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Tuesday, 30 December, 2025
होममत-विमत2026 में पांच चुनाव—और पांच बातें, जिन पर नतीजे BJP और विपक्ष की राजनीति बदल देंगे

2026 में पांच चुनाव—और पांच बातें, जिन पर नतीजे BJP और विपक्ष की राजनीति बदल देंगे

2026 के विधानसभा चुनाव बीजेपी के हिंदुत्व एजेंडे की पहुंच और उसकी सीमाओं की परीक्षा होंगे.

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जुलाई 2025 में, जब मैं भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के महासचिव एमए बेबी का इंटरव्यू ले रहा था, तो मैंने उन्हें रूसी क्रांतिकारी लियोन ट्रॉट्स्की की वह बात याद दिलाई थी, जो उन्होंने मेंशेविकों से कही थी — “तुम्हारा रोल खत्म हो चुका है. अब जहां तुम्हें होना चाहिए, वहीं जाओ—इतिहास के कूड़ेदान में.”

मैं यह कहना चाहता था कि आज भारतीय राजनीति में कई लोग वाम दलों के बारे में ऐसा ही सोचते हैं, क्योंकि चुनावों में उनकी अहमियत लगातार कम होती जा रही है. हालांकि, वाम दलों को पूरी तरह खारिज करना भी ठीक नहीं है. अभी भी लोकसभा में उनके आठ सांसद हैं—केरल, तमिलनाडु, राजस्थान और बिहार से.

छह महीने बाद, केरल के स्थानीय निकाय चुनाव नतीजों ने वाम दलों के सामने वही सवाल फिर खड़ा कर दिया. कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ) ने शानदार प्रदर्शन किया—छह में से चार नगर निगम, 87 में से 54 नगरपालिकाएं, 14 में से सात जिला पंचायतें, 152 में से 79 ब्लॉक पंचायतें और 941 में से 505 ग्राम पंचायतें जीत लीं.

भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) तिरुवनंतपुरम नगर निगम के नतीजों से काफी खुश दिखी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसे केरल की राजनीति में “एक अहम मोड़” बताया, लेकिन उन्होंने यह नहीं कहा कि भाजपा का प्रदर्शन उम्मीद से काफी कमज़ोर रहा. नेशनल डेमोक्रेटिक अलायंस (एनडीए) का वोट शेयर 2024 के लोकसभा चुनाव में 19 फीसदी से घटकर 15 फीसदी रह गया. 2020 के स्थानीय निकाय चुनाव में भी बीजेपी का वोट शेयर करीब 15 फीसदी ही था. 2024 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने केरल में पहली बार जीत दर्ज की थी, जब सुरेश गोपी त्रिशूर से जीते थे, लेकिन स्थानीय निकाय चुनाव में उनकी सीट पर पार्टी खाता भी नहीं खोल पाई.

बीजेपी ने 2015 और 2020 के स्थानीय निकाय चुनावों में तिरुवनंतपुरम में क्रमशः 35 और 34 सीटें जीती थीं. इसलिए 2025 में, जब कांग्रेस सांसद शशि थरूर पार्टी का बड़ा चेहरा नहीं थे, तब भी बीजेपी 101 वार्ड वाली निगम में अपनी सीटें 34 से बढ़ाकर 50 ही कर पाई. यह प्रधानमंत्री मोदी और बीजेपी के मुख्य रणनीतिकार अमित शाह के लिए निराशाजनक रहा होगा.

वे थरूर को एक ऐसा ‘वाइल्ड कार्ड’ मानते होंगे, जो काम नहीं कर पाया. 2024 के लोकसभा चुनाव में थरूर और उनके बीजेपी प्रतिद्वंद्वी राजीव चंद्रशेखर को मिलाकर करीब 73 फीसदी वोट मिले थे. इसके बावजूद निगम में केवल 15 सीटों का ही इजाफा हुआ. दूसरी ओर, कांग्रेस की सीटें 2020 में 10 से बढ़कर इस बार 19 हो गईं. यह उस पार्टी के लिए कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है, जिसने अपने लोकप्रिय सांसद से लगभग दूरी बना ली थी, लेकिन बीजेपी भी थरूर बनाम कांग्रेस की खाई का उतना फायदा नहीं उठा पाई, जितना वह चाहती थी.

