भीमा कोरेगांव हिंसा मामले में अपने खिलाफ दर्ज एफआईआर को रद्द कराने के लिए मानवाधिकार कार्यकर्ता गौतम नवलखा द्वारा दायर याचिका पर सुप्रीम कोर्ट के कई जजों के सुनवाई से अलग हटने को लेकर थोड़ी भ्रम की स्थिति है. भ्रम जजों के सुनवाई से अलग होने के कारणों और ऐसे जजों की सही संख्या को लेकर है. दोनों ही बातें चिंताजनक हैं.
कुछ रिपोर्टों में मामले से अलग हुए जजों की संख्या पांच, तो कुछ अन्य में तीन बताई जा रही हैं.
संख्या जो भी हो, ये तो तथ्य है ही कि किसी भी जज ने ये नहीं बताया है कि वह मामले की सुनवाई क्यों नहीं कर सकता या उसे सुनवाई क्यों नहीं करनी चाहिए. खुद को केस से अलग करने वाले जजों की संख्या को लेकर बना भ्रम शीर्ष न्यायालयों में मामले से अलग होने को लेकर बरती जाने वाली अपारदर्शिता को ही उजागर करता है.
बात न्यायिक मर्यादा की है
हालांकि ये सिर्फ उच्च न्यायालयों या सुप्रीम कोर्ट के जजों द्वारा अहम मामलों से कारण बताए बगैर खुद को अलग करने के मौकों की संख्या की बात नहीं है. महत्वूर्ण ये जानना भी है कि कितनी बार जजों ने न्यायिक मर्यादा की अवहेलना करते हुए उन मामलों की सुनवाई की है जिनमें या तो स्वयं वे एक पक्ष थे या जिनसे उनका कोई प्रत्यक्ष संबंध था. उन्होंने सीधे-सीधे इस सूक्ति को नजरअंदाज किया: Nemo judex in causa sua यानि किसी को भी खुद से जुड़े मामले में जज नहीं बनना चाहिए.
ये रहे हाल के कुछ उदाहरण:
जब सुप्रीम कोर्ट की एक पूर्व महिला कर्मचारी ने भारत के मुख्य न्यायाधीश (सीजेआई) रंजन गोगोई पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगाया, तो सीजेआई ने इस केस की सुनवाई खुद करने का फैसला किया. ऐसा कर उन्होंने खुद को और न्यायपालिका को भी कानून और नैतिकता की दृष्टि से गलत होने के आरोपों का निशाना बना छोड़ा.
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उक्त मामले की सुनवाई करने वाली बेंच के मुख्य जज के तौर पर सीजेआई गोगोई ने कई दावे किए और खुद को एक तरह से क्लीन चिट दे दिया. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की पूर्व कर्मचारी के आरोपों को देश के मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ एक बड़ी साजिश का हिस्सा बताया और न्यायपालिक की स्वतंत्रता पर ‘बहुत गंभीर खतरे’ का हौआ खड़ा किया कि कुछ ताकतें सीजेआई की संस्था को ‘अप्रभावी’ बना देना चाहती हैं.
सुप्रीम कोर्ट के कई वरिष्ठ वकीलों समेत बहुत से लोगों ने खुद पर लगे यौन उत्पीड़न के आरोप के केस की सुनवाई करने के सीजेआई गोगोई के फैसले और सुनवाई के दौरान उनके आचरण को लेकर सवाल उठाए थे.
सीजेआई गोगोई सबसे आगे
सीजेआई रंजन गोगोई ने असम के हिरासत केंद्रों में लोगों को ‘अमानवीय’ परिस्थितियों में रखे जाने के मुद्दे पर एक जनहित याचिका की सुनवाई से भी खुद को अलग करने से इनकार कर दिया था. उन्होंने उन्हें केस से अलग रखने का आग्रह करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मांदेर से कहा था कि उनकी याचिका में सुप्रीम कोर्ट की ‘संस्था को नुकसान पहुंचाने की भारी क्षमता है’ और सीजेआई के मामले से अलग होने का मतलब होगा ‘संस्था का विध्वंस’. मांदेर ने अपनी याचिका में कहा था कि पहले की सुनवाई के दौरान की गई उनकी मौखिक टिप्पणियों को अधिकारियों ने और अधिक संख्या में लोगों को हिरासत में लेने और निर्वासित करने का आधार बनाया था.
सीजेआई गोगोई की अध्यक्षता वाली खंडपीठ इतना पर ही नहीं रुकी बल्कि उसने मामले में याचिकाकर्ता मांदेर की जगह उच्चतम न्यायालय कानूनी सेवा प्राधिकरण को मुख्य वादी बना दिया.
