निर्मल वर्मा ने लिखा था कि एक युग में सारी दुनिया में कम्युनिज्म अत्यंत मोहक कल्पना थी. आसमान में चमकता आशा का तारा! यह कल्पना कि वह मानवता को सदा के लिए शोषण-उत्पीड़न से मुक्त कर देगा. उस में विश्वास था कि मार्क्सवाद गुरुत्वाकर्षण के नियम जैसा ‘साइंस’ है, जो मानवीय इच्छा से परे स्वतंत्र रूप से क्रियाशील है. जैसे बिजली कड़कती है, या मौसम बदलता है, जिस में मनुष्य के किए या न-किए से कोई अंतर नहीं पड़ता. उसी तरह कम्युनिस्ट क्रांति अपरिहार्य है. निस्संदेह वह अंधविश्वास था, पर उस में बड़ा आकर्षण और प्रेरणा-शक्ति थी! जिन लोगों में भी समाज की भलाई की भावना थी, उन्हें कम्युनिज्म कुछ न कुछ खींचता था.
रूस में 1917 में कम्युनिस्टों द्वारा सत्ता पर कब्ज़े के बाद कम्युनिज्म के प्रति आकर्षण बड़ी तेज़ी से बढ़ा. अनेक देशों में कम्युनिस्ट पार्टियां बनी. भारत में भी उसी प्रेरणा से 1925 में कम्युनिस्ट पार्टी बनी. तब से सौ साल बीत चुके हैं. भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन में बहुत चढ़ाव-उतार आए. पर आज वह मानो अंतिम सांस ले रहा है, या नाम मात्र को बचा है.
इस अर्थ में भारतीय कम्युनिस्ट भी अन्य कम्युनिस्टों जैसे ही विफल रहे, जब तक सोवियत यूनियन का अस्तित्व रहा, तब तक, यानी 1991 तक भारत में कम्युनिस्ट पार्टियों की एक विशेष हस्ती बनी रही. उन्हें एक नैतिक, वैचारिक और भौतिक सहयोग-समर्थन मिलता रहा. रूस से भी और भारत में भी अनेक अन्य राजनीतिक दलों, विशेषकर कांग्रेस से.
अपने पूरे इतिहास में भारतीय कम्युनिस्ट प्रायः रूसी कम्युनिस्टों के अनुसार ही चलते रहे. जब और जैसे रूसी कम्युनिस्ट नेताओं की स्थिति बदलती रही, तब और तैसे भारतीय कम्युनिस्ट लाइन भी बदलती रही. पहले तीस साल तक स्टालिन युग था. तब भारतीय कम्युनिस्टों ने पहले भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में रहकर उस के नेतृत्व पर कब्ज़ा करने का मंसूबा रखा. जवाहरलाल नेहरू के कम्युनिस्ट समर्थक होने से उन्हें कांग्रेस में महत्व मिलता रहा था.
लेकिन 1940 में मुस्लिम लीग द्वारा पाकिस्तान की मांग करने के बाद भारतीय कम्युनिस्ट मुस्लिम-परस्त हो गए. उन्होंने इसे मुसलमानों के ‘आत्मनिर्णय का अधिकार’ कहकर जोरदार समर्थन दिया. उन्हें आशा थी कि इस से वे मुसलमानों और फिर नए देश पाकिस्तान में प्रभावशाली शक्ति हो जाएंगे. कम्युनिस्टों द्वारा पाकिस्तान की मांग को समर्थन देने से मुस्लिम लीग को एक बौद्धिक आधार मिला, जो पहले नहीं था. पर पाकिस्तान बन जाने के बाद वहां कम्युनिस्टों को कोई जगह नहीं मिली. उलटे उन का दमन हुआ. कई मुस्लिम मार्क्सवादी पाकिस्तान से भारत चले आए.
ख्रुश्चेव रिपोर्ट: वह सच जिसे भारत में छिपाया गया
दूसरी ओर, 1947 में कांग्रेस द्वारा स्वतंत्र भारत की सत्ता लेने के बाद भारतीय कम्युनिस्टों ने ‘यह आज़ादी झूठी है’ कहकर 1948 में सशस्त्र विद्रोह करके सत्ता पर कब्ज़े का प्रयास किया. बंबई में इस की कार्रवाई का रोचक विवरण राज थापर की डायरी-आत्मकथा ‘ऑल दीज इयर्स’ (1991) में है. उस में काफी संख्या में कम्युनिस्ट मारे गए और कम्युनिस्ट नेता जेल में डाल दिए गए. बाद में, गृह मंत्री सरदार पटेल के देहांत के बाद, प्रधानमंत्री नेहरू ने उन्हें रिहा कर दिया. फिर कम्युनिस्टों ने 1952 के आम चुनाव में भाग लिया और 16 सीटें जीतकर दूसरी सब से बड़ी संसदीय पार्टी बने. तब से वे मूलतः चुनावी राजनीति के जोड़-तोड़ में ही रहे.
