रेलवे सेवाओं के निजीकरण से जुड़े मसले सिद्धांत से ताल्लुक नहीं रखते बल्कि इस पहल को सफल बनाने की व्यावहारिकता से संबंध रखते हैं. कई देशों ने अपने यहां रेलवे के कामकाज का पूरा या आंशिक निजीकरण किया है. ऐसे देशों में ब्रिटेन, जापान, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि शामिल हैं. मिस्र ने इसकी प्रक्रिया शुरू कर दी है, अर्जेंटीना इस पटरी पर बहुत आगे बढ़ चुका है. इनमें से कई देशों ने एक सदी से भी पहले निजी रेलवे से शुरुआत की थी, निजी रेल कंपनियां जब मुश्किल में फंसी तो उनका राष्ट्रीयकरण किया लेकिन अब फिर सरकारी स्वामित्व या संचालन से पलट रही हैं.
भारत ने भी 19वीं सदी के मध्य में निजी रेल कंपनियों से शुरुआत की थी. 1951 में उनका राष्ट्रीयकरण किया और अब इससे उलटी दिशा में बढ़ने की ओर प्रारम्भिक कदम उठा रहा है. पहला निजी रेलवे स्टेशन भोपाल के पास हबीबगंज में बनने जा रहा है, जिसके साथ 50 और निजी स्टेशन बनेंगे. शुरू में 400 निजी स्टेशन बनाने की बात थी. अभी दो ‘निजी’ तेजस ट्रेनें (केवल नाम को निजी, क्योंकि उन्हें सरकारी कंपनी चला रही है) चल रही हैं, जिनकी संख्या बढ़ाकर 150 की जाएगी. जहां रोज 7000 यात्री ट्रेनें दौड़ रही हों, यह संख्या शायद ही बड़ी मानी जाएगी. इसके अलावा परिवहन के दूसरे साधनों पर निजी क्षेत्र का वर्चस्व एक हकीकत है, चाहे वह बंदरगाह एवं जहाजरानी हो या हवाई अड्डे और विमान सेवाएं हों, टोल रोड या यात्री बसें और ट्रक सेवाएं हों. केवल रेलवे पर ही सरकार का एकाधिकार है.
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यानी रेलवे पर स्वामित्व सरकार का हो या निजी क्षेत्र का, यह मामला विचारधारा का नहीं है. लेकिन तथ्य यह है कि परिवहन के दूसरे साधनों के मुक़ाबले रेलवे के कामकाज का निजीकरण ज्यादा जटिल मामला है. 19वीं सदी के मध्य में निजी कंपनियों ने ही 5 प्रतिशत के गारंटीशुदा लाभांश भुगतान की शर्त पर मिली पूंजी से भारतीय रेलवे का निर्माण और संचालन शुरू किया था. इसका क्या नतीजा मिला, उस घोटाला भरे इतिहास (भारतीय करदाता को हर साल ब्रिटेन की जीडीपी में 4 प्रतिशत का योगदान करना पड़ा, जिसमें बड़ा हिस्सा रेलवे का ही था) को तब भुला दिया गया जब 20वीं सदी में पहली निजी बिजली उत्पादन कंपनियों को गारंटीशुदा लाभ की पेशकश की गई.
अमेरिका में 19वीं सदी के उत्तरार्ध में जब पहली बार एक तट से दूसरे तट तक रेल बिछाई गई थी तब जो पेशकश की गई थी उनमें मुफ्त में जमीन देना शामिल था, और वह इतनी एकड़ जमीन थी कि उसका क्षेत्रफल किसी भी राज्य के क्षेत्रफल से ज्यादा था. सबसे ताजा मामला ब्रिटिश रेल के निजीकरण का है. थैचर शैली का यह निजीकरण अंतहीन विवादों में रहा. लेकिन जापान आधा दर्जन से ज्यादा निजी रेलवे सिस्टम चलाता है जिनमें रेल नेटवर्क एक-दूसरे के क्षेत्र में काम करते हैं. भारत में कुछ साल पहले निजी कंटेनर फ्रेट सर्विस शुरू की गई थी लेकिन वह बहुत सफल नहीं हो पाई. रेलवे वर्कशॉप के निजीकरण का प्रस्ताव 1990 के दशक में किया गया, लेकिन वह भी आगे नहीं बढ़ा.
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जोखिम और समस्याएं स्पष्ट हैं. रेलवे को अब नयी निजी ट्रेनों से प्रतिस्पर्धा करने पड़ेगी तो हितों का टकराव और विवाद स्वाभाविक है, लेकिन उनका निपटारा करने के लिए किसी रेगुलेटर का प्रस्ताव नहीं किया गया है. जिन ट्रंक रूटों पर निजी ट्रेनें चलाई जाने वाली हैं उनकी क्षमता काफी कमजोर है. इसके अलावा लागत-लाभ का भी सवाल है, क्योंकि रेलवे तो यात्री ट्रैफिक के लिए फ्रेट से होने वाली कमाई में से सब्सिडी देती है और हवाई भाड़े भी अक्सर आश्चर्यजनक रूप से सस्ते होते हैं.
इन सबके ऊपर, मौजूदा रेलवे और नये निजी ट्रेन ऑपरेटर तभी सहजता से काम कर पाएंगे जब सेवाओं की कीमत उचित होगी. हवाई अड्डों के मामले में कुछ विमान सेवा कंपनियों ने शिकायत की है कि एअरपोर्ट शुल्क बेहद ऊंचे हैं, यहां तक कि वे दुनिया सबसे ऊंचे हैं. दूसरे सेक्टरों (दूरसंचार, उड्डयन आदि) में रेगुलेटरों का जो असंतोषजनक अनुभव रहा है उसके चलते इस सेक्टर के लिए रेगुलेटर रखने का सुझाव देने में हिचक होती है लेकिन और कोई उपाय भी नहीं है.
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इन अनसुलझे मसलों और जटिलताओं के मद्देनजर सरकार धीरे-धीरे एक-एक कदम आगे बढ़ रही है. 50 निजी स्टेशनों और 150 निजी ट्रेनों के अनुभव से सीख मिलेगी और ऐसे नियम बनाने में मदद मिलेगी जो नये ऑपरेटरों के लिए अनुचित न होंगे और पारिवारिक पूंजीवाद को बढ़ावा देने के आरोप नहीं लगेंगे, सरकारी ऑडिटरों से आलोचना नहीं मिलेगी और इस तरह घोटालों तथा अदालती झगड़ों से बचा जा सकेगा. नयी ट्रेनों की रफ्तार तो तेज जरूर हो मगर निजीकरण की योजना सोच-समझकर धीरे-धीरे ही लागू की जाए तो बेहतर!
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