वाम दलों के अस्तित्व का सवाल

स्थानीय निकाय चुनाव हमेशा विधानसभा चुनावों का सही मूड नहीं दिखाते, लेकिन सच यह है कि 2015 और 2020 के स्थानीय निकाय चुनावों में एलडीएफ का दबदबा 2016 और 2021 के विधानसभा चुनावों में उसकी जीत में भी दिखा. 2010 के स्थानीय निकाय चुनावों में यूडीएफ को एलडीएफ पर थोड़ी बढ़त मिली थी—तीन निगमों में यूडीएफ आगे था और दो में एलडीएफ. यही नज़दीकी मुकाबला 2011 के विधानसभा चुनावों में भी दिखा, जहां 140 सदस्यीय विधानसभा में यूडीएफ ने 72 और एलडीएफ ने 68 सीटें जीती थीं.

अगर 2010, 2015 और 2020 के स्थानीय निकाय चुनाव नतीजों को देखें, तो 2025 के नतीजे एलडीएफ के लिए खतरे की घंटी होने चाहिए. यानी मुख्यमंत्री पिनराई विजयन, जिन्हें केरल का ‘मुंडू वाला मोदी’ या ‘धोती पहने मोदी’ भी कहा जाता है—2026 के विधानसभा चुनाव में मुश्किल स्थिति में हैं.

यह नाम उन्हें उनके आलोचकों ने दिया है, जो उन पर पार्टी और सरकार को तानाशाही तरीके से चलाने, विरोध की आवाज़ दबाने और प्रधानमंत्री मोदी के शासन मॉडल को अपनाने का आरोप लगाते हैं. उदाहरण के तौर पर, 2021 का चुनाव जीतने के बाद उन्होंने अपनी पिछली कैबिनेट के सभी मंत्रियों को हटा दिया, जिनमें ‘कोरोना स्लेयर’ के रूप में मशहूर स्वास्थ्य मंत्री केके शैलजा भी शामिल थीं.

हालांकि, 2026 का विधानसभा चुनाव और ज्यादा मुश्किल दिख रहा है. अगर स्थानीय निकाय चुनावों के नतीजे विधानसभा स्तर पर दोहराए गए, तो यह पहली बार होगा कि पिछले पांच दशकों में देश में कहीं भी वाम दल सत्ता में नहीं होंगे. ऐसा 1977 के बाद कभी नहीं हुआ है.

वाम दल 1977 से 2011 तक पश्चिम बंगाल में सत्ता में थे और 1993 से 2018 तक त्रिपुरा में. केरल में वे 2016 से सत्ता में हैं. अलग-अलग राज्यों में सत्ता आती-जाती रही है, लेकिन अगर 2026 में केरल भी हाथ से निकल गया, तो 1977 के बाद पहली बार ऐसा होगा कि किसी भी भारतीय राज्य में वाम दल सरकार का हिस्सा नहीं होंगे.

यह चुनौती वाम दलों के सामने उनके सौवें साल में खड़ी है—भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) की स्थापना 26 दिसंबर 1925 को हुई थी.

2026 के चुनाव

मेरा साल के अंत का यह कॉलम सिर्फ भारत में वाम दलों (लेफ्ट) के अस्तित्व के संकट के बारे में नहीं है. चूंकि, राजनीति में दिलचस्पी रखने वालों को आगे भी देखना चाहिए: 2026 भारत की राजनीति के लिहाज़ से कैसा दिखता है? अगर बड़े राष्ट्रीय परिदृश्य को देखें तो यह बेहद उबाऊ लगता है. पीएम मोदी की स्थिति ऐसे ही मज़बूत रहेगी, खासकर बिहार में एनडीए की हालिया जीत के बाद, जो दिल्ली, हरियाणा और महाराष्ट्र में शानदार जीत के बाद आई. उनके डिप्टी अमित शाह बीजेपी पर पूरी तरह नियंत्रण में हैं, खासकर तब, जब उनके करीबी नितिन नबीन, जेपी नड्डा की जगह राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने वाले हैं.

