कामयाब-से-कामयाब राजनेता भी कभी-कभी जनता की उम्मीदों और ताकत का अंदाज़ा लगाने में चूक कर बैठते हैं. और जिस राजनीति ने उन्हें कामयाबी दिलाई उसकी ताकत को जब वे जरूरत से ज्यादा आंकने लगते हैं तब प्रायः हदें पार करने लगते हैं. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की राजनीतिक दृष्टि मध्यवर्गीय हिंदू संसार से गहराई से जुड़ी है, वह संसार सांस्कृतिक अपरिहार्यता, राजनीतिक बहुसंख्यकवाद और आर्थिक आकांक्षाओं का मिश्रण है और मोदी की लगभग पूरी राजनीति का स्वरूप तय करता है. लेकिन तीन कृषि कानूनों का जिस तरह विरोध हो रहा है वह यही सिद्ध करता है कि भारत अभी वह मध्यवर्गीय संसार पूरी तरह नहीं बन पाया है.
कृषि कानूनों के बारे में मोदी की व्याख्या यह है कि यह लोगों को निहित स्वार्थों के चंगुल से मुक्त करके उन्हें समृद्धि की राह पर ले जाएगा. यह व्याख्या उस राजनीति के बिल्कुल तालमेल मैं है जिसने मोदी के जनाधार को बार-बार मजबूती दी है. यथास्थिति और निहित स्वार्थों के खात्मे का वादा ही उनकी योजनाओं की लोकप्रियता के केंद्र में रहा है, चाहे वह नोटबंदी हो या अनुच्छेद 370 को रद्द किया जाना या ‘डायरेक्ट बेनीफिट ट्रांसफर’ (डीबीटी) व्यवस्था. मोदी सरकार के कृषि सुधारों में वे सारी विशेषताएं और भावनाएं निहित हैं, जो मध्यवर्गीय आकांक्षाओं पर आधारित मोदी मार्का राजनीति से जुड़ी हैं लेकिन ऐसा लगता है कि इस मामले में वे जनता का मूड भांपने में चूक गए हैं. तो अब हुआ क्या है?
बुनियादी बात यह है कि मोदी यह भांपने में चूक गए हैं कि उनका जो मध्यवर्गीय जनाधार है वह मूलतः दो बिल्कुल भिन्न वर्गों का गठबंधन है— पारंपरिक मध्यवर्ग और नव-मध्यवर्ग का गठबंधन. इन दोनों वर्गों का यह गठबंधन ठोस स्वार्थों से ज्यादा एक भावबोध और ढीलेढाले विचारधारात्मक आग्रह पर आधारित है. इसलिए मध्यवर्ग पर आधारित मोदी की राजनीति अपनी कठोर सीमाओं में बंधी है और ये सीमाएं अब स्पष्ट होकर उभर रही हैं.
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दो मध्यवर्ग
पारंपरिक मध्यवर्ग पूरी आबादी का एक छोटा टुकड़ा है, जो कॉलेज में शिक्षा पाए, प्रोफेशनल रोजगारों में लगे लोगों का है जो अंग्रेजी में खबरें पढ़ता-देखता है और सोशल मीडिया पर अपने विचार उड़ेलता है. एक नया वर्ग है जिसका नाम है नव-मध्यवर्ग, जिस नाम को मोदी ने लोकप्रिय बनाया और उसका राजनीतिकरण किया. इस वर्ग में वह विशाल आबादी है, जो गरीबी से उबर गई है और अपनी पहचान मध्यवर्ग से जोड़ती है जबकि उसका रहन-सहन अभी मध्यवर्ग के रहन-सहन के स्तर को छू नहीं पाया है. राजनीतिशास्त्री क्रिस्टोफ़े जेफरलॉट ने 2014 में ही कह दिया था कि इस नव-मध्यवर्ग ने ही मोदी को जीत दिलाई है.
मोदी की राजनीतिक प्रतिभा यह रही कि उन्होंने इन दो अलग-अलग वर्गों को आकांक्षाओं की राजनीति से जोड़ दिया. इसने उन्हें अपना राजनीतिक वर्चस्व कायम करने के लिए विशाल जनाधार जुटा दिया. ‘सीएसडीएस-लोकनीति’ के 2019 के चुनावी सर्वे में भाग लेने वालों में से 58 प्रतिशत ने खुद को मध्यवर्ग का बताया था. यहां तक कि गरीबों के लिए मोदी की कल्याणकारी नीतियों को भी गरीबी उन्मूलन के कार्यक्रमों से ज्यादा मध्यवर्ग के सशक्तिकरण और विकास के मुहावरे में गढ़ कर पेश किया गया. इस राजनीतिक ढांचे में, जब व्यापक हिंदू मध्यवर्ग एकजुट हो जाता है— जैसे कि वह अनुच्छेद 370, नागरिकता कानून (सीएए), नोटबंदी, लॉकडाउन की राजनीति के मामलों में हो गया— तब वह एक वर्चस्ववादी ताकत बन जाता है और मोदी को अजेय बना देता है.