उसी सीजेआई के गौतम नवलखा मामले की सुनवाई से खुद को अलग करने में ‘संस्था के विनाश’ के खतरे को नहीं देखने को थोड़ा विडंबनापूर्ण माना जा सकता है. जहां कई मामलों से खुद को अलग करने से इनकार करते हए सीजेआई गोगोई ने ‘न्यायपालिक चरमरा जाएगी’ जैसे कारण गिनाए थे, इस बार उन्होंने कोई वजह बताने की ज़रूरत नहीं समझी कि आखिर क्यों वे नवलखा की ज़मानत याचिका की सुनवाई से अलग हो रहे हैं. हालांकि बहुत से लोग नवलखा के केस से उनके अलग होने को बाबरी मस्जिद राम जन्मभूमि भूमि विवाद में उनकी व्यस्तता से जोड़ कर देखते हैं क्योंकि वह 17 नवंबर को अपनी सेवानिवृति से पहले उस मामले को निपटाना चाहते हैं.
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एक अन्य मामला इंटरनेशनल सेंटर फॉर अल्टर्नेटिव डिस्प्यूट रिज़ॉल्यूशन (आईसीएडीआर) के केंद्र द्वारा अधिग्रहण का है. इस मामले में आईसीएडीआर के वकील राजीव धवन ने आग्रह किया था कि सीजेआई गोगोई सुनवाई करने वाली खंडपीठ से अलग हो जाएं क्योंकि वह इस केंद्र के पदेन अध्यक्ष थे.
लेकिन सीजेआई गोगोई की अध्यक्षता वाली तीन जजों की खंडपीठ ने याचिका को खारिज करते हुए कहा कि ‘उक्त कथन सही है तो भी, खंडपीठ जो आदेश पारित करने पर विचार कर रही है उसके मद्देनज़र हम मौजूदा विशेष अनुमति याचिका पर इस अदालत में विचार किए जाने में कोई बाधा या समस्या नहीं देखते.’
उसके बाद खंडपीठ ने याचिका को खारिज कर दिया.
पूर्व में भी जजों ने ऐसा किया है
सीजेआई गोगोई के पूर्ववर्ती मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा का भी खुद के मामलों की सुनवाई नहीं करने की न्यायिक मर्यादा का पालन करने में कोई बेहतर रिकॉर्ड नहीं था.
एक्टिविस्ट वकील प्रशांत भूषण ने सीजेआई मिश्रा से आग्रह किया था कि वे मेडिकल कॉलेज घोटाला मामले से खुद को अलग कर लें. उस मामले में एक पूर्व जज पर भी आरोप लगाए गए थे और सीजेआई का खुद का आचरण भी संदेहों के घेरे में था. पर, सीजेआई मिश्रा ने भूषण की अपील को खारिज कर दिया.
राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (एनजेएसी) मामले में सुनवाई के दौरान वरिष्ठ वकील फली नरीमन ने तब अगला सीजेआई बनने की कतार में सबसे आगे जस्टिस जगदीश सिंह खेहर से सुनवाई से अलग होने की अपील की थी, क्योंकि वे कॉलेजियम के सदस्य थे. पर सुनवाई करने वाली खंडपीठ ने सर्वसम्मति से याचिका को खारिज कर दिया.
जस्टिस खेहर ने खुद लिखा: ‘यदि मैं सुनवाई से खुद को अलग करने के आग्रह को मान लेता हूं तो मैं एक गलत प्रथा शुरू करूंगा, एक गलत मिसाल पेश करूंगा. मुख्य न्यायाधीश द्वारा सौंपे गए किसी मामले से कोई जज खुद को अलग कर सकता है. हालांकि ये उसका खुद का निर्णय होगा. पर जब तक न्यायोचित ना हो, सुनवाई से अलग करने के वादी पक्ष के आग्रह को कभी नहीं माना जाना चाहिए. क्योंकि ऐसा करने का ये मतलब निकलेगा कि महज आपत्ति उठा कर जज को मामले से अलग होने पर मजबूर कर दिया गया.’
मुख्य न्यायाधीश बनने के बाद जस्टिस खेहर ने कहा था कि सुप्रीम कोर्ट एक दिशा-निर्देश को अंतिम रूप दे रहा है जिसके तहत किसी मामले से हटने पर जजों के लिए सुप्रीम कोर्ट की रजिस्ट्री को इसकी लिखित सूचना देना अनिवार्य होगा, साथ ही उसे अपने फैसले की वजह भी बतानी होगी.
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वास्तव में, एनजेएसी मामले में अपने सहमत फैसले में, सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन जज कुरियन जोसेफ ने भी किसी मामले से हटने पर जजों के वजह बताने की ज़रूरत पर बल दिया था.
कुरियन जोसेफ ने कहा, ‘बतौर संस्था पारदर्शिता जिसकी पहचान है, उस सुप्रीम कोर्ट में बड़ी और महान ज़िम्मेदारी निभा रहे जजों से इतनी उम्मीद करना उचित ही है कि वे किसी केस की सुनवाई से अलग होने की कम से कम मोटे तौर पर वजह बताएं… पारदर्शी और जवाबदेह होना एक संवैधानिक दायित्व है, जो पद की शपथ में भी प्रतिबिंबित है, इसलिए जजों को मामला विशेष से अलग होने के अपने फैसले की वजहों को चिन्हित करने की ज़रूरत है.’
समस्या ये है कि आज शायद ही ऐसा कोई जज है जो इस प्रशंसनीय सुझाव का पालन करता दिखता हो.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)