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Saturday, 21 December, 2024
होममत-विमतभाजपा के लिए उद्धव ठाकरे इस बात की सटीक मिसाल हैं कि कैसे सरकार नहीं चलाई जानी चाहिए

भाजपा के लिए उद्धव ठाकरे इस बात की सटीक मिसाल हैं कि कैसे सरकार नहीं चलाई जानी चाहिए

सरकार बनाने के लिए ज़रूरी संख्या बल जुटाने से भी अधिक आनंददायक होता है पूर्व मेंसहयोगी रहे अपनेप्रतिद्वंद्वीको लगातार शर्मिंदगी झेलते और सत्ता केनाकाबिल नज़र आते देखना.

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महाराष्ट्र में मची अव्यवस्था ने वहां भाजपा में नई जान फूंक दी है. 2014 से ही स्वर्णिम दौर से गुजर रही पार्टी को हर बार नया संकट खड़ा होने पर तमाशे का आनंद लेने और विपक्ष की हैसियत से शोर मचाने के अलावा शायद ही कुछ करना पड़ा हो. उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली महाविकास अघाड़ी (एमवीए) सरकार इतनी अनुभवहीन दिखती है कि भाजपा न सिर्फ महाराष्ट्र में, बल्कि जहां भी वह सत्ता से बाहर है, वहां के मतदाताओं को उत्साह से बता सकती है कि कैसे केवल भाजपा सरकार ही सुशासन और विकास सुनिश्चित कर सकती है. गृहमंत्री अनिल देशमुख पर भ्रष्टाचार के आरोपों, वो भी मुंबई के पूर्व पुलिस प्रमुख परमबीर सिंह द्वारा लगाए गए, के साथ ही एमवीए सरकार ने भाजपा को विपक्ष के मनमाफिक मुद्दा थमा दिया है.

नवंबर 2019 में सत्ता में आने के बाद से ही ठाकरे की अगुवाई वाली सरकार को एक के बाद एक शर्मिंदगी वाले संकटों का सामना करना पड़ रहा है, और इस प्रक्रिया में मुख्यमंत्री और उनकी टीम की प्रशासनिक अनुभवहीनता, शासन संबंधी अपरिपक्वता और अक्षम्य स्तर की अक्षमता उजागर हो रही है. इसी के साथ शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस के कथित ‘अपवित्र’ गठबंधन’ के हाथों कुर्सी की दौड़ में पराजित रही भाजपा का उत्साह सातवें आसमान पर है.

नंबर गेम में आगे रहने और सरकार बनाने से भी अधिक आनंददायक होता है आपको सत्ता से दूर रखने में कामयाब पूर्व में सहयोगी रहे प्रतिद्वंद्वी को लगातार शर्मिंदगी झेलते और सत्ता के नाकाबिल नज़र आते देखना. क्योंकि ऐसा होने पर ही आप मतदाताओं को आश्वस्त कर सकते हैं कि केवल आप ही चुने जाने लायक हैं. नरेंद्र मोदी और अमित शाह, जिन्हें सत्ता छिनने का ज्यादा अनुभव नहीं है, को उद्धव की समस्याओं— केंद्र से निरंतर तकरार, सहयोगी दलों से जुड़ी मुसीबतें, सुशांत सिंह राजपूत मामले से संबंधित शर्मिंदगी, कैबिनेट मंत्री संजय राठौड़ का इस्तीफा, कोविड-19 महामारी का लचर प्रबंधन और हालिया मुकेश अंबानी के घर के सामने बम-सचिन वाज़े-परमबीर सिंह प्रकरण— की वजह से अप्रत्याशित (या शायद अपेक्षित) आनंद मिल रहा होगा.

देशमुख के खिलाफ आरोप सही हो या नहीं, और परमबीर सिंह के पत्र के समय और उद्देश्य को लेकर सवाल भले ही अनुत्तरित हों, लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि एमवीए सरकार मुश्किलों में घिरी हुई है.


