यों पर प्रस्ताव पेश किया तो बिना देर किए आंबेडकर ने जवाहरलाल नेहरू पर तीखा प्रहार करते हुए कहा कि नेहरू की समाजवादी छवि को देखते हुए यह प्रस्ताव उम्मीद के मुताबिक नहीं है. उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें ऐसा लगा था कि इसमें कोई ऐसा नियम होगा जिससे सरकार लोगों को आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक न्याय दिला सके.
उन्होंने कहा था, “उस नजरिए से मैं आशा करता था कि ये प्रस्ताव बहुत ही स्पष्ट शब्दों में घोषित करे कि देश में सामाजिक-आर्थिक न्याय हो. इसके लिये उद्योग-धंधों और भूमि का राष्ट्रीयकरण होगा. जब तक समाजवादी अर्थतंत्र न हो तबतक मैं नहीं समझता कि कोई भावी सरकार जो सामाजिक आर्थिक और राजनीतिक न्याय करना चाहती है वह ऐसा कर सकेगी.”
डॉ. आंबेडकर उन हालातों को उसी दौर में बता रहे थे जिस दौर में देश के निर्माण की बुनियाद रखी जा रही थी. बीते 75 बरस में हर नई राजनीतिक पार्टियां पूर्व की सरकारों को लेकर यही सवाल खड़ा करते सत्ता पाती रही हैं. फिर दाए-बाए करते हुए वैसे ही सामाजिक-आर्थिक असमानता वाले हालातों में काम करती रहती हैं.
आंबेडकर ने 4 नवंबर 1948 को संविधान सभा में अपने विचार व्यक्त करते हुए कहा था, ”संविधान के स्वरूप को बदले बिना केवल प्रशासन के स्वरूप को बदलकर उसे असंगत और संविधान की भावना के विरुद्ध बनाना पूरी तरह संभव है.” आज आंबेडकर की यह भविष्यवाणी सत्य साबित होती जा रही है.
9 साल संसद में संविधान दिवस मनाए जाने के दौर को भी याद किया जा सकता है जब 26 नवंबर 2015 को संविधान दिवस मनाते हुए कांग्रेस, बीजेपी समेत दूसरी पार्टियों ने एक सुर में माना कि आंबेडकर जिन सामाजिक-आर्थिक सवालों को संविधान लागू होने से पहले उठा रहे थे, वही सवाल संविधान लागू होने के बाद देश के सामने मुंह बाये खड़े हैं.
आंबेडकर का नज़रिया
यह अलग बात है कि कांग्रेस और बीजेपी दोनों ने खुद को आंबेडकर के सबसे नजदीक खड़े होने की कोशिश संसद में बहस के दौरान की. लेकिन दोनों राजनीतिक दलों में से किसी नेता ने यह कहने की हिम्मत नहीं की कि आजादी के बाद अगर आंबेडकर देश के पीएम होते तो देश के हालात कुछ और होते.
आंबेडकर भारत की जातीय व्यवस्था में सबसे नीचे पायदान पर खड़े होकर देश की सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था को ठीक करने की सोच रहे थे. उस दौर में आंबेडकर किसी भी राजनेता से सबसे ज्यादा पढ़े लिखे विद्वान व्यक्तियों में से थे जो अमेरिका ब्रिटेन और जर्मनी के विश्वविद्यालय में कानून राजनीति और सामाजिक अध्ययन करने के साथ साथ भारत की अर्थ नीति कैसे हो इस पर भी लिख रहे थे. लेकिन डॉ. आंबेडकर का अध्ययन और भारत को लेकर उनकी सोच कैसे दलित नेता और संविधान निर्माता के तौर पर मान्यता के तहत दब कर रह गई. जबकि आंबेडकर आधुनिक भारत के अग्रीम पंक्ति के राष्ट्रीय निर्माता हैं.
जिस दौर में महात्मा गांधी हिन्द स्वराज लिख रहे थे और हिंद स्वराज के जरिये संसदीय प्रणाली या आर्थिक हालातों का जिक्र भारत के संदर्भ में कर रहे थे. उस समय आंबेडकर कोलंबिया यूनिवर्सिटी में भारत की गुलाम अर्थव्यवस्था को आज़ाद करने के लिए एक स्वतंत्र आर्थिक व्यवस्था की ज़रूरत पर बात कर रहे थे. साथ ही, वे भारत के सामाजिक जीवन को समझने के लिए संस्कृत के धार्मिक, पौराणिक और वेद से जुड़ी सारी किताबों का अनुवाद पढ़ रहे थे और उनसे जुड़ी बातें लोगों के सामने रख रहे थे.
