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मंगलवार, 22 अप्रैल, 2025
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विश्व हिंदू परिषद का डराना बेकार है, भारत में ईसाई धर्म का कोई भविष्य नहीं है

आरएसएस और अनुषंगी संगठन राजनीतिक उद्देश्यों से या फिर अनजाने में ये समझ बैठे हैं कि ईसाई मिशनरियों की धर्म परिवर्तन कराने की बहुत बड़ी क्षमता है और उन्हें न रोका गया तो करोड़ों हिंदू ईसाई बन जाएंगे.

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ईसाई मिशनरी और उन्हें पैसा देने वाली फंडिग एजेंसियों पर कार्रवाई का भारत में ये कोई पहला मामला नहीं है. द हिंदू अखबार में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक, केंद्रीय गृह मंत्रालय ने चार ईसाई संस्थाओं का विदेश से फंड लेने वाला लाइसेंस सस्पेंड यानी स्थगित कर दिया है. फॉरेन कंट्रीब्यूशन रेगुलेशन एक्ट यानी एफसीआरए के तहत ऐसा लाइसेंस होने पर ही कोई भारतीय संस्था विदेशों से आर्थिक मदद ले सकती है. गृह मंत्रालय की कार्रवाई की वजह से चारों संस्थाएं अगले छह महीने तक विदेशी पैसा नहीं ले पाएंगी. उसके बाद, उनके दिए स्पष्टीकरण के आधार पर या तो उनका लाइसेंस कैंसिल कर दिया जाएगा या फिर उन्हें लाइसेंस वापस मिल जाएगा.

इससे पहले 2017 में भारत में विदेशी पैसा देने वाली सबसे बड़ी संस्थाओं में से एक कंपैशन इंटरनेशनल को भारत में कामकाज बंद करने को कहा गया. वहीं, इस साल फरवरी में चेन्नई की एक संस्था – करुणा बाल विकास के खिलाफ सीबीआई ने मुकदमा दर्ज किया. एफआईआर में ये आरोप लगाया गया है कि करुणा बाल विकास विदेशों से पैसा लेकर भारत में लोगों को ईसाई बनाने का काम करती है. एनडीए के शासन में ईसाई धर्म प्रचार करने वाली संस्थाओं पर लगातार कार्रवाई की जा रही है.

इन घटनाओं का दो मतलब है-

1.)    अंतरराष्ट्रीय ईसाई संस्थाओं को ऐसा लगता है कि भारत में पैसा भेजकर और उस पैसे से लोगों की मदद करने से तथाकथित रूप से लोग अपना धर्म बदलकर ईसाई बन जाएंगे.

2.)    भारत सरकार और वर्तमान में केंद्र की सत्ता पर आसीन बीजेपी-आरएसएस और उनके अनुषंगी संगठनों जैसे विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल आदि को भी ये भय है कि विदेशी पैसों के जरिए हिंदुओं को ईसाई बनाया जा सकता है. यानी पैसा मिल जाए तो लोग हिंदू धर्म का त्याग कर सकते हैं. हिंदुत्व विचारधारा की तरफ से लगातार कहा जा रहा है कि भारत के लोगों को मिशनरी माफिया से बचाने की जरूरत है क्योंकि उन्हें विदेशों से अरबों डॉलर इस काम के लिए मिल रहे हैं. ये भय गली के स्तर के कार्यकर्ता से लेकर बड़े बुद्धिजीवियों तक में है.

क्या सचमुच भारत के लोगों को पैसा देकर उनका धर्म परिवर्तन कराया जा सकता है? मेरी मान्यता है, और इसके पक्ष में तमाम तथ्य हैं, कि ऐसा नहीं है. बल्कि भारत में ईसाईयत का कोई भविष्य ही नहीं है. आरएसएस और अनुषंगी संगठन राजनीतिक उद्देश्यों से या फिर अनजाने में ये समझ बैठे हैं कि ईसाई मिशनरियों की धर्म परिवर्तन कराने की बहुत बड़ी क्षमता है और उन्हें न रोका गया तो करोड़ों हिंदू अपना धर्म बदलकर ईसाई बन जाएंगे.