किंतु कम्युनिस्ट पार्टियों का अपना सैद्धांतिक विश्वास बहुत पहले से खत्म होना शुरू हो चुका था. उस में 1956 ई. में ‘गोपनीय ख्रुश्चेव-रिपोर्ट’ एक निर्णायक घटना थी. लगभग छः हज़ार शब्दों की वह रिपोर्ट तब पिछले चार दशक के सोवियत कम्युनिज्म का भयावह दस्तावेज़ था! उसे स्वयं रूस की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी के सर्वोच्च नेता निकिता ख्रुश्चेव ने सोवियत कम्युनिस्ट पार्टी की बीसवीं कांग्रेस में पेश किया था. बाद में, वह गोपनीय विवरण उन्होंने दुनिया की सभी कम्युनिस्ट पार्टियों को भी दे दिया था. हालांकि, वह रिपोर्ट दूसरे ही दिन, 5 जून 1956 को न्यूयॉर्क टाइम्स में पूरी छप गई थी.
पर यहां भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने कार्यकर्ताओं से उस सच्चाई को छिपाया क्योंकि उसे पढ़ लेने के बाद कम्युनिज्म की असलियत समझ में आ जाती थी. उस रिपोर्ट से कम्युनिज्म का ‘साइंस’ होने का दावा चकनाचूर हो चुका था. पर भारत में उस के बाद भी हज़ारों भले लोग कम्युनिज्म से जुड़ते रहे! यह मुख्यतः सच्चाई के प्रति अंधेरे में रहने के कारण ही हो सका. असंख्य पढ़े-लिखे भारतीय, विशेषकर लेखक और कवि कम्युनिज्म की परिकल्पना और बौद्धिक आडंबर से प्रभावित होते रहे. यह भारतीय समाज और शासन की दयनीय शिक्षा का भी संकेत था.
फिर यहां, प्रथम प्रधानमंत्री नेहरू के कम्युनिस्ट-समर्थक होने से भी कम्युनिस्टों से सहयोग एक राजकीय लीक बन गई. इस से वह शिक्षित वर्ग में फैलता रहा. सोवियत संघ से नियमित आने वाले प्रचार-साहित्य को यहां कम्युनिस्ट और अनेक कांग्रेसी नेता भी फैलाते थे. उस से भारत में सोवियत यूनियन से सहानुभूति और अमेरिका से दुराव की भावना बनती थी. कम्युनिस्ट नेताओं का मुख्य काम ही सोवियत प्रचार को फैलाना रहा था. वे समझते थे कि कम्युनिस्ट ही विश्व की अग्रगति हैं जिस का अगुआ सोवियत संघ है.
यह भारतीय स्थिति की विशेष विडंबना थी कि पश्चिमी दुनिया में कम्युनिज्म की सचाई ज़ाहिर होने के बाद भी यहां अधिकांश लोगों को उस का शायद ही पूरा पता चल सका. पर मार्क्स-लेनिन का सचमुच अध्ययन करने वाले प्रायः वामपंथ से दूर हो जाते थे. पूरी दुनिया में कम्युनिज्म के सब से प्रभावशाली आलोचक वही थे जो पहले मार्क्सवादी थे और जिन्होंने अपने अध्ययन, अवलोकन से उसे गलत पाया. भारत में निर्मल वर्मा, अरूण शौरी, सीताराम गोयल, इसके उदाहरण थे.
रूस बनाम चीन: भारतीय कम्युनिस्टों का विभाजन
पर यहां की कम्युनिस्ट पार्टी मुख्यत: सोवियत प्रचार ही करती रही. चीन में कम्युनिस्ट सत्ता बन जाने के बाद चीनी कम्युनिस्ट नेताओं का भी प्रभाव भारतीय कम्युनिस्टों में आया. फिर जब चीनी और रूसी कम्युनिस्टों में मतभेद हुआ तो भारतीय कम्युनिस्टों में भी रूस-समर्थक और चीन-समर्थक धड़े बन गए. 1962 में भारत पर चीनी आक्रमण के बाद यह मतभेद तेज़ हो गया और 1964 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी विभाजित हो गई. तब से भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीएम) दो पार्टियां बनी गई.
