scorecardresearch
Tuesday, 23 April, 2024
होममत-विमतभारत की अनाकर्षक राजनीतिक अर्थव्यवस्था के कारण अमीर देश छोड़ रहे हैं तो वहीं अर्थशास्त्री लौट नहीं रहे

भारत की अनाकर्षक राजनीतिक अर्थव्यवस्था के कारण अमीर देश छोड़ रहे हैं तो वहीं अर्थशास्त्री लौट नहीं रहे

एक समय था जब मोंटेक सिंह, मनमोहन सिंह, बिमल जालान सरीखे अर्थशास्त्री विदेश की आकर्षक नौकरी छोड़ स्वदेश लौटे थे, आज अच्छे ओहदों पर बैठे हुनरमंद अमीर प्रोफेशनल्स भारत की अनाकर्षक राजनीतिक अर्थव्यवस्था के कारण देश छोड़ रहे हैं या उससे दूर रह रहे हैं

Text Size:

मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने अपनी गैर-संस्मरणात्मक किताब ‘बैकस्टेज: द स्टोरी बिहाइंड इंडियाज़ हाइ ग्रोथ इयर्स’ में याद किया है कि किस तरह उन्होंने और उनकी पत्नी इशर ने 40 साल पहले वाशिंगटन में विश्व बैंक और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोश की अपनी आकर्षक नौकरी छोड़कर भारत लौटने का फैसला किया था. वापस आकर मोंटेक ने वित्त मंत्रालय में आर्थिक सलाहकार का पद संभाला और इशर एक ‘थिंक टैंक’ से जुड़ गईं. उन्हें साधारण वेतन और पद के हिसाब से निचले स्तर का सरकारी आवास मिला. लेकिन उन्हें लगता था कि वे देश के विकास में अपना योगदान दे रहे हैं. धीरे-धीरे वे राजधानी के प्रभावशाली दंपतियों में शुमार माने जाने लगे. ज़िंदगी कुछ कमियों की इस तरह भी भरपाई कर दिया करती है!

कुछ दूसरे अर्थशास्त्री भी उसी दौरान आगे-पीछे स्वदेश लौटे- मनमोहन सिंह, बिमल जालान, विजय केलकर, शंकर आचार्य, राकेश मोहन आदि. ये सब सर्वश्रेष्ठ विश्वविद्यालयों में पढ़ाई करके और अंतरराष्ट्रीय संस्थानों में मोटे वेतन वाली नौकरियां करके लौटे थे. ये और इन जैसे और लोग भी अगले तीन-चार दशकों तक देश की आर्थिक नीति को दिशा देते रहे, उसे प्रभावित करते रहे. इस क्रम में वे मोंटेक की तरह ऊंचे पदों पर पहुंचते रहे, अपनी प्रतिष्ठा बनाते रहे और बेशक लुटियंस की दिल्ली में शानदार बंगलों में रहते हुए ऊंचे तबकों में अपनी जगह बनाते रहे, जो कि उन्हें और कहीं शायद ही हासिल हो पाता.


यह भी पढ़े: करदाताओं की संख्या घटकर एक चौथाई रह गई है, इसके लिए सरकार को अपने गिरेबां में झांकना होगा


इस सप्ताह मोंटेक की किताब के विमोचन के मौके पर सवाल यह उभरा कि आज उनकी तरह के लोग हमेशा के लिए देश क्यों नहीं लौट रहे ताकि अपनी जड़ें यहां जमा सकें? हाल में जो लोग लौटे भी, वे अपने हाथों में ग्रीन कार्ड थामे हुए थे ताकि फिर से हरे-भरे मैदानों में लौट सकें, मसलन- अरविंद पनगढ़िया, रघुराम राजन, अरविंद सुब्रह्मण्यन और उन जैसी सम्मानित हस्तियां.