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मिशनरी चाहते तो हैं कि लोग धर्म बदल लें, लेकिन ये होता नहीं है

ईसाई धर्म दुनिया के उन धर्मों में हैं, जिनका विश्वास धर्म परिवर्तन कराने में है. इसलिए प्रारंभ से ही ईसाई मिशनरी के लोग दुनिया भर में जाते रहे हैं और धर्म का विस्तार करने की उनकी कोशिश जारी है. ये भारत में भी हुआ है और हो रहा है. भारत में 1700 ईस्वी के बाद से बड़ी संख्या में ईसाई मिशनरी सक्रिय हुईं. इसके बारे में कई इतिहासकारों ने लिखा है, लेकिन चूंकि ये काम कोई एक संस्था नहीं कर रही थी और भारत में उन दिनों विदेश से आने वालों और उनके उद्देश्यों के बारे में रिकॉर्ड रखने का रिवाज नहीं था, इसलिए हमें ये नहीं पता कि अब तक ऐसे कितने लोग भारत में आए और उन्होंने कहां-कहां क्या किया. ये आम मान्यता है कि इन मिशन के नन और फादर भारत आते हैं, सेवा का कार्य करते हैं और तथाकथित रूप से लोगों को ईसाई बनाते हैं. ये भी कहा जाता रहा है कि उन्हें इस काम के लिए विदेशों से पैसा भी मिलता रहा है.

लेकिन ईसाई बनने वालों के आकड़ों को देखें तो पता चलेगा कि जिस काम के लिए मिशनरियों के लोग बिना शादी-ब्याह किए भारत में आकर मर-खप गए, वो प्रोजेक्ट बुरी तरह असफल हो गया. आजादी से पहले के लगभग ढाई सौ साल में ब्रिटिश शासन के बावजूद ये मिशनरियां भारत में सिर्फ 2.3 प्रतिशत लोगों को ईसाई बना पाई थीं. ये आंकड़ा आजाद भारत की पहली जनगणना यानी 1951 का है. इनमें भी ज्यादातर लोग केरल और पूर्वोत्तर के हैं. तब से लेकर ये आंकड़ा लगभग स्थिर है बल्कि 1971 के बाद से तो भारत में ईसाई आबादी का अनुपात घट रहा है. 2001 और 2011 की जनगणना के बीच ईसाई आबादी का अनुपात 2.34 प्रतिशत से घटकर 2.30 प्रतिशत रह गया. इस दौरान हिंदू आबादी के बढ़ने की रफ्तार 16.8 फीसदी रही, जबकि ईसाई आबादी के बढ़ने की रफ्तार उनसे कम 15.5 प्रतिशत रही.

अगर ईसाई मिशनरियों को किसी कंपनी की तरह देखें और मिशन का काम करने वालों को उसका कर्मचारी मानें तो इस असफलता के लिए कोई भी कंपनी भारत में काम करने वाले तमाम ईसाई धर्म प्रचारकों को या तो काम से निकाल देगी या उन्हें कड़ी चेतावनी देगी. वैसे भी ईसाईयों का जेंडर रेशियो (1,023) हिंदुओं के जेंडर रेशियो (939) से बेहतर है और साधारण गणित के हिसाब से बिना धर्म परिवर्तन के भी ईसाईयों के बढ़ने की रफ्तार हिंदुओं से ज्यादा होनी चाहिए. ईसाई मिशनरियों का धर्म परिवर्तन का प्रोजेक्ट अगर थोड़ा भी कामयाब हो रहा होता, तो आबादी के आंकड़े ऐसे नहीं होते.