लेकिन कृषि कानून पर भड़का विरोध यही दिखाता है कि ये दोनों मध्यवर्गीय जमातें अलग-अलग भौतिक हितों के कारण बिल्कुल अलग-अलग राजनीतिक खेमों में बंट सकती हैं. जबकि पारंपरिक मध्यवर्ग ने कृषि सुधारों पर ‘राजनीतिक रूप से कड़ा’ और ‘भविष्योन्मुख’ कदम उठाने के लिए मोदी की तारीफ की है, सरकारी कदमों के विरोध के सवाल पर नव-मध्यवर्ग का रुख उदासीन या अस्पष्ट रहा है.
कम-से-कम ग्रामीण नव-मध्यवर्ग के रुख का अंदाजा केवल दिल्ली की सीमाओं पर हो रहे विरोध प्रदर्शनों से ही नहीं लगाया जा सकता बल्कि इस तथ्य से भी स्पष्ट होता है कि भाजपा के सिवा कोई भी बड़ी राजनीतिक पार्टी इन कृषि सुधारों का समर्थन नहीं कर रही है. राजनीतिक दलों को जमीन से उठ रही आवाज़ों की ज्यादा समझ होती है इसलिए जब भाजपा के सहयोगी दल और आरएसएस का अपना किसान संगठन विरोध प्रदर्शनों का खुला समर्थन कर रहा है, तब जनमत का रुख स्पष्ट हो जाता है. यहां तक कि हरियाणा में भाजपा की सहयोगी जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) के विधायक उसे विरोध प्रदर्शनों में शामिल होने का निरंतर दबाव डाल रहे हैं.
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सरकार भरोसे मध्यवर्ग
आमदनी में निरंतर वृद्धि, शहरीकरण, मीडिया की व्यापकता ने विस्तृत मध्यवर्ग में एक ऐसी सामूहिक भावना का विस्तार किया है, जो मोदी की राजनीति पर भी हावी है. इसका एक पहलू राजनीतिक शैली से संबंध रखता है जिसमें शासन के मैनेजरनुमा गैर-राजनीतिक तौर-तरीके को अपनाया जाता है, जो कि संसद और दूसरी नियंत्रक संस्थाओं के प्रति मोदी के उपेक्षा भाव से तो स्पष्ट होता ही है, कृषि कानूनों को पास करवाने की प्रक्रिया से भी जाहिर है. सीएसडीएस के 2005 के एक सर्वे में पाया गया था कि उच्च मध्यवर्ग का 80 प्रतिशत तबका यह चाहता है कि ‘देश में सभी बड़े फैसले नेताओं के द्वारा नहीं बल्कि विशेषज्ञों के द्वारा किए जाने चाहिए’. इसी तरह 2009 में 13 देशों में ‘प्यु’ के एक सर्वे में पाया गया था कि भारत एकमात्र ऐसा देश है जहां मध्यवर्ग से ज्यादा गरीब तबके को लोकतंत्र की फिक्र है. तमाम दूसरे देशों में मध्यवर्ग को ही अधिक प्रगतिशील पाया गया था.
दूसरा पहलू है विचारधारा से ढीलेढाले लगाव का, मसलन पुनर्वितरण की जगह वृद्धि को तरजीह देने और जातीय बहुसंख्यकवाद की राजनीति के प्रति सम्मोहन का है. अपनी पुस्तक ‘मिडल क्लास, मीडिया एंड मोदी ’ में नागेश प्रभु ने कहा है कि यह विस्तृत और ‘वर्चस्ववादी मध्यवर्ग’ ही मोदी के उत्कर्ष का मूल आधार है.