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‘महा’ संकट

उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री बनने के लिए बहुत कुछ करना पड़ा. शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस गठबंधन वैचारिक और राजनीतिक दोनों ही दृष्टियों से एक अस्वाभाविक समझौता है. लेकिन, शायद यह एकमात्र तरीका था जो ठाकरे के वारिस को महाराष्ट्र का शीर्ष पद दिला सकता था.

हालांकि, अब यही लगता है कि पद हासिल करना उद्धव के लिए एक कठिन लड़ाई की शुरुआत भर थी. उन्होंने अपनी अनुभवहीनता और मामलों पर नियंत्रण न रख पाने के कारण अपनी सरकार की बहुत किरकिरी कराई है.

उदाहरण के लिए, कोविड के मोर्चे पर भारी कुप्रबंधन को लें. महामारी की पहली लहर के दौरान महाराष्ट्र की स्थिति सर्वाधिक चिंताजनक थी, और मुंबई एक हॉटस्पॉट बनकर उभरा था. एक समय तो महामारी का प्रबंधन इतना लचर था कि मरीज को आईसीयू बेड के लिए अस्पतालों के चक्कर काटने में अहम समय गंवाना पड़ रहा था. दूसरी लहर में, महाराष्ट्र एक बार फिर कोविड के केंद्र के रूप में उभरा है. ताज़ा स्थिति की बात करें, तो भारत के सक्रिय कोविड मामलों का 63 प्रतिशत अकेले महाराष्ट्र में है, जो कि किसी भी पैमाने से एक बड़ी संख्या है. टीकाकरण के मोर्चे पर भी, केंद्र को टीकाकरण की धीमी गति और ‘अप्रयुक्त’ टीकों के कारण राज्य की खिंचाई करनी पड़ी है.

उद्धव की सरकार जहां कोविड की स्थिति पर काबू पाने में अभी तक पूरी तरह नाकाम रही है, वहीं इसने कुछ प्रमुख बुनियादी ढांचा परियोजनाओं पर केंद्र के साथ तकरार करने में भी महत्वपूर्ण समय बर्बाद किया है. सरकार के लिए शर्मिंदगी की वजह बनने में उद्धव के मंत्री भी पीछे नहीं रहे हैं— पहले एक टिकटॉक स्टार की मौत के मामले में वन मंत्री संजय राठौड़ का नाम उछला और अब गृहमंत्री अनिल देशमुख गलत कारणों से सुर्खियों में हैं.

कानून और व्यवस्था के मोर्चे पर तो एमवीए सरकार और भी बुरी दिखी है. अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत के मामले के कुप्रबंधन से लेकर टीवी पत्रकार अर्णब गोस्वामी को जान-बूझकर परेशान करने, मुख्यमंत्री की आलोचना करने वाले भाजपा समर्थकों के खिलाफ मामले दायर किए जाने और एंटीलिया बम कांड तक— अनेक मामलों में इस सरकार की किरकिरी हुई है.

सरकार चलाने के मामले में उद्धव ठाकरे द्वारा प्रदर्शित अनुभवहीनता हैरान करने वाली है, और ये स्थिति तब है जब शरद पवार जैसा दिग्गज उनके साथ है जिनसे कि वे बहुत कुछ सीख सकते हैं और सलाह ले सकते हैं.

जैसा कि मुंबई स्थित मेरी सहयोगी मानसी फडके कहती हैं, ‘बहुत सारी समस्याएं इस तथ्य में निहित हैं कि उद्धव के पास एक राजनीतिक पार्टी का नेतृत्व करने का प्रशासनिक अनुभव तो है, लेकिन वहां एक तरह से उन्हें मनमर्जी चलाने की आदत रही है, जो कि गठबंधन के लिए उपयोगी नहीं है जहां तीन दलों के बीच आंतरिक प्रतिस्पर्धा है’. मानसी ने इस बात पर भी ध्यान दिलाया कि कैसे भाजपा की मशीनरी एमवीए सरकार पर करीब से नजर रख रही है और कोई गड़बड़ी दिखते ही उनके प्रवक्ताओं की फौज सक्रिय हो जाती है और बिना देरी किए, अपने आईटी सेल के समर्थन से, एक समन्वित हमला शुरू कर देती है.

