scorecardresearch
Friday, 1 November, 2024
होममत-विमत'अर्थ में छिपा है अनर्थ' जैसे 5 कारण जो गंगा को साफ नहीं होने देते

‘अर्थ में छिपा है अनर्थ’ जैसे 5 कारण जो गंगा को साफ नहीं होने देते

व्यावहारिक सरकारी परिभाषा में गंगा के अर्थ का मतलब बैक्टेरियोफाज, औषिधीय गुण, नैसर्गिक प्रवाह और इकोलॉजी नहीं, उनके अनुसार गंगा के अर्थ का मतलब होता है गंगा का अर्थशास्त्र.

Text Size:

गंगा की अविरलता और निर्मलता का मुद्दा, गगनभेदी नारों, दावों और वादों में उलझ कर रह गया है. सच के लगातार निर्माण के बावजूद गंगा साफ नहीं हो पा रही. हम यहां उन कारणों को समझने की कोशिश कर रहे हैं, जो गंगा को बहने नहीं देते.

1- क्योंकि अर्थ में छिपा है अनर्थ– जब आप गंगा के लिए ‘अर्थ गंगा’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं तो इसका सीधा मतलब होता आप गंगा का अर्थ नहीं समझते. गंगा प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर 40 करोड़ लोगों की जीविका को प्रभावित करती है लेकिन उसे भारतीय सांस्कृतिक इतिहास में कहीं भी अर्थ गंगा के तौर पर पारिभाषित नहीं किया गया है. ‘अर्थ गंगा’ कहने का एक तात्पर्य यह भी है कि गंगा के बेटों ने उसके अध्यात्मिक स्वरूप की स्वर्ग वापसी को तय मान लिया है और अब उसे रेवेन्यू की दृष्टि से ही देखा जा रहा है. वाटर वेज, डाल्फिन पर्यटन, ब्लू रेवोल्यूशन ऐसे तमाम वादे यह साफ संकेत करते हैं कि सरकार का ध्यान अब गंगा से पैसे कमाने पर है न कि उसका प्राचीन स्वरूप लौटाने पर.

सीपीसीबी यानी केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड के वाटर क्वालिटी पैमाने में फंसी सरकार गंगा के गंगत्व को जानना और समझना ही नहीं चाहती. यह स्वीकार करना उसके लिए मुश्किल है कि गंगत्व का मतलब ‘साफ पानी’ नहीं होता. सरकार और वैज्ञानिक गंगत्व को ‘तत्व’ के तौर पर तो मानते हैं लेकिन इसे किसी कानून का हिस्सा नहीं बना सकते. क्योंकि गंगत्व को पाने या बचाने की कोशिश का मतलब है गंगा के साथ पवित्र व्यवहार सुनिश्चित करना यानी उससे राजस्व उगाहने का विचार छोड़ना. यही कारण कि प्रशासनिक मशीनरी गंगा की व्यावहारिक परिभाषा पर जोर देती है. इस व्यावहारिक सरकारी परिभाषा में गंगा के अर्थ का मतलब बैक्टेरियोफाज, औषिधीय गुण, नैसर्गिक प्रवाह और इकोलॉजी नहीं है, उनके अनुसार गंगा के अर्थ का मतलब होता है गंगा का अर्थशास्त्र. इस अर्थशास्त्र में इस वैज्ञानिक तथ्य को दरकिनार कर दिया जाता है कि टिहरी के बाद भागीरथी में मात्र 10 फीसद ही बैक्टेरियोफाज बचता है. भूगोल की किताबों में बच्चों को यह पढ़ाया जा सकता है कि गंगा की कुल लंबाई 2525 किलोमीटर है लेकिन इस तथ्य का कोई मतलब नहीं कि गंगा का नैसर्गिक प्रवाह मात्र 80 किलोमीटर ही बचा है. इसे बचाने के लिए इको सेंसटिव जोन का दायरा बढ़ाना होगा जो कि अर्थशास्त्र के आड़े आएगा.


