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Friday, 20 December, 2024
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कोरोनाकाल के दौर में BJP में अपने ही अपनों पर सवाल उठाने लगे हैं

भाजपा के विधायकों से जब अपने चुनाव क्षेत्र में मिलने वाली चुनौतियों के बारे में पूछा जाता था तब वे कहा करते थे कि ‘अरे, मोदी जी हैं न!’, लेकिन कोविड ने उनसे उनकी यह निश्चिंतता छीन ली है.

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भ्रम और निराशा के कारण उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की पेशानी पर बल पड़ गए होंगे. उन्होंने कोविड की स्थिति का जायजा लेने के लिए शनिवार को केंद्रीय मंत्री संतोष कुमार गंगवार के लोकसभा क्षेत्र बरेली का दौरा किया था. अगले दिन गंगवार की तरफ से गुरुवार को लिखा गया एक पत्र सोशल मीडिया पर नजर आने लगा.

पत्र में एक तरह से आदित्यनाथ प्रशासन पर आरोप लगाते हुए श्रम एवं रोजगार मंत्री ने वेंटिलेटर और अन्य मेडिकल उपकरणों की जमाखोरी और कालाबाजारी के कारण खाली ऑक्सीजन सिलेंडरों की कमी पर ध्यान आकृष्ट करते हुए कहा था कि मरीजों को सरकारी अस्पताल में भर्ती होने के लिए एक से दूसरी जगह चक्कर लगाने पड़ते हैं और स्वास्थ्य अधिकारी टेलीफोन नहीं उठा रहे हैं.

लेकिन गंगवार अकेले ऐसे भाजपा नेता नहीं है जिन्होंने कोविड पर कुप्रबंधन को लेकर पार्टी के किसी मुख्यमंत्री की खिंचाई की है.

जरा अंदाजा लगाइए, यह बयान किसने दिया होगा कि ‘हर किसी को मालूम था कि भारत में कोविड की दूसरी लहर आएगी, मगर इसके बावजूद कुछ नहीं किया गया. आज हमें अस्पतालों में बेड और ऑक्सीजन की कमी का सामना करना पड़ रहा है.’

या यह बयान किसने दिया कि ‘पिछले 10 दिनों में ऑक्सीजन न मिलने के कारण मेरे दो दर्जन मित्रों समेत सैकड़ों लोगों को जान गंवानी पड़ी. यह जमीनी हकीकत है.’

कई लोग इन्हें राहुल गांधी या विपक्ष के किसी नेता का बयान बताएंगे, लेकिन सच यह है कि पहला बयान मध्य प्रदेश के मैहर के भाजपा विधायक नारायण त्रिपाठी का है, और दूसरा बयान उत्तर प्रदेश के गोला गोकर्णनाथ के भाजपा विधायक अरविंद गिरि का है. कोई कह सकता है कि त्रिपाठी तो दल बदलते रहे हैं और भाजपा में अभी 2019 में शामिल हुए.

लेकिन आज भाजपा में इसे कोई कसौटी नहीं माना जा सकता क्योंकि कांग्रेस के कई दलबदलू आज भाजपाई मुख्यमंत्री हैं, मसलन अरुणाचल प्रदेश के पेमा खांडु, मणिपुर के एन. बिरेन सिंह, और असम के हिमंत बिसवा सरमा जो इस सूची में नये दाखिल हुए हैं. लेकिन कोविड संकट से निबटने में घालमेल के लिए अपनी सरकार पर केवल त्रिपाठी और गिरि ही सवाल नहीं उठा रहे हैं. दक्षिण बंगलूरू के सांसद तेजस्वी ने कर्नाटक की भाजपा नेतृत्व वाली बी.एस. येदियुरप्पा सरकार को अस्पताल में बेड के लिए कथित घूसख़ोरी के मामले को लेकर शर्मसार कर दिया है.

हाइपरलिंक्स को खोलिए, और आप पाएंगे कि कई भाजपा सांसद और विधायक खासकर कोविड से निबटने में अपनी पार्टी की सरकार की खामियों को उजागर कर रहे हैं और अपनी पार्टी के मुख्यमंत्रियों से तीखे सवाल पूछ रहे हैं. उनका कहना है कि उनके मतदाता जब अस्पताल में बेड या ऑक्सीजन सिलिंडर के लिए उनके पास आते हैं तो वे उनकी कुछ मदद नहीं कर पाते.