केरल, असम, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु—इन चार राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश पुडुचेरी में जो भी चुनावी नतीजे आएं, राष्ट्रीय राजनीति में बड़े स्तर पर ज़्यादा कुछ बदलने वाला नहीं है. फिर भी, इन चुनावों के नतीजों में पांच बातें हैं, जो राजनीति के शौकीनों को दिलचस्प लगेंगी.

सबसे पहले केरल के नतीजों से शुरुआत करते हैं. अगर पिनराई विजयन हार जाते हैं, तो हम लेफ्ट के लिए राजनीतिक मृत्युलेख लिख सकते हैं. आखिरकार, दूसरे राज्यों में हार के बाद लेफ्ट ने लड़ने की ज़्यादा इच्छा नहीं दिखाई है. लेफ्ट के सबसे बड़े दल—सीपीआई(एम) को ही देखिए. 2021 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में उसे शून्य सीटें और सिर्फ 4.73 फीसदी वोट मिले, जो 2016 के चुनाव के मुकाबले 15 फीसदी से ज्यादा वोट और 26 सीटों की गिरावट थी. 2011 के विधानसभा चुनाव में सीपीआई(एम) को 40 सीटें और 30 फीसदी वोट मिले थे. यानी सीपीआई(एम) के लिए पूरी तरह से गिरावट—सीटों के मामले में 40 से 26 से 0 तक और वोट प्रतिशत 30 से घटकर पांच फीसदी से भी कम.

2023 के त्रिपुरा विधानसभा चुनाव में सीपीआई(एम) को करीब 25 फीसदी वोट मिले, जो पिछले चुनाव के मुकाबले 17 फीसदी से ज्यादा कम थे. जब मैंने एमए बेबी से भारत में लेफ्ट की घटती प्रासंगिकता पर पूछा, तो उन्होंने कहा, “कम्युनिस्टों और लेफ्ट के बिना क्या मानवता का, हमारे देश के लोगों का कोई भविष्य होगा?”

खैर, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा के मतदाताओं ने जाहिर तौर पर ऐसा नहीं सोचा. और बड़े राष्ट्रीय राजनीतिक संदर्भ में देखें तो लेफ्ट की हार से असल में क्या बदलेगा? बुनियादी तौर पर कुछ भी नहीं. आज की भारतीय राजनीति में लेफ्ट शायद ही कोई फर्क पैदा करता है.

विजयन उतने ही पूंजी समर्थक या कॉरपोरेट समर्थक हैं, जितने किसी दूसरे राज्य में उनके बीजेपी या कांग्रेस के समकक्ष हो सकते हैं और राहुल गांधी या इस मामले में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी—व्यावहारिक तौर पर केरल के अपने ‘कप्तान’ से भी ज़्यादा वामपंथी हैं.

तो, अगर केरल में एलडीएफ की जगह कांग्रेस के नेतृत्व वाला यूडीएफ आ भी जाता है और यह एक बड़ा ‘अगर’ है, तो भी राष्ट्रीय राजनीति में कुछ नहीं बदलता.

और यहीं से हम 2026 के नतीजों से जुड़ी पहली अहम बात पर आते हैं. अगला केरल चुनाव दो “कम्युनिस्टों” राहुल गांधी और पिनराई विजयन के बीच की लड़ाई होगा. यह लड़ाई इन दोनों के लिए बहुत मायने रखती है, राष्ट्रीय राजनीति के लिए नहीं.