फिर पक्के माओवादियों ने सीपीएम से भी अलग होकर 1967 में सीपीआई-एमएल बनाई. उन्होंने माओ की नकल में सशस्त्र विद्रोह करके सत्ता पर कब्ज़ा करने की कोशिश की. यह मई 1967 में बंगाल के नक्सलबाड़ी से आरंभ हुआ. इस में हज़ारों लोगों की जान गई. बाद में माओवादियों ने अपनी नीति में सुधार किया, वे भी चुनाव लड़ने लगे.
इस तरह, मामूली शाब्दिक विवादों को छोड़कर सभी प्रकार के भारतीय कम्युनिस्ट संसदीय राजनीति ही करते रहे हैं. 1985 में सोवियत रूस में मिखाइल गोर्बाचेव के सत्ता संभालने के बाद एक बार फिर बड़े पैमाने पर रूसी कम्युनिज्म के इतिहास की छिपी बातें सामने आईं. गोर्बाचेव ने ‘इंटेसिफिकात्सिया’ (कार्य में तीव्रता), फिर ‘ग्लास्नोस्त’ (खुलापन) और ‘पेरेस्त्रोइका’ (पुनर्निर्माण) आदि द्वारा सोवियत कम्युनिज्म को सुधारने की कोशिश की. सेंसरशिप को ढीला किया और सोवियत कम्युनिज्म की पुरानी गलतियों की खुली आलोचना का रास्ता खोल दिया. पर मार्क्सवाद, लेनिनवाद को बचाते हुए अर्थव्यवस्था और राजनीतिक तंत्र को सुधारना असंभव साबित हुआ. गोर्बाचेव विफल रहे, सोवियत यूनियन टूट गया. इस से चीनी कम्युनिस्टों ने सीख ली और राजनीति में कम्युनिस्ट तानाशाही रखते हुए अर्थव्यवस्था में मार्क्सवाद और माओवाद को खत्म कर दिया.
यह सब भारतीय कम्युनिस्टों के बौद्धिक और भौतिक रूप से भी अनाथ हो जाने जैसा साबित हुआ. जब तक केंद्र में संयुक्त मोर्चे वाली सरकारें रहीं, तब तक सीपीआई और सीपीएम की कुछ पूछ बनी रही. पर भाजपा के मजबूत होते जाने के बाद कम्युनिस्टों की बची-खुची हैसियत भी खत्म हो गई.
इस तरह, पूंजीवाद और ‘निजी संपत्ति’ को खत्म करके समाजवाद और कम्युनिज्म लाने की कम्युनिस्ट परियोजना पूरी तरह अतीत हो गई है. अब कम्युनिस्ट नेता मार्क्सवाद की बुनियादी अवधारणाओं का नाम भी नहीं लेते. वह इतिहास के कबाड़खाने या बौद्धिक म्यूजियम की चीज़ हो चुकी हैं.
इन सौ सालों में भारतीय कम्युनिस्टों में असंख्य आदर्शवादी, ईमानदार, और निष्ठावान लोग हुए. पर जिन कल्पनाओं ने उन्हें आकर्षित किया, वे सभी नकली साबित हुई. इस अर्थ में पूरी दुनिया में कम्युनिज्म का इतिहास आइडियोलॉजी वाली राजनीति की विफलता का सब से बड़ा उदाहरण है. सभी अनुभवों ने यही दर्शाया कि मार्क्सवाद के ‘साइंस’ होने, सोवियत संघ के ‘विकसित समाजवाद’, और समाजवाद की उन्नतिशील और पूंजीवाद के पतनशील होने की बातें कोरी गप थीं.
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के सौ साल भी निर्णायक रूप से यही बताते हैं. मानव समाज को किसी पूर्व-निर्धारित डिजाइन में ढालना एक असंभव, हानिकारक और अनुचित कार्य है. जैसा दॉस्तायेवस्की ने लिखा था: चिड़ियों और चींटियों के रहने-जीने की बनी-बनाई डिजाइनें होती हैं, पर मनुष्य अपने जीने की कोई डिजाइन नहीं जानता. कम्युनिस्ट इतिहास के तमाम विफल प्रयोग भी यही दिखाते हैं.
(लेखक हिंदी के कॉलमनिस्ट और पॉलिटिकल साइंस के प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)
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