आंबेडकर ब्राह्मणी हिन्दू व्यवस्था को सामाजिक व्यवस्था से आगे एक राजनीतिक व्यवस्था मानते थे. 1936 में उनका बहुत साफ मानना था कि ब्राह्मण हिन्दू सिस्टम में अगर अछूत जाति का व्यक्ति भी किसी ब्राह्मण की जगह ले लेगा तो वह भी उसी अनुरुप काम करने लगेगा, जिस अनुरुप कोई ब्राह्मण करता है.
अपनी किताब बुद्ध और कार्ल माक्र्स में डॉ. आंबेडकर ने भारत की सामाजिक व्यवस्था की उन कुरीतियों को उभारा भी और समाधान की उस लकीर को खींचने की कोशिश भी की है. जिस लकीर को गाहें बगाहें नेहरू से लेकर मोदी तक कभी सोशल इंजीनियरिंग तो कभी अमीर-गरीब के खांचे में उठाते हैं.
फिर अपनी किताब ‘ स्माल होल्डिग्स इन इंडिया ” में किसानों के उन सवालों को 75 बरस पहले उठाते हैं, जिन सवालों का जवाब आज भी कोई सत्ता दे पाने में सक्षम हो नहीं पा रही है. आंबेडकर किसानों की कर्ज माफी से आगे किसानों की क्षमता बढ़ाने के तरीके उस वक्त बताते है. जबकि आज देश में किसानों के कर्ज माफी के बाद भी किसान परेशान है. कर्ज की वजह से किसान खुदकुशी कर रहे हैं.
प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने आंबेडकर को कानून मंत्री के रूप में नियुक्त करते समय उन्हें कुछ समय बाद योजना आयोग का प्रभार देने का वादा किया था. क्योंकि आंबेडकर लगातार भारत के सामाजिक आर्थिक हालातों पर जिस तरह अध्ययन कर रहे थे, वैसे में उन्हें लगता रहा कि आजादी के बाद जिस अर्थव्यवस्था को या जिस सिस्टम की जरुरत देश को है, वह उसे बाखूबी जानते समझते हैं. पर आंबेडकर को योजना आयोग का प्रभार नहीं मिल सका. और अंत में डॉ. आंबेडकर ने उन्हीं सामाजिक हालातों की वजह से नेहरू मंत्रिमंडल से त्यागपत्र भी दिया जिन परिस्थितियों को वह तब ठीक करना चाहते थे.
हिन्दू कोड बिल को लेकर जब संघ परिवार से लेकर हिन्दू महासभा और कई दूसरे हिंदुत्ववादी संगठनों ने डॉ. आंबेडकर के खिलाफ सड़क पर विरोध प्रदर्शन शुरू किया. इसमें कुछ कांग्रेस वालों ने भी अंदर से सहयोग दिया. संसद में लंबी चर्चा के बाद भी देश की पहली राष्ट्रीय सरकार में जब आंबेडकर हिन्दू कोड बिल पर सहमत नहीं करा पाए तो 27 सितंबर 1951 को आंबेडकर ने नेहरू को मंत्रिमंडल से अपना इस्तीफा दे दिया.
अगर आंबेडकर पीएम होते तो…
इतिहास के पन्नों में गांधी और आंबेडकर कभी राजनीति करते हुए नजर नहीं आएंगे बल्कि दोनों ही अपने-अपने तरह से देश को गढ़ना चाहते थे. आजादी के बाद संसदीय राजनीति में दोनों महापुरूष को अपना बनाने की होड़ शुरु हुई. लेकिन उनके विचार को उन्हीं लोगों ने खारिज कर दिया जो आंबेडकर को अपना मानते नजर आए. इसलिए नेहरू या सरदार पटेल का जिक्र प्रशासनिक काबिलियत के तौर पर तो हो सकता है, लेकिन आजादी के ठीक बाद के हालात को अगर परखे तो उस वक्त देश को कैसे गढ़ना है यही सवाल सबसे बड़ा था.
स्वतंत्रता के पहले दिन से ही जो सवाल सांप्रदायिकता के दायरे से होते हुए जाति-व्यवस्था और उससे आगे समाज के हर तबके की भागेदारी को लेकर सत्ता ने उठाए या उनसे दो चार होते वक्त जिन रास्तों को चुना, वह बीते 75 वर्ष में देश उन्हीं मुद्दों में आज भी उलझा हुआ है. राजनीतिक सत्ता जाति-व्यवस्था के दायरे से इतर सोच पाने में सक्षम नहीं हैं.
