नई दिल्ली: साल 2011 की एक शाम, लुटियंस दिल्ली में तालकटोरा मार्ग पर एक केंद्रीय मंत्री के आवास पर, कुछ वरिष्ठ पत्रकार हिल्सा मछली का मज़ा ले रहे थे, जब उनमें से एक, जो एक हिंदी दैनिक के संपादक थे, मेज़बान की ओर मुड़े और उन्होंने कहा, ‘सर, ये सरदार जी से देश नहीं चलेगा ‘.
डाइनिंग टेबल पर बैठे दूसरे लोग उनकी तरफ मुड़े और अविश्वास व बेचैनी के साथ उन्हें देखने लगे, क्योंकि वो तब के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की आलोचना कर रहे थे. मेज़बान का चेहरा लाल हो गया, ‘मिस्टर (नाम हटा दिया है), क्या आपको पता है कि आप भारत के प्रधानमंत्री के बारे में बात कर रहे हैं? आपकी हिम्मत कैसे हुई उनके बारे में इस तरह बात करने की? आपको कुछ सम्मान दिखाना चाहिए’.
गुस्साए मेज़बान थे तब के वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी और उनके तेज़ सियासी दिमाग ने फौरन पकड़ लिया होगा कि पत्रकार किस ओर इशारा कर रहा था.
मनमोहन सिंह की अगुवाई में यूपीए-2 सरकार, पॉलिसी पेरालिसिस के लिए आलोचनाएं झेल रही थी. मुखर्जी को हमेशा एक प्रतीक्षारत प्रधानमंत्री के रूप में देखा गया था, उस वक्त से जब 1984 में जब उनकी सरपरस्त इंदिरा गांधी की हत्या हुई और अटकलें थीं कि मुखर्जी खुद अंतरिम पीएम बनना चाहते थे. बाद में स्वयं मुखर्जी और उस विचार-विमर्श में शरीक अन्य लोगों ने इसके विपरीत स्पष्टीकरण दिया था.
लेकिन ऐसा लगता था कि इन अफवाहों ने, इंदिरा के बेटे राजीव गांधी के मन में शक का बीज बो दिया था. इसलिए, हालांकि मुखर्जी का नाम मंत्रियों की उस लिस्ट में पहला था, जो राजीव गांधी ने 31 अक्टूबर 1984 की शाम, शपथ ग्रहण समारोह के लिए राष्ट्रपति ज्ञानी ज़ैल सिंह के पास भेजी थी लेकिन उनका नाम तब लिस्ट से गायब हो गया जब दो महीने बाद हुए लोकसभा चुनावों के बाद, राजीव की मंत्री परिषद को शपथ दिलाई गई.
मुखर्जी ने अपनी जीवनी द टर्ब्युलेंट इयर्स:1980-1996 के दूसरे हिस्से में लिखा है, ‘मैं सिर्फ यही कह सकता हूं कि उन्होंने गलतियां कीं और मैंने भी की. वो दूसरों के असर में आ गए और मेरे खिलाफ उनके झूठे आरोपों पर कान धरा’.
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‘वो इंसान जो कुछ ज़्यादा ही जानता था’
1986 में द इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ इंडिया के लिए, प्रीतीश नंदी के प्रणब मुखर्जी के साथ किए गए इंटरव्यू के शीर्षक, द मैन हू न्यू टू मच (वो इंसान जो कुछ ज़्यादा ही जानता था) ने, उन्हें पार्टी से निकलवा दिया. मुखर्जी ने राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस की स्थापना की और तीन साल वीराने में गुज़ारे, उसके बाद जाकर उनकी अपनी मूल पार्टी में वापसी हुई.
‘जो आदमी कुछ ज़्यादा ही जानता था’, उसके और गांधी परिवार के बीच भरोसे में जो दरार आई थी, वो बरकरार रही. नरसिम्हा राव ने जिनके गांधी परिवार के साथ मधुर संबंध नहीं थे, मुखर्जी को योजना आयोग का उपाध्यक्ष बना दिया. लेकिन इससे भी उनका भला नहीं हुआ. ये इसके बावजूद था कि मार्च 1998 में, कांग्रेस कार्यकारिणी समिति की उस बैठक में मुखर्जी का भी दिमाग था, जिसमें तब के कांग्रेस अध्यक्ष सीताराम केसरी को हटाकर सोनिया गांधी के लिए रास्ता साफ किया गया था.