उद्धव ठाकरे के लिए, सहयोगी दलों के मोर्चे पर भी सब कुछ ठीक नहीं रहा है. आपसी मतभेद सार्वजनिक रूप से जाहिर किए जाते हैं और कांग्रेस-एनसीपी मुख्यमंत्री के ‘एकतरफा‘ कामकाज पर भी सवाल उठा चुकी हैं.

महाराष्ट्र का मामला इतना अहम क्यों है

भाजपा के लिए, शासन के मोर्चे पर शिवसेना सरकार की नाकामी मिसाल देने की दृष्टि से महत्वपूर्ण है.

नरेंद्र मोदी और अमित शाह के नेतृत्व में लगभग अपराजेय दिखती पार्टी महाराष्ट्र में दोबारा जीतने को लेकर काफी आश्वस्त थी. लेकिन 2019 के विधानसभा चुनावों में वो केवल 105 सीटें ही जीत पाई, जो कि 288 सदस्यीय सदन में बहुमत के आंकड़े से बहुत दूर था. इस परिणाम ने विभिन्न कारणों से पार्टी की छवि को बुरी तरह से प्रभावित किया.

पहले तो, इसने मोदी-शाह की जोड़ी की सीमाओं को उजागर करने का काम किया, विशेष रूप से इसलिए कि महाराष्ट्र पार्टी के लिए असम या त्रिपुरा जैसा कोई नया इलाका नहीं है, बल्कि यह एक ऐसा राज्य है जहां भाजपा के वैचारिक संरक्षक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) का मुख्यालय है. दूसरे, शिवसेना के साथ छोड़ प्रतिद्वंद्वी खेमे में जाने से, भाजपा एक स्वाभाविक सहयोगी दल तक के लिए अछूत की तरह दिखने लगी, और उसके प्रतिद्वंद्वी अधिक आकर्षक नज़र आने लगे. और तीसरी एवं सबसे महत्वपूर्ण बात ये कि पराजय ने पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस को लेकर गंभीर सवाल खड़े कर दिए— जो कि भाजपा के युवा, प्रगतिशील और अगली पीढ़ी के प्रतनिधि के रूप में देखे जा रहे थे. भाजपा के लिए, रिकॉर्ड खराब दिख रहा था. इसके सभी मुख्यमंत्री — राजस्थान से लेकर छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र तक — स्पष्ट जीत दिलाने में नाकाम रहे थे. हरियाणा में मनोहर लाल खट्टर भी सत्ता गंवाते-गंवाते बचे थे.

मोदी के लिए अपनी सफलता साबित करने का एक अहम तरीका है खुद को और भाजपा को केंद्र और अपनी सरकार वाले राज्यों में पूर्ण नियंत्रण में दिखाना. उद्धव ठाकरे और शरद पवार की संयुक्त ताकत के कमजोर पड़ते जाने के साथ, मतदाताओं के लिए नरेंद्र मोदी का ये संदेश और भी असरदार हो जाता है. यह भाजपा के लिए सुखद प्रतिशोध है, और वह इसका अधिकतम फायदा उठाना चाहेगी.

(ये लेखिका के निजी विचार हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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1 टिप्पणी

  1. एक तरफ़ा नज़रिया – कल्पनाएँ वो भी कोरी पाठकों को विश्वस्त करना की जो हो रहा हैं उसमें भाजपा का कोई रोल नहीं वो सिर्फ़ परीस्थितियों को भुना रही हैं जबकि किया धरा सबकुछ भाजपा का हैं .
    agenda base और paid पत्रकारिता का भी अलग मज़ा हैं लेकिन पाठक सब जानता हैं कैसे उस पर विचार थोपे जाते हैं

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