यह भी पढ़ें: भगवान राम असमंजस में है, जीडी अग्रवाल की शिकायत पर ध्यान दें या नीचे धरती पर आकार लेता अपना मंदिर देखें


2- क्योंकि नदी डाटा आपके चश्में पर निर्भर करता है- सीपीसीबी कहता है कि उत्तराखंड में 18 बड़े नाले गंगा में सीधे गिरते हैं जबकि नमामि गंगे का मानना है कि इन नालों की संख्या 141 है. सिर्फ हरिद्वार की गंगा में ही 22 नाले गिरते हैं पर सीपीसीबी मानता है कि हरिद्वार में सिर्फ तीन बड़े नाले गंगा में गिरते हैं. अब इस गणित को समझिए, जब सीपीसीबी बड़े यानी मेजर नालों की बात करता है तो इसे स्पष्ट नहीं करता कि बड़ा माने कितना बड़ा. वहीं नमामि गंगे गंगा में गिरने वाले हर छोटे-बड़े नाले को भी गिनता है. यह भी समस्या है कि इस गिनती में प्राकृतिक झरने और गदेड़ भी आ जाते हैं. सीपीसीबी अपनी गिनती में कैनाल को नहीं रखता यानी हर की पौड़ी उसकी नजर में गंगा नहीं है इसलिए वह हर की पौड़ी में गिरने वाले नालों की गिनती नहीं करता. यह अलग बात कि हरिद्वार में आस्था का स्नान इसी जगह यानी अपर गंगा कैनाल में ही होता है. चूंकि सीपीसीबी नालों पर नजर रखने वाली मुख्य संस्था है, उसके डाटा को ही मुख्य माना जाता है और नालों के टैपिंग जैसी जरूरी कोशिशें सफल नहीं हो पाती.

इसके अलावा जो सबसे महत्वपूर्ण बात नमामि गंगे को समझनी चाहिए वह यह कि नाले का मतलब विलेन नहीं होता खासकर उत्तराखंड में. मात्र दो दशक पहले तक नाले को नदी के साथ जोड़कर बोला जाता था, नदी-नाले. जब नाले में शहरी सीवेज सिस्टम को जोड़ दिया तो नाले देखते ही देखते नेगेटिव हो गए. पहाड़ी इलाकों में शहरी नालों और हिमालयी नालों को पहचाने जाने की जरूरत है.

3- क्योंकि पर्यावरण मंत्रालय खुद को कॉर्पोरेट मामलों का मंत्रालय मानता है- बेशक डाल्फिन पर्यटन की शुरुआत नमामि गंगे ने की है लेकिन डाल्फिन पर्यटन की सीधी जिम्मेदारी पर्यावरण मंत्रालय की बनती है यह अलग बात है कि घोषणा के कई दिनों बाद तक खुद पर्यावरण मंत्री इससे अनजान थे, मंत्रालय की इसमें रुचि भी नहीं है क्योंकि पर्यावरण मंत्रालय की पूरी ऊर्जा इस बात पर लगी है कि कैसे पर्यावरणीय प्रभाव आकलन को हल्का किया जाए ताकि कॉर्पोरेट प्रसन्न हो सकें. पर्यावरण मंत्रालय की पिछली तमाम घोषणाएं उठा कर देख लीजिए, उनके केंद्र में व्यापार है और ऊपरी आवरण में पर्यावरण. गंगा के संबंध में पर्यावरणीय चिंता का यह सबब भी समझिए, 10 एमएलडी का सीवेज ट्रीटमेंट प्लांट यानी एसटीपी दिल्ली में छोटा प्लांट माना जाएगा लेकिन यही प्लांट उत्तराखंड में काफी बड़ा हो जाएगा. इसका मतलब प्लांट की कैपिसिटी का आकार रिसीविंग बॉडी पर निर्भर करता है लेकिन इसके लिए जिम्मेदार पर्यावरण मंत्रालय ने सारे देश के लिए एक ही नियम बना रखा है. यह नियम व्यावहारिकता के धरातल पर टिक नहीं पाता, जरूरत इस बात की है कि नालों को उनके मुहाने पर ही ट्रीट किया जाए न कि उसका नदी तक आने का इंतजार किया जाए.

