अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप के दोबारा सत्ता में आने के बाद से यह चर्चा रही है कि उनकी विदेश नीति उनके अपने अंदाज़ पर आधारित है या इसके पीछे कोई तय रणनीति है. अब हमारे पास एक आधिकारिक दस्तावेज़ है—“नेशनल सिक्योरिटी स्ट्रैटेजी ऑफ द यूनाइटेड स्टेट्स ऑफ अमेरिका”—जो 4 दिसंबर को जारी हुआ. 29 पन्नों का यह दस्तावेज़ ट्रंप प्रशासन की रणनीतिक सोच को बताता है.
इस रणनीति का मुख्य फोकस पश्चिमी यूरोप, चीन, लैटिन अमेरिका और मध्य पूर्व पर है, साथ ही यह भी कि अमेरिका के अंदर क्या बदलाव किए जाएं. भारत का इसमें ज़िक्र बहुत कम है. ट्रंप की इस रणनीति के मुख्य बिंदु दिए जा रहे है. समझना ज़रूरी है.
दस्तावेज़ की शुरुआत पिछले प्रशासन की दो तरह की आलोचना से होती है. पहली, पहले की सरकारों ने यह ग़लत सोचा कि अमेरिका के पास इतना संसाधन है कि वह अंदरूनी तौर पर एक वेलफ़ेयर और रेगुलेटरी राज्य चला सके और बाहर रक्षा, ख़ुफ़िया और विदेश नीति का विशाल ढांचा भी संभाल सके. उन्होंने अमेरिका की क्षमता को “अधिक आंका” और अब इसे छोटा किया जाना चाहिए.
दूसरी, उनका मानना है कि पहले की सरकारों ने ग्लोबलाइजेशन और तथाकथित फ्री ट्रेड को बहुत बढ़ाया, जिसने अमेरिका के उसी मध्यवर्ग और औद्योगिक ढांचे को कमज़ोर किया, जो उसकी आर्थिक और सैन्य शक्ति का आधार है. अमेरिका के सहयोगी देशों को अपनी सुरक्षा पर ज़्यादा ख़र्च करना चाहिए, न कि उसकी “कीमत अमेरिका पर डालनी चाहिए”. साथ ही अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की ताकत कम होनी चाहिए, “जिनमें से कुछ स्पष्ट रूप से अमेरिका-विरोधी सोच” पर चलती हैं. इसका मतलब संयुक्त राष्ट्र और विश्व बैंक जैसी संस्थाओं के लिए अमेरिकी समर्थन कम करना हो सकता है.
क्या विविधता राष्ट्रीय सुरक्षा को कमज़ोर करती है?
सुरक्षा के नज़रिए से देखें तो ट्रंप की इस रणनीति में संस्कृति और नस्लीय विविधता के मुद्दों पर ज़ोर बिल्कुल नया है, देश के अंदर और बाहर दोनों जगह.
अंदरूनी तौर पर ट्रंप “अमेरिकी आध्यात्मिक और सांस्कृतिक स्वास्थ्य की बहाली” चाहते हैं, जिसके बिना दीर्घकालिक सुरक्षा संभव नहीं. उनका ज़ोर है कि गैर-पश्चिमी देशों से आने वाले प्रवास को कड़ी तरह सीमित किया जाए और सरकारी व गैर-सरकारी संस्थानों में चल रही DEI (डाइवर्सिटी, इक्विटी, इंक्लूजन) नीतियों को छोड़ा जाए. दस्तावेज़ कहता है, “बड़े पैमाने पर प्रवास का दौर ख़त्म हो चुका है”, क्योंकि इससे अपराध बढ़ा, सामाजिक एकता टूटी, श्रम बाज़ार प्रभावित हुआ और विदेशी हित अमेरिकी राजनीति में आ गए, जिससे राष्ट्रीय सुरक्षा कमज़ोर हुई.
बाहर की दुनिया के लिए दो बातें कही गई हैं. पहली, अमेरिका अब विदेश नीति में लोकतंत्र को खास तवज्जो नहीं देगा और न ही किसी देश में लोकतंत्र को बढ़ाने की कोशिश करेगा. वह देश के स्थानीय सामाजिक ढांचे को मानकर ही व्यवहार करेगा और सिर्फ अपने हित देखेगा.
