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Saturday, 4 May, 2024
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मीराबाई से लेकर बाबा साहेब के श्रद्धेय क्यों हैं गुरु रविदास

भारतीय चिन्तन में अश्वघोष के बाद निर्गुण संतों ने ही जाति-प्रथा के दुष्परिणामों को मजबूती से स्वर दिया है. गुरु रविदास का स्वर इनमें सबसे ऊंचा है. आज जब उनके गुरुघर पर विवाद चल रहा है तो उनकी रचनाओं को पढ़ा जाना चाहिए.

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ऐसा चाहूं राज मैं जहां मिले सबन को अन्न.

छोट बड़ों सब सम वसै, रविदास रहे प्रसन्न- संत गुरु रविदास

भारतीय चिन्तन परम्परा में संत गुरु रविदास अछूत समाज में जन्मे ऐसे पहले व्यक्ति हैं, जिन्हें अपनी अस्मिता पर गर्व है, जिनका अस्मिता बोध अत्यंत प्रखर है और जो इसे बोलते भी हैं. आदि कवि वाल्मीकि द्वारा रचित ऐसा कोई श्लोक नहीं मिलता, जिसकी संवेदना में तत्कालीन वाल्मीकि समाज की संवेदना झलकती हो. लेकिन, संत गुरु रविदास के यहां वह स्वर विद्यमान है. वे गर्व से कहते हैं :-

1. रविदास टुवन्ता ठोरनी तितिनी तिआगी माइंया (गुरु ग्रन्थ साहब)

2. नागर जनां मेरी जाति विखियात चमार (पद-60)

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3. कह संत गुरु रविदास खलास चमारा (पद-5)

4. मेरी जाति कुढ़ बांडला ढोर ढोवंता, नितहि बनारसी आसपासा (पद-60)

5. रविदास चमार उस्तति कर हरि कीरति निमिख इक जाई.

पतित जाति उत्तम भया, चारि वरन् पये पगि आई.

संत गुरु रविदास की इन पंक्तियों का महत्व सिर्फ इसलिए नहीं है कि इनसे उनकी जाति का पता चलता है बल्कि ये पंक्तियां यह भी दिखलाती है कि जहां अन्य भक्त कवि आध्यात्मिक विमर्श में विभिन्न किस्म की आदर्शवादी अवधारणाओं को अभिव्यक्त करते है, वहीं संत गुरु रविदास जाति एवं जातिजन्य विडम्बनाओं की उपस्थिति के स्वीकार के साथ अपनी आध्यात्मिक यात्रा तय करते है. कहना न होगा कि अधिकांश भक्त कवि यह कहते हैं कि भक्ति के क्षेत्र में कोई जाति-पांति, वर्ण-अवर्ण या ऊंच-नीच का भेद नहीं होता, बल्कि वहां सब बराबर हैं.

संत रविदास ने देखा था मानव मुक्ति का सपना

संत गुरु रविदास बिना किसी आदर्शवादी मुगालते में पड़े, व्यावहारिक जीवन की वस्तु स्थिति को स्वीकारते हुए अपनी बात कहते हैं. उनकी चेतना में उनकी जातीय-अस्मिता इस कदर पैबस्त हैं कि उसी मानदण्ड से वे अपने जीवन-व्यवहार एवं कार्य-व्यापार की हर गतिविधि का अवलोकन एवं मूल्यांकन करते हैं. उनका आत्मनिवेदन उनकी जातिगत विडम्बनाओं की उपस्थिति के स्वीकार के साथ व्यक्त हुआ है. संत गुरु रविदास का यह वैशिष्ट्य संकेत करता है कि उनकी अभिव्यक्ति में सिर्फ आध्यात्मिक क्षेत्र की मुक्ति का स्वप्न नहीं, बल्कि सामाजिक मुक्ति का स्वप्न भी विद्यमान है.


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सामाजिक मुक्ति की यात्रा मानसिक मुक्ति के पहले कदम से ही शुरू होती है. सबसे पहले व्यक्ति को स्वयं की मानसिक विडम्बनाओं से मुक्त होना पड़ता है. उसे अपने आप से आश्वस्त होना पड़ता है कि वह मुक्त है, वह मानव है और उसके भी मानवीय अधिकार हैं, जिसे हासिल करना उसकी प्राथमिकता है. अपने असहाय, दीन-हीन, निर्बल, दलित होने का निरन्तर विलाप कहीं न कहीं व्यक्ति के आत्म-विश्वास को निर्बल करता है. रूसी चिन्तक और लेखक चेखव का मानना है कि कटु यथार्थ कुण्ठा पैदा करते हैं और कुण्ठा, व्यक्ति के सकारात्मक विकास में बाधा उत्पन्न करती है.