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आदिवासी इलाकों में ईसाई आबादी

आरएसएस और उसके अनुषंगी संगठन- विश्व हिंदू परिषद और वनवासी कल्याण आश्रम का दशकों से ये आरोप है कि ‘ईसाई मिशनरियों ने लालच देने का काम करके धर्मांतरण करवाया.’ आदिवासी बहुल इलाकों में धर्मांतरण रोकने के लिए ही आरएसएस ने वनवासी कल्याण आश्रम और ऐसे कई संगठन बनाए हैं. ये वो इलाका है, जहां इसे लेकर हुए संघर्ष में कई लोग हताहत हुए हैं, जिनमें ग्राहम स्टेंस की हत्या की राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर काफी चर्चा हुई है. इसके अलावा चर्चों को जलाए जाने की कई घटनाएं भी इन इलाकों में हुईं.

जिन इलाके में पिछले सौ साल से धर्मांतरण जारी है (जैसा कि आरोप है) उसके बारे में ये जानना जरूरी है कि इतने सारे धर्मांतरण और इतना सारा पैसा कथित रूप से खर्च किए जाने के बाद वहां ईसाईयों की संख्या कितनी हो गई है.

2011 की भारत की जनगणना हमें ये आंकड़े देती है.

राज्य ईसाई आबादी (2011 की जनगणना)
झारखंड 4.3%
छत्तीसरढ़ 1.92%
ओडिसा 2.77%
मध्य प्रदेश 0.29%
गुजरात 0.52%

 

ये जानना महत्वपूर्ण है कि अगर कोई आदिवासी अपना धर्म बदलता भी है तो उसका अनसूचित जनजाति यानी आदिवासी का दर्जा बना हुआ रहता है. यानी ये आरोप भी नहीं लग सकता कि आरक्षण का लाभ लेते रहने के लिए धर्मांतरित आदिवासी खुद को हिंदू बताते हैं. ये आरोप दलितों पर ज्यादा लगता है क्योंकि अपनी धार्मिक पहचान ईसाई बताने की स्थिति में उनका अनुसूचित जाति का दर्जा चला जाता है.

यही नहीं, ईसाई मिशनरियों से शुरुआती केंद्र बंगाल में भी ईसाईयों की संख्या नाम मात्र की है. भारत में ब्रिटिश सत्ता की राजधानी रहे कोलकाता और पश्चिम बंगाल में बड़ी संख्या में मिशनरी पिछले तीन सौ साल से सक्रिय रही हैं. इन सबके बावजूद 2011 की जनगणना के मुताबिक पश्चिम बंगाल में सिर्फ 5.15 लाख ईसाई हैं. लोग तो मजाक में ये भी कहते हैं कि पश्चिम बंगाल में जितने फादर और नन आए और शादी नहीं की, उन्होंने अगर स्वाभाविक तरीके से सिर्फ परिवार बसाए होते और धर्म प्रचार का काम नहीं भी किया होता तो पश्चिम बंगाल में इससे ज्यादा ईसाई होते!

ब्रिटिश शासन के अन्य बड़े केंद्रों, जहां ईसाईयों ने ढेर सारे चर्च, स्कूल और अस्पताल खोले, जैसे दिल्ली (0.87 प्रतिशत), मुंबई (3.27 प्रतिशत) और चेन्नई (7.72 प्रतिशत) में काफी कम ईसाई हैं.

भारत के बड़े राज्यों में सिर्फ केरल ही है, जहां 10 प्रतिशत से ज्यादा ईसाई हैं और वहां भी ज्यादा लोगों का ईसाई बनने अंग्रेजों के आने और उनके द्वारा धर्म प्रचार को बढ़ावा दिए जाने से पहले हो चुका था.

इस बिंदु पर हमें दो सवालों पर विचार करना चाहिए. एक, ऐसा क्या है कि अंग्रजों के लगभग ढाई सौ साल के शासन, हजारों या मुमकिन है कि लाखों मिशनरियों और ढेर सारा पैसा खर्च करने के बावजूद भारत में ईसाई धर्म कभी फैल नहीं पाया. और दो, क्या भारत में ईसाई धर्म का कोई भविष्य है, खासकर इसलिए कि आबादी में अब उनका अनुपात लगातार कम हो रहा है?