दूसरी, ट्रंप का मानना है कि अमेरिका का सबसे बड़ा सहयोगी पश्चिमी यूरोप “सभ्यतागत संकट” से गुजर रहा है. दस्तावेज़ में यह बात साफ तौर पर कही गई है:
“यूरोप जिन बड़े मुद्दों का सामना कर रहा है… उनमें प्रवासन नीतियां शामिल हैं जो महाद्वीप को बदल रही हैं और तनाव पैदा कर रही हैं, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर सेंसरशिप, राजनीतिक विपक्ष का दमन, गिरती जनसंख्या और राष्ट्रीय पहचान व आत्मविश्वास का कम होना. अगर यही रुझान चलते रहे तो 20 साल में यूरोप पहचान में नहीं आएगा… हम चाहते हैं कि यूरोप यूरोपीय बना रहे और अपना सभ्यतागत आत्मविश्वास वापस पाए.”
ट्रंप कहते हैं कि यूरोप की पुनर्जीवित करने वाली ताकतें राइट विंग सोच वाली पार्टियां हैं, न कि मौजूदा सरकारें. इसका मतलब ब्रिटेन की नाइजेल फ़राज की रिफॉर्म पार्टी, फ्रांस की मरीन ले पेन की नेशनल रैली और जर्मनी की AfD जैसी पार्टियों से है. दस्तावेज़ कहता है कि यूरोप को गैर-यूरोपीय देशों से आने वाले प्रवास को काफ़ी कम करना चाहिए और दक्षिणपंथी पॉपुलिज़्म अपनाना चाहिए.
लैटिन अमेरिका (या “वेस्टर्न हेमिस्फ़ेयर”) के बारे में दस्तावेज़ में “ट्रंप कोरोलरी” का ज़िक्र है, जो 19वीं सदी के मोनरो सिद्धांत का विस्तार है. इस पूरे क्षेत्र को अमेरिका के प्रभाव वाला इलाक़ा बताया गया है, जहां चीन जैसे अन्य देशों की दखलअंदाज़ी कम होनी चाहिए. साथ ही ड्रग कार्टेल और अपराध सिंडिकेट, जिनका असर अमेरिका पर पड़ता है, उन्हें तोड़ा जाना चाहिए और इस क्षेत्र से आने वाले हिस्पैनिक प्रवास को सीमित किया जाना चाहिए. ध्यान रहे कि हिस्पैनिक अब अमेरिका की सबसे बड़ी अल्पसंख्यक आबादी हैं—18 प्रतिशत, जो अफ्रीकी-अमेरिकियों से डेढ़ गुना है.
मिडिल ईस्ट पर, जहां अमेरिकी विदेश नीति “पिछले कम से कम पचास वर्षों से सबसे ज़्यादा केंद्रित रही है”, ट्रंप का तर्क है कि अब इस क्षेत्र का तेल महत्व कम हो गया है क्योंकि अमेरिका ने अपनी ऊर्जा उत्पादन क्षमता बढ़ा ली है. लेकिन “संघर्ष अभी भी मध्य पूर्व की सबसे बड़ी चुनौती” है.
ट्रंप प्रशासन की दो-तरफ़ा रणनीति होगी. पहला, क्षेत्र पर किसी “दुश्मन देश” का कब्ज़ा नहीं होने देना, जिसका मतलब ईरान और उसके ग़ाज़ा, सीरिया, लेबनान और यमन में मौजूद सहयोगी हैं. दूसरा, वह इस क्षेत्र को “दोस्ती, साझेदारी और निवेश की जगह” बनाना चाहता है—जैसा कि अब्राहम समझौते में दिखा. उनका मानना है कि व्यापार संघर्ष को कम कर सकता है.