‘मुंडू में मोदी’ आज अपनी पार्टी से भी बड़े हो चुके हैं. उन्होंने अपनी पार्टी में दूसरी पंक्ति का नेतृत्व तैयार नहीं किया, जिससे यह सुनिश्चित हुआ कि अगर वे गिरते हैं, तो उनकी पार्टी भी पूरी तरह गिर जाएगी और अगर वे या पार्टी बच भी जाते हैं, तो राष्ट्रीय राजनीति में बहुत कम बदलाव होगा.

केरल के नतीजे राहुल गांधी के लिए ज़्यादा अहम हैं, जिन्होंने अपनी आर्थिक सोच दिवंगत कॉमरेड सीताराम येचुरी से सीखी. सीपीआई(एम) के पूर्व महासचिव को इस पर गर्व होता.

राहुल गांधी इतने समझदार हैं कि वे जानते हैं कि उन्हें कांग्रेस के चेहरे के रूप में अपनी वैधता दोबारा साबित करनी होगी. पार्टी का पूरा ढांचा—उनके दफ्तर के स्टाफ और केसी वेणुगोपाल, रणदीप सुरजेवाला जैसे तीन-चार खुद को वफादार कहने वालों को छोड़कर, उनकी बहन प्रियंका गांधी वाड्रा में बड़ी उम्मीद देखता है. राहुल गांधी ने ओडिशा के वरिष्ठ नेता मोहम्मद मोकीम को सिर्फ इसलिए पार्टी से निकाल दिया, क्योंकि उन्होंने यह बात कही थी. इमरान मसूद ने भी ऐसा ही सुझाव दिया था, जिसे उन्होंने नज़रअंदाज़ कर दिया. वे दिग्विजय सिंह की सत्ता के विकेंद्रीकरण की मांग और बीजेपी-आरएसएस के संगठनात्मक ढांचे की तारीफ को भी नज़रअंदाज़ कर सकते हैं.

राहुल गांधी जानते हैं कि ये आवाज़ें वही दोहरा रही हैं, जो पार्टी के भीतर ऊपर से नीचे तक लोग सोचते हैं, लेकिन जब तक बहन चुप हैं, तब तक इन आवाज़ों को दबाया जा सकता है. केरल में जीत राहुल को यह वैधता दे देगी—चाहे उसमें उनका अपना योगदान कुछ भी रहा हो.

बेशक, हम यहां काल्पनिक बात कर रहे हैं और अगर असम में गौरव गोगोई कोई चमत्कार कर दिखाते हैं, तो मसूद और सिंह जैसे नेताओं को कहीं और ठिकाना ढूंढना पड़ेगा. यह सब कहते हुए भी, अगर 2026 में राहुल के नेतृत्व वाली कांग्रेस हार का सिलसिला जारी रखती है, तो क्या प्रियंका गांधी वाड्रा अपने भाई और परिवार से ऊपर पार्टी को रखेंगी? इस पर न ही जाएं.


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ब्रांड मोदी का भविष्य

2026 के चुनाव चार और बातों का फैसला करेंगे. इनमें सबसे अहम है ब्रांड मोदी की मजबूती.

2024 के लोकसभा चुनाव के बाद हुए विधानसभा चुनावों के शोर-शराबे से आगे जाकर देखें. लोकसभा चुनावों के तुरंत बाद बीजेपी ने हरियाणा और महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव जीते और इन नतीजों को ब्रांड मोदी की जीत बताकर पेश किया, लेकिन ऐसा नहीं था. दोनों ही राज्यों में पार्टी ने उन्हें थोड़ा पीछे रखा. न तो “मोदी की गारंटी” के नारे लगे और न ही मोदी अकेला चेहरा थे—हालांकि, पोस्टरों में उनका आकार बड़ा ज़रूर था.