इस सवाल का एक जवाब तो यह है कि भारत में आर्थिक शरणार्थी हमेशा से मौजूद रहे हैं और वे हर उस जगह जाने को तैयार रहते हैं जहां उन्हें बढ़िया शिक्षा और अच्छी नौकरी मिले, चाहे वह पश्चिम एशिया हो या सिंगापुर. उनमें से कई ने बड़े नाम कमाए, अंतरराष्ट्रीय स्तर के ‘टेक जाइंट’ बने, नोबल पुरस्कार हासिल किए. लेकिन इसका काला पहलू भी है.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

बेशक भारत आज उतना गरीब नहीं है जैसा 1980 या 1990 वाले दशकों में था, और वह क्यूबा जैसा आर्थिक कारागार नहीं है, आज वह ऊंचे वेतन वाले कई तरह के केरियर उपलब्ध करा रहा है, शानदार कारें और उपभोक्ता वस्तुएं उपलब्ध करा रहा है. अत्याधुनिक अस्पताल और नये उदार आर्ट कॉलेज दे रहा है, ‘पी’ फॉर्म पर दस्तखत किए बिना यात्रा करने और अपने साथ डॉलर ले जाने की छूट दे रहा है. इसके बावजूद यह बसने और काम करने के लिए अधिक आकर्षक देश नहीं माना जाता.

जाने-पहचाने नामों और चेहरों समेत कई व्यवसायी ‘विदेशी नागरिक’ बनते जा रहे हैं. वे उन बाज़ारों में ज्यादा निवेश कर रहे हैं जहां जीवन ज्यादा आसान है. बाज़ार की मांगों को पूरा करने वाले हुनर और डिग्री से लैस अमीर प्रोफेशनल्स अपने साथ अपनी दौलत भी ले जा रहे हैं (जिसके जवाब में वित्त मंत्री ने पैसे के ऐसे स्थानांतरण पर टैक्स लगाने की घोषणा बजट में कर दी है). ऐसे लोग शायद टैक्स आतंक से बचने के लिए या यहां उम्मीद से कम आर्थिक अवसरों की वजह से या फिर यहां सार्वजनिक विमर्श में कटुता बढ़ते जाने के कारण बढ़ती अनिश्चितता के कारण एक पैर भारत में तो दूसरा विदेश में रखने लगे हैं.


यह भी पढ़े: मोदी सरकार का अर्थव्यवस्था पर प्रदर्शन इतना बुरा नहीं, लेकिन कई मोर्चों पर और ज्यादा करने की जरूरत है


या शायद हमारे शहरों की हवा में बढ़ता प्रदूषण उन्हें नहीं रास आ रहा है. जो भी वजह हो, पुराने आर्थिक शरणार्थियों की जगह अब वे लोग ले रहे हैं जो अच्छे ओहदों पर बैठे हैं और भारत की अनाकर्षक राजनीतिक अर्थव्यवस्था के कारण देश को छोड़ रहे हैं या उससे दूर रह रहे हैं. ऑस्ट्रेलिया और कनाडा जैसे कम आबादी वाले देशों के राजनयिक बताते हैं कि विदेश बसने की मांग करने वाले भारतीयों की संख्या में अचानक वृद्धि हुई है.

दूसरा सवाल यह है कि हमारे अर्थशास्त्रियों को अतीत पर नज़र डालते हुए संतुष्ट होना चाहिए या क्रुद्ध? इसमें शक नहीं कि एक दशक पहले 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद आर्थिक वृद्धि में तेजी आई और टेलिकॉम जैसे सेक्टरों में भारी परिवर्तन आया. लेकिन सुधारों को लागू करने के लिए हमें 1991 तक इंतज़ार नहीं करना चाहिए था. मोंटेक ने लिखा है कि आइएमएफ के प्रमुख ने 1988 के शुरू में राजीव गांधी को चेताया था कि संकट पैदा होने वाला है. लेकिन उन्होंने कुछ नहीं किया.


यह भी पढ़े: चीन के कोरोनावायरस संकट में भारत के नीति निर्माताओं के लिए मौजूद है बड़ी सीख


दूरसंचार क्रांति कोई भारत के लिए खास तौर से नहीं हुई, दूसरे देशों ने भी दूरसंचार में नाटकीय सुधार किए. न ही भारत की तेज आर्थिक वृद्धि कोई अनूठी बात थी, 2004-08 में उभरते बाज़ारों ने 7.9 प्रतिशत की कुल वृद्धि दर्ज की. चीन को भूल जाइए, आज तो व्यापार के मामले में बांग्लादेश और वियतनाम भारत से अच्छा कर रहे हैं और थाईलैंड का बाहत 2.25 के बराबर है, 1991 में वह इससे आधे पर था.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

share & View comments