कई भाजपा कार्यकर्ता कोविड के कारण जान गंवा चुके हैं लेकिन ये सांसद और विधायक असहाय होकर देखते रह गए. संकट के समय उनके मतदाताओं को जब उनकी मदद की जरूरत होती है तो वे उनके पास नहीं होते.
विरोध कौन कर रहा है, और क्यों?


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तरी साज़िशों की कहानियां राष्ट्रीय राजधानी में सुनी जा रही हैं. यकीन न हो तो भाजपा विधायक अपने ही मुख्यमंत्रियों को जो आक्रोश भारी चिट्ठियां लिख रहे हैं या जो बयान दे रहे हैं उन्हें देख लीजिए. येदियुरप्पा कोई मोदी-शाह के चहेते नहीं हैं. सूर्य ने जब कर्नाटक में अस्पताल बेड घोटाले का खुलासा किया तो भाजपा के ताकतवर संगठन महासचिव बी.एल. संतोष ने, जो येदियुरप्पा विरोधी माने जाते हैं, तुरंत सूर्य की तारीफ कर दी. इससे पहले भी कर्नाटक के भाजपा विधायक अपने मुख्यमंत्री पर हमले करते रहे हैं, और पार्टी आलकमान इसकी अनदेखी ही करता रहा है.

पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व ने मध्य प्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को कमलनाथ के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार का तख़्ता पलटने के लिए हरी झंडी तो दिखा दी मगर चौहान को अपने मंत्रियों की टीम बनाने में भारी अड़चनों का सामना करना पड़ा. उत्तर प्रदेश में भाजपा के विधायक और सांसद अचानक मुखर होने लगे हैं. इसकी वजह यह बताई जा रही है कि सियासी हलक़ों में यह बात ज़ोर पकड़ने लगी है कि प्रदेश में अगले साल चुनाव में भाजपा अगर जीत गई तो मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ प्रधानमंत्री मोदी के तगड़े उत्तराधिकारी के रूप में उभर सकते हैं. इसका अर्थ यह होगा कि योगी प्रदेश के पहले मुख्यमंत्री बन जाएंगे जिन्होंने पांच साल का कार्यकाल पूरा करने के बाद दोबारा सत्ता हासिल की.

उत्तर प्रदेश में विधायक बनने के लिए स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने वाले, मोदी के चहेते नौकरशाह रहे ए.के. शर्मा को मोदी के चुनाव क्षेत्र वाराणसी में कोविड महामारी के प्रबंधन के लिए तैनात करने से भी फर्क नहीं पड़ा. शर्मा वहां डेरा जमा कर सरकारी अधिकारियों के साथ रोज बैठकें कर रहे हैं. वहां उनकी तैनाती का यह अर्थ नहीं है कि कोविड के प्रबंधन की योगी की क्षमता पर कोई संदेह किया गया है, लेकिन सियासत करने वाले तो अपने अनुमानो और पूर्वाग्रहों के आधार पर नतीजे निकालते ही रहते हैं.

साजिश की कहानियां गढ़ने वाले कई लोग तो यह भी बताते हैं कि दूसरे राज्यों, मसलन गुजरात, के भाजपा विधायकों ने किस तरह खामोशी ओढ़ रखी है. उदाहरण के लिए, यह भी कहा जाता है कि गुजरात हाइकोर्ट ने भाजपा सरकार को किस तरह चेताया है कि कोविड की जांच और मौतों के वास्तविक आंकड़ों को छिपाने से समस्या और कितनी गंभीर हो जाएगी. लेकिन सत्ता दल का कोई नेता कुछ बोल नहीं रहा है. यहां तक कि हरियाणा में भी अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी के चलते कई मौतें हुई हैं लेकिन सत्ताधारी भाजपा के विधायक या सांसद कोई शिकायत नहीं कर रहे.

ऐसा लगता है कि साजिश की ये कहानियां कुछ बढ़ा-चढ़ाकर ही कही जा रही हैं. कांग्रेस अगर सत्ता में होती तब शायद इन पर कुछ गौर भी किया जा सकता था. आखिर, माना जाता है कि गांधी परिवार अगर अपने क्षेत्रीय दिग्गजों के खिलाफ विरोधी आवाजों को शह न देता था, तो उनकी ओर से कान बंद करके उन दिग्गजों को हमेशा असुरक्षित रखा करता था. इसी का नतीजा है कि आज कांग्रेस इस हाल में पहुंच गई है. भाजपा नेतृत्व को कांग्रेस का इतिहास अच्छी तरह मालूम है और वह उन गलतियों को शायद ही दोहराना चाहेगा, खासकर कोविड जैसी महामारी में.