झारखंड में पोस्टरों पर मोदी की तस्वीर “गारंटी” के साथ बड़े स्तर पर दिखाई दी, लेकिन यह रणनीति नाकाम रही. 2025 में दिल्ली में बीजेपी को ज़बरदस्त जीत मिली, लेकिन अगर पीएम मोदी 2015 और 2020 के विधानसभा चुनावों में कमाल नहीं दिखा पाए थे, तो 2025 में अचानक वे इतनी बड़ी लहर कैसे बन गए? साफ है, यह ब्रांड मोदी नहीं था क्योंकि अगर ऐसा होता, तो 2015 में तो ज़रूर काम करता, 2020 में न सही. 2025 के नतीजों का श्रेय, जिस भी तरह से हो, अरविंद केजरीवाल को जाना चाहिए.

और यह मान लेते हैं. बिहार के चुनावी नतीजे भी ब्रांड मोदी के बारे में नहीं थे. यही बात आने वाले चुनावों को उनके लिए इतना अहम बनाती है. असम को छोड़ दें, जहां हिमंत बिस्वा सरमा ही बीजेपी का असली ब्रांड हैं—बाकी राज्यों में मोदी ही पार्टी की इकलौती यूएसपी हैं, क्योंकि वहां पार्टी का कोई स्थानीय चेहरा नहीं है. केरल, पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु में बीजेपी की सबसे बड़ी उम्मीद ब्रांड मोदी से ही है. क्या यह अब भी उतना असरदार है? देखते हैं.

इससे हम तीसरे बिंदु पर आते हैं. 2026 के चुनाव बीजेपी को यह साबित करने का बड़ा मौका देंगे कि वह सिर्फ उत्तर भारत की पार्टी नहीं है, जैसा कि दक्षिण में उसके विरोधी लोगों को समझाना चाहते हैं. दक्षिण भारत में बीजेपी की सारी बड़ी जीत कर्नाटक में ही हुई हैं. बाकी दक्षिणी राज्यों में वह ज़्यादातर क्षेत्रीय सहयोगियों के सहारे आगे बढ़ती रही है.

क्या बीजेपी विंध्य के दक्षिण में अपनी खुद की, स्वाभाविक बढ़त दिखा सकती है? हिंदी-ब्राह्मण-उत्तर भारतीय पार्टी वाली छवि तोड़ने के लिए पीएम मोदी ही सबसे बड़ा दांव हैं. अगर 2026 में वह अपने विरोधियों को गलत साबित नहीं कर पाती, तो लंबे समय तक उसी छवि में फंसी रह सकती है.

चौथी बात, जिसे 2026 के विधानसभा चुनाव परखेंगे, वह है बीजेपी के हिंदुत्व एजेंडे की पहुंच और उसकी सीमाएं. जिन राज्यों में चुनाव होने हैं, वहां अल्पसंख्यक बड़ी संख्या में हैं—पश्चिम बंगाल में 27 फीसदी मुसलमान, केरल में करीब 46 फीसदी मुसलमान-ईसाई और असम में 40 फीसदी मुसलमान (जैसा कि मुख्यमंत्री हिमंता दावा करते हैं). ऐसे में क्या बीजेपी की काउंटर-पोलराइजेशन की रणनीति काम कर पाएगी?

इन राज्यों में नतीजे चाहे जैसे भी हों, बीजेपी को उनसे बहुत कुछ सीखने को मिलेगा.

आखिर में, क्षेत्रीय पार्टियां, जिन्होंने उप-राष्ट्रीयता—भाषाई, जातीय, क्षेत्रीय पहचान को अपना चुनावी मुद्दा बनाया है, मानती हैं कि उन्होंने बीजेपी का तोड़ ढूंढ लिया है. केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी को इस नैरेटिव को तोड़ने में वाकई मुश्किल हुई है. पीएम मोदी के सत्ता में 12वें साल में होने के कारण, यह शायद बीजेपी के लिए इसे हराने का सबसे अच्छा—अगर आखिरी नहीं—मौका है.

(डीके सिंह दिप्रिंट के पॉलिटिकल एडिटर हैं. उनका एक्स हैंडल @dksingh73 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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