प्रधानमंत्री बनने के फ़ौरन बाद नरेंद्र मोदी ने ‘स्मार्ट पुलिस’ का संक्षिप्त नाम गढ़ा था. इसके शब्दों में ‘एस’ यानि कि स्ट्रिक्ट एंड सेंसिटिव (सख्त और संवेदनशील), ‘एम’ यानि कि मॉडर्न एंड मोबाइल (आधुनिक और गतिशील), अलर्ट एंड अकाउंटेबल (सतर्क और जवाबदेह) के लिए ए, रिलाएबल एंड रेस्पॉनिसिबल (विश्वसनीय और उत्तरदायी) के लिए आर, और टेक-सेवी एंड ट्रेंड (तकनीक-प्रेमी और प्रशिक्षित) के लिए टी का प्रयोग किया गया था. हालांकि, यदि अधिकांश पुलिस बल, जिसमें ज्यादातर सिपाही स्तर के कर्मी शामिल होते हैं, को औपनिवेशिक युग के मानदंडों के अनुसार ही भर्ती और प्रशिक्षित किया जाता रहा, तो ऐसा कोई रास्ता नहीं है जिससे कि 2006 में सर्वोच्च न्यायालय द्वारा की गई सात सिफारिशें भी प्रधानमंत्री द्वारा परिकल्पित ‘स्मार्ट पुलिस’ की अवधारणा के लिए कोई बड़े बदलाव वाला क्षण ला पाएंगीं.
लेकिन आइए पहले हम साल 1996 में दो पूर्व पुलिस महानिदेशकों, प्रकाश सिंह और एनके सिंह, द्वारा दायर एक जनहित याचिका पर जारी किये गए सुप्रीम कोर्ट के 2006 के निर्देशों की पड़ताल करें. इस जनहित याचिका के आलोक में माननीय सुप्रीम कोर्ट ने साल 1977 में गठित राष्ट्रीय पुलिस आयोग (नेशनल पुलिस कमीशन- एनपीसी) की सिफारिशों को लागू करने के लिए सरकार को निर्देश दिया था, जिसमें पुलिस संगठन, इसकी भूमिका, कार्यप्रणाली और पब्लिक इंटरफेस को कवर करने वाले व्यापक टर्म्स ऑफ रिफरेन्स (विचारार्थ विषय) शामिल हैं. एनपीसी ने साल 1979 और 1981 के बीच कुल आठ रिपोर्ट्स पेश की थीं और सुप्रीम कोर्ट ने उसकी सिफारिशों में माद्दा पाया और गृह मंत्रालय एवं राज्य सरकारों को इस बारे में सात स्पष्ट निर्देश दिए. इनमें राजनीतिक नियंत्रण को सीमित करने के लिए एक संस्थागत तंत्र की स्थापना, पुलिस महानिदेशक (डायरेक्टर जनरल ऑफ़ पुलिस- डीजी) की योग्यता-आधारित नियुक्ति सुनिश्चित करना, एसएचओ से लेकर डीजीपी तक ऑपरेशनल ड्यूटी (क्रियाशील दायित्व वाले पदों) पर तैनात पुलिस अधिकारियों के लिए न्यूनतम दो साल का कार्यकाल, जांच के कार्य को कानून और व्यवस्था से अलग करना और एक पुलिस शिकायत प्राधिकरण, पुलिस स्थापना बोर्ड एवं राष्ट्रीय और राज्यस्तरीय सुरक्षा आयोगों का गठन करना शामिल था.
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कानून के ऊपर ‘आदेश’
हालांकि, कुछ राज्यों ने पुलिस शिकायत प्राधिकरण, पुलिस स्थापना बोर्ड और सुरक्षा आयोग में सेवानिवृत्त आईएएस और आईपीएस अधिकारियों को नामित करके एनपीसी की चुनिंदा सिफारिशों को लागू किया है, लेकिन ऑपरेशनल ड्यूटी वाले अधिकारियों, विशेष रूप से एसएचओ के कार्यकाल से संबंधित नियमों का लगातार उल्लंघन किया गया है. अधिकांश राज्यों ने पुलिसिया जांच के कार्य को कानून और व्यवस्था एवं प्रोटोकॉल से संबंधित कार्यों से अलग करने की मुख्य सिफारिश को भी लागू नहीं किया है.