आंबेडकर ग्राम पंचायत प्रणाली का भी विरोध कर रहे थे क्योंकि उनका साफ मानना था कि पंचायत चुनाव जाति में सिमटेंगे. जाति राजनीति को चलाएगी. लोकतंत्र जातितंत्र में बदल जाएगा.
जिस नजरिये का सवाल आंबेडकर आजादी से पहले और आजादी के ठीक बाद उठाते रहे उन सवालों के आईने में अगर बाबासाहेब आंबेडकर को देश सिर्फ संविधान निर्माता मानता है या दलितों के मसीहा के तौर पर देखता है तो समझना जरूरी है कि आखिर आजतक किसी भी राजनीतिक दल या किसी भी गैर-कांग्रेसी पीएम ने ये क्यों नहीं कहा कि ऐसे विचारवान आंबेडकर को तो प्रधानमंत्री होना चाहिये था. क्योंकि ये बेहद महीन लकीर है कि महात्मा गांधी जन सरोकार को संघर्ष के लिए तैयार करते रहे और आंबेडकर नीतियों के आसरे जनसरोकार के संघर्ष को पैदा करना चाहते रहे.
राजनीतिक सत्ताओं ने आंबेडकर मॉडल पर चर्चा करना तो दूर आंबेडकर को दलितों की रहनुमाई तले संविधान निर्माता का तमगा देकर उन्हें खत्म करने की कोशिश की. जो अभी भी जारी है. आंबेडकर एक उच्च कोटि के राष्ट्रीय नेता और प्रधानमंत्री पद के सबसे सुयोग्य उम्मीदवार थे यह कहने की हिम्मत किसी भी राजनीतिक दल में क्यों नहीं है? यह एक गहन शोध का विषय है.
डॉ. आंबेडकर जातियों के ऊंचाई नीचाई की भावना को हिंदुत्व कहते थे. असमानतावाद और ब्राह्मणवाद हिन्दुत्व में ही बसी है. जाति और वर्ण हिंदुत्व का अहम सार है. हिंदुत्व में जातियां हैं. ये जातियां राष्ट्र-विरोधी हैं. इसलिए क्योंकि वे सामाजिक जीवन में अलगाव लाती हैं. जाति-व्यवस्था अमानवीयकरण की प्रक्रिया है. यह जाति उत्पीड़न का साधन है और नफरत फैलाती है. अस्पृश्यता इंसानों के आपसी मेलजोल पर रोक लगाकर नफरत का सबसे बुरा रूप दिखाती है. इस कारण डॉ. आंबेडकर हिन्दुत्व के कटु आलोचक थे. आंबेडकर ने कहा कि जातिविहीन समाज की स्थापना के बिना लोकतंत्र अर्थहीन है.
अगर डॉ. आंबेडकर प्रधान मंत्री होते या उनके सुझावों को अमल में लाया गया होता तो वह जातिविहीन समाज की स्थापना के अग्रदूत बनते. सामाजिक-आर्थिक समानता लाने की गति बढ़ती. एक विश्वविख्यात अर्थशास्त्री होने के नाते डॉ. आंबेडकर देश की अर्थव्यवस्था को एक नया आयाम देते. बड़े पैमाने पर रोजगारों का सृजन होता. देश आर्थिक संपन्नता की ओर तेजी से बढ़ता.
क्या प्रधानमंत्री पद के लिए डॉ. आंबेडकर पर चर्चा नहीं करने का एकमात्र कारण उनका जाति-विरोधी रवैया है जो हिंदुत्व का मूल है. डॉ. आंबेडकर की एनिहिलेशन ऑफ कास्ट (जाति भेद के उच्छेद) नाम की किताब पर कभी भी गंभीर चर्चा होते हुए न तो समाजवादियों साम्यवादियों को देखा -सुना जाता है न कांग्रेस को, भाजपा को तो इस पर चर्चा करने का प्रश्न ही नहीं है. जो लोग अपने को भाजपाई, समाजवादी, साम्यवादी या दलित हितैषी कहते हैं उनमें से अधिकतर हिंदुत्ववादी मानसिकता से ग्रसित रहते हैं. इसलिए वोट के लालच में वे डॉ. आंबेडकर की ऊपर से खूब प्रशंसा करते हैं, फूल माला चढ़ाने में सबसे आगे रहते हैं पर अंदर से उनके सिद्धांतों की कब्र खोदते रहते हैं.
राजेंद्र प्रसाद एक लेखक हैं. उन्होंने ‘जगजीवन राम और उनका नेतृत्व’, ‘संत गाडगे: भारत की एक महान शख्सियत’, और ‘मुक्ति के अग्रदूत: बाबू जगजीवन राम’ जैसी किताबें लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.
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