पाइप पीने वाले इस राजनेता को, ये बयान करने में बहुत मज़ा आता था कि इंदिरा गांधी उनपर इतना भरोसा क्यों करतीं थीं, ‘वो कहतीं थीं ‘आप प्रणब के सर पर हथौड़ा मारिए, लेकिन उनके अंदर से सिर्फ धुआं निकलेगा’. लेकिन इससे ज़्यादा वो कुछ नहीं कहते थे, इंदिरा गांधी के बारे उनके मुंह से एक शब्द नहीं निकलता था. बाद में उन्होंने पाइप पीना बंद कर दिया लेकिन उनकी प्रतिष्ठा वही बनी रही, भले ही उन्होंने किसी के भी नीचे काम किया हो, जैसा कि 2011 के डिनर पर उस संपादक को पता चला.
मुखर्जी के पार्टी सहयोगी उस आदमी से होशियार रहते थे, ‘जो कुछ ज़्यादा ही जानता था’. जब भी वो रिपोर्टरों से कहते थे कि वो रोज़ाना की एक डायरी रखते हैं और उसकी सामग्री का इस्तेमाल अपनी आत्मकथा में करेंगे, तो बहुत से कांग्रेसियों में बेचैनी फैल जाती थी. उन्हें राहत तब महसूस हुई, यूपीए की ओर से भारत के राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित किए जाने के कुछ दिन बाद, रिपोर्टरों के एक सवाल के जवाब में उन्होंने बताया कि उनकी वो डायरियां खो गई हैं.
एक गूढ़ सी मुस्कुराहट के साथ उन्होंने बताया, ‘मैंने वो डायरियां अपने ग्रेटर कैलाश के घर में रखीं हुईं थीं. भारी बारिश के चलते उसमें पानी भर गया और वो डायरियां बह गईं’. बाद में उन्होंने तीन हिस्सों में अपनी जीवनी लिखी लेकिन उसका रस उन डायरियों के साथ बह गया था.
काश मुखर्जी ने उन डायरियों की सॉफ्ट कॉपियां बना ली होतीं लेकिन ऐसा होना नहीं था क्योंकि राष्ट्रपति भवन में दाखिल होने के बाद ही उन्होंने लैपटॉप का इस्तेमाल सीखने का फैसला किया. वो एसएमएस भेजने में भी सहज नहीं थे- वो अकसर अपने ऑफिस स्टाफ से, अपने मोबाइल मैसेज टाइप करवाकर, उनके प्रिंट-आउट मंगवाते थे.
वो शायद भारत के अकेले राष्ट्रपति थे, जिन्हें आप सीधे उनके मोबाइल फोन पर कॉल कर सकते थे. एक रिपोर्टर ने जब उनसे पूछा कि क्या राष्ट्रपति के लिए अपना फोन रखना उचित है तो उन्होंने मज़ाक में जवाब दिया, ‘जब संविधान लिखा जा रहा था तो कोई मोबाइल नहीं था इसलिए कोई पाबंदी नहीं है’.
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यूपीए के राहुल द्रविड़
मुखर्जी यूपीए सरकार के राहुल द्रविड़ या ‘दीवार’ थे जैसा कि कांग्रेसी नेता सलमान खुर्शीद ने उन्हें एक बार कहा था. पार्टी और सरकार के भीतर वो ‘आम सहमति बनाने वाले’ और ‘संकट मोचक’ थे, जिन्होंने एक समय 90 से अधिक मंत्री समूहों (जीओएम) की अध्यक्षता की, सरकार की संसदीय रणनीति बनाई और यूपीए के घटक दलों और विपक्षी दलों के साथ समन्वय स्थापित किया. वो राजनीति और शासन से जुड़ी हर अहम समिति का हिस्सा थे- यूपीए-लेफ्ट समन्वय समिति, कांग्रेस कोर ग्रुप, कांग्रेस कार्य समिति, वगैरह-वगैरह. लेकिन उनकी किस्मत में शायद सरकार में नंबर दो रहना ही लिखा था.