वास्तव में, जैसा कि विधि आयोग (लॉ कमीशन) और दूसरे प्रशासनिक सुधार आयोग (सेकंड एडमिनिस्ट्रेटिव रिफॉर्म्स कमीशन) द्वारा इंगित किया गया था, राज्य पुलिस अधिकारी अक्सर अपनी जिम्मेदारी की इस वजह से उपेक्षा करते हैं क्योंकि उनके पास पर्याप्त कर्मियों का अभाव और कई तरह के कार्यों का अधिक बोझ होता है. इसके अलावा, अपराध की जांच के लिए जरूरी कौशल, प्रशिक्षण, समय और संसाधनों के अलावा पर्याप्त फॉरेंसिक क्षमताओं और बुनियादी ढांचे की भी आवश्यकता होती है. इसी कारण से यहां बार-बार ‘थर्ड डिग्री’ (यातना के तहत की गयी पूछताछ) का सहारा लिया जाता है. यह औपनिवेशिक अतीत की एक विरासत जैसा है जब ‘कानून’ पर ‘आदेश’ को वरीयता दी जाती थी.
पुलिस जांच के बेतरतीब तौर तरीकों पर किये गए एक प्रामाणिक अध्ययन (‘द ट्रुथ मशीन्स : पुलिसिंग, वायलेंस, एंड साइंटिफिक इंटेरोगेशंस इन इंडिया, जिनी लोकनीता (Jinee Lokaneeta) द्वारा संकलित और 2020 में प्रकाशित) से भी इसकी पुष्टि होती है. वह बताती हैं कि ‘भारत में यातना आतंकवाद और हत्या से लेकर चोरी तक के कई सारे मामलों में दी जाती है. बावजूद इस तथ्य के कि यातना के तहत हासिल किए गए इकबालिया बयान और सबूत अदालत में अस्वीकार्य होते हैं, और हमारी नीति पुलिस को कानूनी रूप से स्वीकारोक्ति को रिकॉर्ड करने से रोकती है; औपनिवेशिक काल से चली आ रही इस प्रथा के अवशेष भारतीय पुलिस के लिए अक्सर एक कष्टकारी रहे हैं. फिर भी भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 27, स्वीकारोक्ति के जरिए खोजे गए साक्ष्य के साथ स्वीकारोक्ति के उस हिस्से को भी मानने की अनुमति देती है जिस वजह से इस सामग्री की खोज की गई है.
यही बात हमें जांच की फर्स्ट और सेकेंड डिग्री की चर्चा की ओर ले जाती है. एक फर्स्ट डिग्री की जांच वह है जिसमें साक्ष्य – सामग्री के रूप में और परिस्थितिजन्य दोनों तरीके से जांच एजेंसी द्वारा इस तरह एकत्र की जाती है ताकि यह साबित हो सके कि कथित अपराध के लिए आरोपी ही जिम्मेदार है. दूसरी डिग्री वह है जहां पुष्टि किये जाने के प्रयोजन से आरोपी का सबूत के साथ सामना करवाया जाता है. शारीरिक बल के इस्तेमाल या धमकी, जिसमें परिवार के किसी करीबी सदस्य को धमकी दिया जाना भी शामिल है, से प्राप्त स्वीकारोक्ति थर्ड डिग्री की जांच के तहत आती है. भारत यूनाइटेड नेशंस कन्वेंशन ऑफ टार्चर (अत्याचार पर संयुक्त राष्ट्र समझौते) का एक हस्ताक्षरकर्ता है, मगर हमारी संसद ने अभी तक इस बारे में कोई विशिष्ट कानून नहीं बनाया है. हालांकि, यह स्वीकार किया जाना चाहिए कि हाल फिलहाल में, राष्ट्रीय और राज्य मानवाधिकार आयोगों ने इस पर स्वत: संज्ञान लेना शुरू कर दिया है.
भारत के कांस्टेबल्स को सशक्त बनाएं
अब हमें अपने आप से एक प्रश्न पूछना चाहिए : शीर्ष पदों पर बैठे लोगों के नेक संकल्पों ने भी जमीनी हकीकत को प्रभावित क्यों नहीं किया? इसका उत्तर भारतीय पुलिस बल की संरचना में मौजूद है: पीआरएस लेजिस्लेटिव रिसर्च की वेबसाइट के अनुसार, इस बल में शामिल 86 प्रतिशत कर्मीं कांस्टेबल स्तर के होते हैं, जिन्हें उनके दिमागी कौशल के बजाय उनके शारीरिक गुणों के लिए चुना जाता है. वास्तव में, देश में भारी संख्या में पुलिसकर्मियों को स्कूल से पास होने के बाद ही भर्ती कर लिया जाता है और उन्हें लगभग सैन्य शैली में प्रशिक्षित किया जाता है, जिसमें शारीरिक प्रशिक्षण, बाधाओं को पार करना और वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा दिए गए ‘आदेशों का बिना किसी शक के पालन करना’ सिखाया जाता है. हालांकि, एक कांस्टेबल को सौंपी गई जिम्मेदारियां केवल रोजमर्रा वाली नहीं होती हैं, बल्कि इसमें कुछ हद तक परख करना और निर्णय लेना भी शामिल होता है.