बाबा साहेब क्यों करते थे संत रविदास का सम्मान

संत गुरु रविदास में यथार्थ बोध तो है लेकिन कुण्ठा नहीं है. वे निरन्तर ऊर्जावान, गतिमान बने हुए हैं. इसी ताकत के आधार पर वे गर्व से कहते हैं कि- ‘चारों वरन पये पगि आई.’ अर्थात चारों वर्णों के लोग उनके पैरों पर पड़ते हैं.

मीराबाई कहती हैं :-

– ‘गुरु मिलिआ संत गुरु रविदास जी, दीन्ही ज्ञान की गुटकी.’

– ‘मीरा सत गुरु देव की करै वंदा आस.

जिन चेतन आतम कहया धन भगवन रैदास..’

मीराबाई का संत रविदास को गुरु मानना संत रविदास की महानता एवं संवादधर्मिता का तो परिचायक है ही, साथ ही साथ उनके जात्याभिमान, अस्मिता-बोध एवं यथार्थ-बोध का भी परिचायक है. क्षत्राणि एवं राज परिवार की सदस्या मीराबाई का अछूत समाज में जन्मे संत रविदास को अपना गुरु मानना किसी ऐतिहासिक परिघटना से कम नहीं है. आज की तरह गुरु बनने के लिए मध्यकाल में ‘विश्वविद्यालय अनुदान आयोग’ की परीक्षा नहीं पास करनी पड़ती थी. बल्कि कोई शिष्य किसी को अपना गुरु तभी बनाता था जब उसे पूरी तरह स्वीकार करता हो.

प्रसंगवश यह भी बता देना जरूरी है कि संत गुरु रविदास को स्वामी रामानन्द का शिष्य माना जाता है, लेकिन संत गुरु रविदास ने अपने पूरे कृतित्व में कहीं भी रामानन्द का नाम तक नहीं लिया है. संत गुरु रविदास पर लिखने वाले अन्य कवियों ने उनको रामानन्द का शिष्य अवश्य माना है. लेकिन संत गुरु रविदास ने कहीं नहीं. बहरहाल मीराबाई के संत गुरु रविदास को गुरु मानने से यहीं ध्वनित होता है कि यथार्थ बोध एवं अस्मिता बोध से सम्पन्न दलित, वंचित समाज को, समाज के अन्य वर्गों का भी समर्थन एवं सहयोग मिलता है. बशर्ते कि उसमें अक्खड़पन नहीं, बल्कि संत गुरु रविदास के जैसा संवादधर्मी, गरिमापूर्ण एवं सलीकेदार जज्बा हो. कटु सत्य कहना अच्छी बात है लेकिन उसी सत्य को सलीके और तहजीब के साथ कहना उससे भी अच्छी बात है. डा. अम्बेडकर ने भी इसी सत्य को स्वीकार किया था. फलतः महात्मा गांधी जैसे उनके वैचारिक विरोधी भी उनका सम्मान करते थे.

जाति से सीधे भिड़ंत करते रविदास

भारतीय संविधान की भाषा में ‘भारत एक धर्मनिरपेक्ष राज्य’ है. कुछ लोग भारत को धर्मप्रधान राष्ट्र मानते हैं. तो कुछ लोग भविष्य में इसे हिन्दू राष्ट्र बनाने की बात भी करते हैं. लेकिन सुप्रसिद्ध चिन्तक चन्द्रभान प्रसाद का मानना हैं कि भारत एक जातिप्रधान राष्ट्र है क्योंकि यहां पर किसी अपरिचित से उसकी जाति पूछी जाती है, न कि उसका धर्म. किसी का नाम पूछने से उसके धर्म का पता लग जाता है और सरनेम से जाति का. बहरहाल यह व्यावहारिक सत्य है कि भारत में जाति का प्रश्न जितना ही महत्वपूर्ण है, जाति प्रथा उतनी ही घृणित. इसके बावजूद, भारतीय चिन्तन परम्परा में जाति का प्रश्न अघोषित ‘सेंसरशिप’ का शिकार है. विभिन्न देशी-विदेशी अवधारणाओं (आइडियोलॉजी) के बहाने इस प्रश्न को दरकिनार करने की कोशिश लगातार की जाती रही है, जिस वजह से भारतीय समाज अपरिवर्तित बना हुआ है.