4- क्योंकि सरकारी नालों की ताकत शिव की नदी से ज्यादा है– नालों की बात हो रही है तो उसकी ताकत को समझना भी जरूरी है. कानपुर में गंगा में गिरने वाला टीवी अस्पताल का नाला इतना विशाल है कि उसके आगे गंगा की धारा डरी-सहमी नजर आती है. फैक्ट्रियों के नाले बेशक गंगा को गंदा करते हैं लेकिन सरकारी व्यवस्था वाले नाले गंगा की गंदगी का सबसे बड़ा कारण है. इन नालों को बंद करने का स्वांग तो किया जाता है लेकिन वास्तविक रूप में इनका बंद होना राजनैतिक इच्छाशक्ति की मांग करता है. बानगी देखिए 126 साल पुराने सीसामऊ नाले को बंद करने की वाहवाही लूट चुकी सरकार इस तथ्य से आंखें चुरा रही है कि नाला फिर बह रहा है और पहले की तरह ही बदबू फैला रहा है. सबसे बड़ी बात यह है कि सरकारी नालों को बंद करने के लिए पूरे सीवेज सिस्टम को बदलना पड़ेगा और उतनी ही तोड़-फोड़ करनी पड़ेगी जितनी विश्वनाथ मंदिर परिसर में करनी पड़ी है.

5- हरिशंकर परसाई ने पहले ही बताया था हमने ध्यान नहीं दिया– परसाई जी का एक व्यंग है जिसमें वह एक शार्क मछली और एक नौकरशाह के बीच बातचीत का ब्यौरा देते हैं, शार्क बेहद चालाक और तेज है बावजूद इसके नौकरशाह समुद्र में गोता लगाता है और शार्क को अपने दांतों में फंसा कर ले आता है. परसाई जी ने बताया कि नौकरशाह शार्क से भी ज्यादा खतरनाक होता है. नौकरशाही आसानी से राजनीतिक सत्ता को यह समझा देती है और साबित भी कर देती है कि गंगा साफ हो चुकी है. वह साबित कर चुकी है कि वाराणसी में प्रधानमंत्री द्वारा उद्घाटित किया गया एसटीपी बढ़िया काम कर रहा है, यह भी कि सीसामऊ नाला सेल्फी पॉइंट बन चुका है या नदी का पानी समुद्र में बेकार जा रहा है और उसे रोकने के लिए डैम बनाए जाने चाहिए. इन सबसे बढ़कर नौकरशाह इस सच की रचना भी कर चुके हैं कि मनुष्य नदी का निर्माण कर सकता है, साबरमती को बना चुके हैं, सरस्वती के निर्माण की प्रक्रिया चल रही है और गंगा को भी बना डालेंगे.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह लेख उनके निजी विचार हैं)


यह भी पढ़ें: बिहार में मछुआरों का दर्द समझे बिना नीली क्रांति सफल नहीं हो सकती, ये बस चुनावी वादा भर है


 

share & View comments

8 टिप्पणी

  1. ऐसे ही लेख से हमारा समाज का मार्गदर्शन हो सकता है।
    बहुत सुन्दर प्रस्तुति है।

  2. Good article on the Holy River and the River which is called the lifeline of North India- GANGA. Hope more such articles will be updated time to time

  3. Good article on the Holy River and the River which is called the lifeline of North India- GANGA. Hope more such articles will be updated time to time. Thanks

  4. बहुत ही बढ़िया लेख है लेकिन इस पर अपने आपको काम भी करना पड़ेगा क्योंकि सब लोग जानते हैं कि गंगा नदी बिल्कुल बेकार होने जा रही है फिर भी पोलूशन करते हैं जमुना में भी पोलूशन करते हैं अपनी जो हमारे काम होते हैं जैसे कि फूल है पत्तियां हैं और जो पूजा पाठ में जो सामग्री होती है उसको भी उसी में जाकर डाल देते हैं और जमुना का पानी बह रहा नहीं है ना गंगा का पानी बह रहा है उसके बाद भी लोग हम कहते हैं गंगा गंदी हो रही तो हम ही कर रहे हैं हमें ही देखना पड़ेगा अपने आप को कंट्रोल धन्यवाद

Comments are closed.