अक्सर कांस्टेबल ही किसी अपराध को देखने या उसकी खबर देने वाले पहले व्यक्ति होते हैं, लेकिन आपराधिक प्रक्रिया संहिता (क्रिमिनल प्रोसीजर कोड -सीआरपीसी) एक कांस्टेबल को स्वयं जांच करने के लिए अधिकृत नहीं करती है- केवल एक कांस्टेबल से ऊपर के रैंक का ही पुलिस, अधिकारी कहलाने का हकदार होता है. इस तरह, एक हेड कांस्टेबल रैंक का पुलिसकर्मी एक अधिकारी होता है, लेकिन एक कांस्टेबल नहीं. दूसरे शब्दों में, फर्स्ट और सेकेंड डिग्री की जांच का विकल्प पुलिस बल के ज्यादातर हिस्से के लिए उपलब्ध भी नहीं होता है, और इसलिए कांस्टेबल केवल ‘थर्ड डिग्री’ का ही सहारा ले सकता है. भले ही हम उन कांस्टेबलों की भर्ती के लिए जरूरी कदम उठाएं जो मौजूदा समय की चुनौतियों से निपटने के लिए तैयार होते हैं, फिर भी यही सही समय है कि हमें पुलिस कांस्टेबल को सशक्त बनाने के लिए सीआरपीसी में संशोधन की जरूरत है.
ऐसे में, कांस्टेबलों के लिए सेलेक्शन के मानदंड और प्रशिक्षण में शामिल अध्यापन प्रणाली को बदलना समय की मांग है. पुलिस के कर्तव्यों से जुड़े प्रमुख कार्यों के लिए, हमें स्नातकों की भर्ती करनी चाहिए और उन्हें कानून, फॉरेंसिक, अपराध का पता लगाने आदि में दो साल का गहन प्रशिक्षण देना चाहिए. साथ ही, उन्हें लिंग, किशोरों के लिए न्याय और सामाजिक कानून से संबंधित मुद्दों के प्रति संवेदनशील बनाया जाना चाहिए. नीति आयोग द्वारा तैयार मॉडल पुलिस बिल, 2015 में भी यह सुझाव दिया गया है कि पुलिस को अपने प्रमुख और गैर-प्रमुख कार्यों के बीच स्पष्ट अंतर करना चाहिए और बाद वाले को नागरिक अधिकारियों को आउटसोर्स/ऑफलोड कर देना चाहिए. जहां तक राज्य सशस्त्र पुलिस और भारतीय रिजर्व बटालियनों का संबंध है, उनके पदों को अब से अग्निवीरों द्वारा ही भरा जाना चाहिए, क्योंकि उन्होंने जिला प्रशासन के लिए सुरक्षा और रक्षा की पहली पंक्ति में रहने की जरूरी प्रशिक्षण प्राप्त किया हुआ है.
एक स्मार्ट पुलिस की नींव तभी रखी जा सकती है जब हम अपने कांस्टेबलों का कानून, फॉरेंसिक और प्रौद्योगिकी को समझने के हिसाब से सेलेक्शन करते हैं और प्रशिक्षित करते हैं, तथा उनके पेशेवर करियर में एक सुनिश्चित विकास का प्रक्षेपवक्र (ट्रेजेकटरी) होता है.
यह लेख ‘स्टेट ऑफ द स्टेट‘ श्रृंखला का हिस्सा है जो भारत में नीति, सिविल सेवाओं और शासन का विश्लेषण करता है.
(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्ल्कि करें)
संजीव चोपड़ा पूर्व आइएएस अधिकारी और वैली ऑफ वड्र्स के फेस्टीवल डायरेक्टर हैं. हाल तक वे लाल बहादुर शास्त्री नेशनल अकेडमी ऑफ एडमिनिस्ट्रेशन के डारेक्टर थे. उनका ट्विटर हैंडल @ChopraSanjeev. है. विचार निजी हैं.
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