भारतीय चिन्तन परम्परा में, अश्वघोष के बाद संभवतः निर्गुण संतों ने ही जाति के प्रश्न एवं जाति-प्रथा के दुष्परिणामों को मजबूती से स्वर दिया है. जाति-जन्य-विषमताओं को बौद्धिक विमर्श में जगह दी है. जाति-पाति विरोधी स्वरों को निर्भिकता के साथ अभिव्यक्ति दी है. निसन्देह संत कवि संत गुरु रविदास का स्वर इनमें सबसे ऊंचा है. इस संवेदना से सराबोर कई पद संत गुरु रविदास ने लिखे हैं. जिसमें प्रस्थापित व्यवस्था के प्रति दिखावटी आक्रोश नहीं है, बल्कि सत्य को सलीके से कहा गया है, जिसकी उसकी संवेदना अत्यधिक मार्मिक बन पड़ी है. द्रष्टव्य है :-

1. जन्म जाति कूं छांड़ि कर करनी जान प्रधान.

इहयो वेद को धर्म है कहें रविदास परवान..

2. रविदास जन्म के कारने होत न कोऊ नीच.

नर कूं नीच करि डारि है, ओछे करम की कीच..

3. रविदास ब्राहमण मत पूजिये, जऊ होवे गुन हीन.

पूजिऐ चरन चंडाल के, जऊ होवे गुन परवीन.

संत गुरु रविदास ने इन पदों में कहीं जाति-व्यवस्था के जन्म देने वालों को गालियां नहीं सुनाई है, और न ही किसी अदृश्य दुश्मन को निशाना बनाया है. बल्कि उन्होंने अपने समय और समाज की विडम्बनाओं को चित्रित किया है ताकि आने वाला समय बेहतर हो सके. क्रान्तिधर्मी व्यक्तित्व वह होता है जो वर्तमान की जड़ता एवं पाखंड से लड़ता है ताकि भविष्य बेहतर हो सके.

संत रविदास का भौतिकवादी दर्शन

संत गुरु रविदास अपनी वैचारिक यात्रा में उनके साथ हमराही होते हैं जो भौतिकवादी दर्शन के प्रणेता हैं. उसके अनुगामी है. जो आस्था के स्थान पर तर्क को प्रश्रय देते है. भावनाओं की जगह विचार स्वातंत्रय से संचालित होते हैं. इसलिए संत गुरु रविदास ने व्याप्त जन्मना श्रेष्ठता की अताकिर्क अवधारणा के विपरित कर्मणा-श्रेष्ठता की अवधारणा स्थापित की हैं. संत गुरु रविदास किसी को जन्म की जाति के आधार पर श्रेष्ठ मानने के बजाय उसके कर्मों को उसकी श्रेष्ठता का आधार मानते हैं और इसे ही वेद सम्मत भी बताते है. वे सर्वश्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न व्यक्ति को सम्मानित करने के हिमायती हैं न कि उसकी जाति के. संत गुरु रविदास की इन विशिष्टताओं के कारण डा. आम्बेडकर उन्हें अत्यधिक सम्मान देते हुए अपनी पुस्तक ’द अनटचेबल्स’ उन्हें और संत नंदनार और चोखामेला को समर्पित करते हैं. कंवल भारती, शांति-स्वरूप बौद्ध, स्वरूप चन्द, जैसे विद्वान संत गुरु रविदास पर बौद्ध धर्म के प्रभाव को रेखांकित करते हैं.


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यह हमारे भारतीय समाज की विडम्बना रही है कि हमने अपने जीवन में आस्था को अधिक महत्व दिया है. जिसकी वजह से धार्मिक भावनाएं और धार्मिक विश्वास हमारी प्रगति और विकास में बाधक बनते रहते हैं. यदि हमने तार्किकता, बौद्धिकता को एक राष्ट्रीय आन्दोलन के रूप में अंगीकार किया होता- जैसा कि पाश्चात्य सभ्यता एवं संस्कृति में किया गया है, तो महात्मा बुद्ध, चार्वाक, अश्वघेष, सन्त कबीर, सन्त रैदास, महात्मा ज्योतिबा फुले, डा. अम्बेडकर जैसे महापुरूष सम्पूर्ण भारतीय समाज के आदर्श होते, जबकि ऐसा नहीं हुआ. इन महापुरूषों को कुछ खास जातियों या समुदायों में ही केन्द्रित कर दिया गया, जबकि इन महापुरूषों का दर्शन सम्पूर्ण मानवता के लिए कल्याणकारी है. हमें विश्वास है कि यदि हम बौद्धिकता, वैज्ञानिकता एवं तार्किकता को अपनी सोच का आधार बनाते हैं तो निसन्देह धार्मिक-अंधविश्वास, पाखण्ड, जातिवाद, साम्प्रदायिकता, आतंकवाद जैसे ज्वंलत राष्ट्रीय समस्याओं से निजात पा सकेंगे.

(लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में हिंदी के एसोसिएट प्रोफेसर हैं. उन्होंने संत रविदास पर पीएचडी की है)

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