अपनी आत्मकथा में, उन्होंने इशारा किया कि 2004 में सोनिया गांधी के पीएम बनने से इनकार करने के बाद वो अपेक्षा कर रहे थे कि सोनिया इस पद के लिए उन्हें नामांकित करेंगी. उन्होंने लिखा, ‘कांग्रेस पार्टी के भीतर आमराय ये थी कि इस पद पर किसी ऐसे सियासी लीडर को बैठना चाहिए जिसके पास पार्टी मामलों और प्रशासन दोनों का अनुभव हो. उस समय ये अपेक्षा की जा रही थी कि सोनिया गांधी के मना करने के बाद प्रधानमंत्री के लिए अगली पसंद मैं बनूंगा’.
बाकी इतिहास हो गया. वो मनमोहन सरकार में शामिल होने के इच्छुक नहीं थे लेकिन तब मान गए जब सोनिया ने इस बात पर ज़ोर दिया कि इसके कामकाज के लिए वो बहुत ‘ज़रूरी’ होंगे.
एक बार फिर 2012 के राष्ट्रपति चुनाव से पहले मुखर्जी के मन में ‘हल्का सा ख़याल’ था कि अगर सोनिया गांधी ने राष्ट्रपति ऑफिस के लिए मनमोहन सिंह को चुन लिया तो फिर वो ‘प्रधानमंत्री के लिए मुझे चुन सकती हैं’ (2014 में). उन्होंने अपनी आत्मकथा के तीसरे भाग कोलिशन इयर्स: 1996-2012 में इस बात का जिक्र किया है.
मुखर्जी को लगता था कि 13 नंबर उनके लिए शुभ था. उनकी शादी 13 जुलाई को हुई थी, वो 13 तालकटोरा रोड पर रहते थे, संसद में उनका ऑफिस 13 नंबर कमरे में था. हालांकि मुखर्जी ने खुले तौर पर कभी इसका अफसोस नहीं किया लेकिन 13 नंबर में उनकी आस्था थोड़ी हिली ज़रूर होगी जब 2004 में मनमोहन सिंह, भारत के 13वें प्रधानमंत्री बने. लेकिन फिर आठ साल बाद मुखर्जी भारत के 13वें राष्ट्रपति बने.
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सिनेमा में कोई रूचि नहीं
प्रणब मुखर्जी को पढ़ने का बहुत शौक था लेकिन सिनेमा में उनकी कोई रूचि नहीं थी. 2006 में रक्षा मंत्री के नाते, उन्होंने आमिर खान की रंग दे बसंती देखी थी क्योंकि सशस्त्र बलों को उस फिल्म के कुछ दृश्यों पर आपत्ति थी. इससे पहले उन्होंने जो आखिरी फिल्म देखी थी वो सत्यजीत रे की जलसाघर (1958) थी.
एक्टर से राजनेता बने विनोद खन्ना, इस बात से वाकिफ नहीं थे, जब वो पहली बार बीजेपी टिकट पर चुनाव जीतकर संसद पहुंचे, तो वो जल्दी से मुखर्जी के पीछे बढ़े, जब वो संसद में अपने ऑफिस की तरफ जा रहे थे.
एक्टर कहते रहे, ‘सर, मैं विनोद खन्ना हूं’ लेकिन मुखर्जी ने रुककर देखने की ज़हमत ही नहीं की.
जैसे ही मुखर्जी ऑफिस के दरवाज़े पर पहुंचे, हताश खन्ना ने फिर कोशिश की, ‘सर, मैं गुरदासपुर एमपी हूं.’
मुखर्जी अचानक रूके और मुड़कर बोले, ‘ओह, वेल्कम, वेल्कम. प्लीज़ आईए.’
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