दोनों सवालों के जवाब जानने के लिए हमें इन बातों पर विचार करना होगा.

ईसाई धर्म का भारतीय चेहरा

एक, किसी भी धर्म का प्रचार पैसा देकर या लालच देकर नहीं हो सकता है और ऐसा करने की कोशिश अगर सफल होती भी है तो उसे अनैतिक और भ्रष्ट ही कहा जाएगा. भारत में कई राज्यों में तो लालच देकर कराए जाने वाला धर्मांतरण  गैरकानूनी है और ऐसा कराने वालों के लिए सजा का भी प्रावधान है. मुझे नहीं लगता कि ईसाईयों के ईश्वर और ईसा मसीह भी ऐसे तरीकों का समर्थन करेंगे. और फिर ये भी मुमकिन है कि मुसीबतजदा लोग धर्मांतरण के लालच में दी जाने वाली चीजें और पैसों को तो ले लें और बाद में अपने मूल धर्म में लौट जाएं. अगर कोई आदमी ऐसा करता है, तो मैं इसे अनैतिक मानते हुए भी पूरी तरह गलत नहीं मानूंगा. ये अनीति का जवाब एक और अनीति से देना माना जाएगा.

दो, भारत में ईसाई धर्म ने खुद को कभी भी मुक्ति के संघर्ष के साथ नहीं जोड़ा. मिसाल के तौर पर अमेरिका और कई देशों में अश्वेत गुलामों ने अपने अश्वेत चर्च बनाए और इन चर्चों ने नागरिक अधिकार के आंदोलनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. खुद मार्टिन लूथर किंग भी ईसाई धर्मोपदेशक थे. इसी तरह लैटिन अमेरिका के कई देशों में ईसाई पादरियों ने उपनिवेश विरोधी संघर्ष और तानाशाही के खिलाफ आंदोलनों में हिस्सा लिया. ईसाई धर्म की इस धारा को लिबरेशन थियोलॉजी कहा जाता है.

भारत में लिबरेशन थियोलॉजी जैसी कोई चीज कभी नहीं रही. बल्कि अपने शुरुआती दिनों में ईसाई धर्म को ब्रिटिश उपनिवेशवादियों का धर्म माना गया. शुरुआती दिनों से ही ब्रिटिश नौकरशाही में शामिल कई अफसरों और जमींदारों ने भी ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया और भारत के आम लोगों का उनके प्रति नजरिया अच्छा नहीं था. कार्ल मार्क्स ने कहा था कि धर्म पीड़ित मानवता को सांत्वना देता है और उन्हें सहारा देने का एहसास दिलाता है. ऐसी कोई भूमिका ईसाई धर्म ने भारत में नहीं निभाई.

तीन, भारत में आए मिशनरी सबसे पहले हिंदू धर्म के जिन लोगों के संपर्क में आए वे शहरी और पढ़े-लिखे लोग थे, जाहिर है कि भारतीय समाज व्यवस्था के हिसाब से उनमें ब्राह्मण सबसे ज्यादा थे. अंग्रेजी शिक्षा में अवसर देखकर इन वर्गों ने अपने बच्चों को ईसाई स्कूलों में भेजा. इस वजह से भारत में सबसे पहले जो लोग ईसाई बने, वे ब्राह्मण थे. मिशनरियों ने सोचा कि चूंकि ब्राह्मण हिंदू समाज के वैचारिक नेता हैं, इसलिए उनके ईसाई बनने से बाकी हिंदू भी ईसाई बन जाएंगे. लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ.