बढ़ता असंतोष

तो फिर, भाजपा विधायकों और सांसदों को अचानक इतनी हिम्मत कैसे होने लगी कि वे अपने ही मुख्यमंत्रियों के खिलाफ चिट्ठियां लिखने और सार्वजनिक बयान देने लगे? वैसे भी कर्नाटक के— जहां विधायकों ने येदियुरप्पा पर जोरदार हमला किया है, या उत्तर प्रदेश में जहां उन्होंने असहमति जाहिर की है— सिवा बाकी जगहों पर भाजपा विधायक अनुशासित ही रहे हैं. उनमें से ज़्यादातर को पता है कि विधानसभा या लोकसभा में वे अपनी लोकप्रियता के बूते नहीं बल्कि इसलिए पहुंचे हैं कि उन्हें नरेंद्र मोदी या योगी आदित्यनाथ या येदियुरप्पा के सिपहसालार माना गया.


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आखिर क्या वजह है कि वे अपने मुख्यमंत्रियों की खुल कर आलोचना करने लगे हैं? वास्तव में, चूंकि आज कई लोग भाजपा को मोदी का पर्याय मानते हैं इसलिए भाजपाई मुख्यमंत्रियों की आलोचना को कुछ हद तक केंद्र पर भी लांछन माना जा सकता है. क्या भाजपाई सांसद और विधायक अब असुरक्षित महसूस करने लगे हैं? अभी हाल तक, आपने अगर उनसे यह पूछा होता कि आपको अपने चुनाव क्षेत्र में क्या चुनौती नज़र आती है, तो उनका जवाब यह मिलता कि ‘अरे, मोदी जी हैं न!’

कोविड महामारी ने उनकी यह निश्चिंतता उनसे छीन ली है. कोविड महामारी की दूसरी लहर जिस तरह गांवों को भी अपनी चपेट में ले रही है और इससे निबटने में मोदी सरकार जिस तरह लड़खड़ा रही है उसके कारण भाजपा के सांसद और विधायक महसूस करने लगे हैं कि वे मोदी के सिपाही भले हों लेकिन मतदाता उन्हें इसी आधार पर आंकेंगे कि जब उन्हें अपने प्रतिनिधियों की जब सबसे ज्यादा जरूरत थी तब वे क्या कर रहे थे. और जब उम्मीदवार की जीतने की क्षमता का सवाल हो, तब कोई भी दल और भाजपा सबसे ज्यादा, इस मामले में कोई समझौता नहीं करती, भले ही वर्तमान प्रतिनिधि का टिकट क्यों न काटना पड़े. यही वजह है कि भाजपा के सांसद और विधायक जब यह देख रहे हैं कि मतदाता जरूरत के समय अपने प्रतिनिधियों को सहायता के लिए मौजूद नहीं होने के कारण नाराज हो रहे हैं, तो उनमें दहशत ज़ोर पकड़ रही है.

वैसे तो इन सांसदों और विधायकों के असहमति तथा असंतोष के प्रदर्शन का स्वागत किया जा सकता है. लेकिन पिछले सात साल में किसी भाजपा सांसद और विधायक को सरकार में बैठे अपने नेताओं से असुविधाजनक सवाल पूछते नहीं सुना गया. इसकी जरूरत नहीं महसूस की गई क्योंकि मोदी या योगी तो उन्हें चुनाव जिताने के लिए थे है, भले ही सांसद और विधायक के तौर पर उनका कामकाज कैसा भी क्यों न रहा हो. इन निर्वाचित प्रतिनिधियों से लोगों की प्रतिक्रियाएं न मिलना केंद्र तथा राज्यों की भाजपा सरकारों की आत्मतुष्टता की बड़ी वजह हो सकती है क्योंकि आला नेता ढोल बजाने वालों की वाहवाही में डूबे थे. अब यही उम्मीद की जा सकती है कि सांसदों और विधायकों की आलोचनाओं से, जो फिलहाल केवल मुख्यमंत्रियों तक ही केन्द्रित हैं, उन लोगों की नींद टूटेगी जो पार्टी और केंद्र की सरकार के कर्ताधर्ता हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )

(व्यक्त विचार निजी हैं)

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