चीन से निपटना
दस्तावेज़ में चीन को किसी भी अन्य देश से ज़्यादा जगह दी गई है. दस्तावेज़ कहता है कि ट्रंप ने “अकेले ही चीन के बारे में तीन दशक पुरानी ग़लत धारणाओं को पलट दिया. यह मान लिया गया था कि अगर अमेरिका अपने बाज़ार चीन के लिए खोल दे, अमेरिकी कंपनियों को चीन में निवेश करने दे और अपनी मैन्युफैक्चरिंग चीन को आउटसोर्स करे, तो चीन एक ‘नियम-आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था’ का ज़िम्मेदार सदस्य बन जाएगा”. ऐसा नहीं हुआ, और अमेरिका की आर्थिक नीतियां बनाने वाले वर्ग—जो डेमोक्रेट और रिपब्लिकन दोनों सरकारों के दौर में प्रभावशाली रहे—इसके “सहयोगी” बने रहे. चीन का उभार अमेरिका के लिए नुकसानदेह रहा है, आर्थिक रूप से भी और रणनीतिक रूप से भी.
तो, अमेरिका को चीन से कैसे निपटना चाहिए?
आर्थिक रूप से चीन के व्यापार अधिशेष खत्म होने चाहिए. चीन में निजी कारोबारियों को मिलने वाली सरकारी सब्सिडी भी खत्म होनी चाहिए. बौद्धिक संपदा की चोरी और “हमारी सप्लाई चेन… जिनमें रेयर अर्थ एलिमेंट्स भी शामिल हैं” के लिए चीन के ख़तरे को भी रोका जाना चाहिए.
राष्ट्रीय सुरक्षा के लिहाज़ से “ताइवान पर संघर्ष को रोकना… प्राथमिकता” है. ताइवान की महत्वता पर ज़ोर दिया गया है. यह सेमीकंडक्टर उत्पादन में अग्रणी है और “सेकंड आइलैंड चेन तक सीधी पहुंच देता है और उत्तर-पूर्व व दक्षिण-पूर्व एशिया को दो हिस्सों में बांटता है”. दक्षिण चीन सागर की सुरक्षा भी बेहद अहम है, जहां से “हर साल दुनिया के एक-तिहाई जहाज़ गुजरते हैं”. चीन जैसा “प्रतिस्पर्धी देश” इसे सैन्य रूप से नियंत्रित करे, यह स्वीकार नहीं किया जा सकता.
ये लक्ष्य कैसे पूरे होंगे? अमेरिका खुद को चीन के मुकाबले सैन्य रूप से मजबूत करेगा, लेकिन उसके सहयोगी देशों को भी योगदान देना होगा. जापान और दक्षिण कोरिया को रक्षा खर्च बढ़ाना चाहिए. और अमेरिका को “भारत के साथ व्यापारिक और अन्य संबंधों को और मजबूत करना चाहिए, ताकि नई दिल्ली इंडो-पैसिफिक सुरक्षा में योगदान दे सके, जिसमें ऑस्ट्रेलिया, जापान और अमेरिका के साथ जारी क्वाड सहयोग भी शामिल है”.
दस्तावेज़ में भारत का यह दो छोटे उल्लेखों में से एक है. शुरुआत में यह भी कहा गया है कि मई में भारत-पाकिस्तान संघर्ष में ट्रंप ने युद्धविराम कराने में सफलता हासिल की.
अंत में दो निष्कर्ष दिए जा सकते हैं. पहला, ट्रंप की सुरक्षा नीति उस सवाल को उठाती है, जिस पर विद्वान बात करते रहे हैं लेकिन रक्षा नीति दस्तावेज़ों में कम आता था. क्या नस्ली विविधता राष्ट्रीय सुरक्षा को कमज़ोर कर सकती है? ट्रंप के लिए इसका जवाब साफ है—हाँ, और यह ऐसा करती है. विद्वानों का कहना रहा है कि यह इतिहास और संस्थाओं पर निर्भर करता है.
दूसरा, उनका भारत को लेकर नजरिया व्यावहारिक है, सैद्धांतिक नहीं . बिल क्लिंटन से लेकर रिपब्लिकन और डेमोक्रेट—सभी अमेरिकी सरकारों के लिए अमेरिका-भारत संबंध, जैसा बराक ओबामा ने कहा था, “21वीं सदी का निर्णायक संबंध” था. ट्रंप के लिए भारत की अहमियत सिर्फ इंडो-पैसिफिक सुरक्षा तक सीमित है.
आशुतोष वार्ष्णेय इंटरनेशनल स्टडीज़ और सोशल साइंसेज़ के सोल गोल्डमैन प्रोफेसर और ब्राउन यूनिवर्सिटी में पॉलिटिकल साइंस के प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.
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