इसकी एक वजह से है कि जब कोई हिंदू ब्राह्मणों को सबसे श्रेष्ठ मानता है तो ये उसकी धार्मिक शिक्षा का परिणाम होता है. धर्म ग्रंथ उन्हें ऐसा मानने की शिक्षा देते हैं. ईसाई धर्म के शिखर पर मौजूद ब्राह्मणों या सवर्णों की श्रेष्ठता धार्मिक रूप से सिद्ध नहीं है. इसलिए बाकी हिंदुओं ने ईसाई बने ब्राह्मणों और सवर्णों का नेतृत्व मानने से इनकार कर दिया. यहां जाकर ईसाई धर्म फंस गया. अरुंधती राय बेशक कहती हैं कि उनकी मां सीरियन क्रिश्चियन (ब्राह्मण से ईसाई बना केरल का समुदाय) और पिता बंगाली ब्राह्मण से ब्रह्म समाजी और ईसाई बने थे, इसलिए उनकी कोई जाति नहीं है, लेकिन भारत में धर्म बदलने से जाति नहीं बदलती और जाति के विशेषाधिकार भी नहीं जाते.


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ईसाई स्कूल यानी इलीट बनाने की फैक्ट्री

चार, ईसाईयों ने भारत आने के बाद बड़ी संख्या में इंग्लिश मीडियम स्कूल खोले. ये स्कूल देखते ही देखते समाज के प्रभावशाली वर्ग का केंद्र बन गए और सबसे प्रभावशाली लोगों ने यहां अपने बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दिया. भारतीय समाज में सबसे प्रभावशाली वर्ग सबसे प्रभावशाली जाति भी है. ईसाई धर्म बेशक कहता है कि – “स्वर्ग का राज गरीबों के लिए है और सूई की छेद से ऊंट का निकल जाना संभव है, लेकिन अमीरों के लिए ईश्वर के संसार में प्रवेश कर पाना संभव नहीं है.” लेकिन भारत में ईसाई मिशनरियों ने खासकर महानगरों और सुरम्य पहाड़ियों में जो स्कूल बनाए, वहां गरीबों का प्रवेश लगभग वर्जित है.

मिशनरियों का ये काम अन्याय तो है ही, ईसा मसीह की शिक्षा के भी खिलाफ है. इसकी वजह से प्रभावशाली समुदायों को इंग्लिश की अतिरिक्त ताकत मिल गई और वे ज्यादा प्रभावशाली बन गए और अत्याचार और भेदभाव करने में ज्यादा सक्षम हो गए. ये भारत के दलितों, पिछड़ों, गरीबों और किसानों के साथ बहुत बड़ा अन्याय साबित हुआ. कुछ ईसाई स्कूलों ने तो अमीरों को इंग्लिश मीडियम में और गरीब बच्चों को दूसरी शिफ्ट में भारतीय भाषा में शिक्षा देने का काम किया.

इसका नतीजा ये हुआ कि ईसाई मिशनरियों ने लालकृष्ण आडवाणी, जेपी नड्डा, दिवंगत अरुण जेटली, पीयूष गोयल और वसुंधरा राजे समेत सैकड़ों बीजेपी नेताओं को इंग्लिश शिक्षा दी. ये एक ऐतिहासिक न्याय ही है कि ईसाई मिशनरियों पर फंदा उस पार्टी की सरकार कस रही है, जिसके अध्यक्ष जेपी नड्डा को सेंट जेवियर्स स्कूल में शिक्षा मिली!

कल्पना कीजिए कि भारत के हजारों ईसाई स्कूलों ने पिछले तीन सौ साल में लाखों दलित-आदिवासी-पिछड़े और ग्रामीण बच्चों को इंग्लिश मीडियम में शिक्षा दी होती, तो भारतीय समाज की तस्वीर आज कैसी होती. ये न करके ईसाई मिशनरियों ने अमीर और प्रभावशाली जाति को इंग्लिश शिक्षा दी और इस तरह उन्होंने जो नैतिक अपराध किया है, उसे इतिहास माफ नहीं कर सकता. कहना मुश्किल है कि उनका ईश्वर उन्हें माफ करेगा या नहीं!

(लेखक पहले इंडिया टुडे हिंदी पत्रिका में मैनेजिंग एडिटर रह चुके हैं और इन्होंने मीडिया और सोशियोलॉजी पर किताबें भी लिखी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

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