लेकिन इस बात की प्रायः अनदेखी कर दी जाती है कि सरकारी भ्रष्टाचार या अक्षमता जैसे कुछ मसलों पर नव-मध्यवर्ग पारंपरिक मध्यवर्ग से भले सहमत हो लेकिन इसका यह मतलब नहीं है वह आर्थिक सुधारों का समर्थक है, खासकर इसलिए कि ये उसके अपने हितों को प्रभावित करते हैं. जैसा कि राजनीतिशास्त्री ई. श्रीधरन ने स्पष्ट किया है, व्यापक मध्यवर्ग (इस नयी सदी के शुरू में करीब 58 से 75 प्रतिशत तक) में या तो सार्वजनिक कर्मचारी आते हैं या अमीर किसान, जो खुद सरकारी सब्सीडियों पर निर्भर रहे हैं. इसलिए, पश्चिमी देशों में मध्यवर्ग जबकि उन सुधारों का समर्थन करता है जिनके तहत सब्सीडियों में कटौती की जाती है, भारत में ज़्यादातर मध्यवर्ग सरकार भरोसे ही है.
वास्तव में, पंजाब और हरियाणा में जो विरोध प्रदर्शन चल रहे हैं उनका नेतृत्व शुरू में अमीर किसान कर रहे थे, जिनके बारे में यह माना जाता है कि वे आर्थिक क्षेत्र में निजी अवसरों के विस्तार का समर्थन करते हैं. लेकिन वे न केवल न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) और मंडी वाली व्यवस्था के घोर समर्थक हैं बल्कि वे एमएसपी वाली व्यवस्था के विस्तार की भी मांग कर रहे हैं और इस तरह कृषि में सरकार की भूमिका को मजबूत करने के पक्षधर हैं. इस बीच, इस आंदोलन में बड़ी संख्या में आ जुड़े छोटे और सीमांत किसान खुद को कृषि के क्षेत्र में उतरने वाले बड़े खिलाड़ियों के भरोसे छोड़ दिए जाने की संभावना से कतई खुश नहीं हैं.
इसलिए, ग्रामीण क्षेत्र के लिए मध्यवर्ग-केन्द्रित राजनीति के चश्मे के इस्तेमाल ने साबित कर दिया है कि इसका वास्तविकता से कोई नाता नहीं है क्योंकि इसके तहत यह मान कर चला जा रहा है कि सरकारी नियंत्रणों को कम करने और ज्यादा आर्थिक आज़ादी देने का वादा किसानों के उद्यमी तबके का समर्थन दिलाएगा.
इससे हैरान नहीं होना चाहिए था. 2014 में ‘लोकनीति’ के एक सर्वे से जाहिर हुआ था कि कृषि में लगे केवल 16 प्रतिशत लोग ही सरकारी विज्ञप्तियों का विरोध करते हैं. ज्यादा व्यापक दृष्टि से देखें तो सभी लोगों में से 45 प्रतिशत लोग सरकारी विज्ञप्तियों का समर्थन करते थे जबकि 20 प्रतिशत लोग विरोध करते थे. ज्यादा महत्वाकांक्षी मतदाता ज्यादा सुधारवादी भी हों, यह जरूरी नहीं है, व्यवहार में तो नहीं ही हैं. वास्तव में, पारंपरिक मध्यवर्ग और नव-मध्यवर्ग जिस एक ‘सुधार’ के मामले में सरकार के पीछे मजबूती से खड़ा देखा गया वह था नोटबंदी, जो किसी आर्थिक सिद्धांत की बजाए लोकलुभावन नारे पर आधारित था.
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मोदी की चूक
कुछ टीकाकारों का कहना है कि अगर प्रधानमंत्री मोदी इस मामले में उसी तरह सख्त रुख अपनाएं जैसा मारग्रेट थैचर ने मजदूर संघों के लिए अपनाया था, तो वे और मजबूत होकर उभरेंगे. यह मुमकिन नहीं है क्योंकि भारत 1980 के दशक वाला ब्रिटेन नहीं है. भारतीय मध्यवर्ग अभी अपरिपक्व है और भावनात्मक रूप से एकजुट है लेकिन ब्रिटिश मध्यवर्ग भी अधिक एकजुट और साझा हितों से बंधा हुआ था. थैचर ने हुनरमंद कामगारों, मैनेजरों और जायदाद मालिकों के हितों का जिस तरह पोषण किया था और उनकी सोशल इंजीनियरिंग करके जो व्यापक मध्यवर्ग तैयार किया था वह उन अकुशल कामगारों के तबके से बिल्कुल अलग था, जो थैचर का विरोध कर रहा था. मोदी आज जिस चुनौती से रू-ब-रू हैं उसमें केवल वह पारंपरिक मध्यवर्ग उनके साथ खड़ा है, जो संख्याबल के लिहाज से अमहत्वपूर्ण है.
लेकिन यह तो साफ है कि मोदी अगर कदम पीछे खींचते हैं तो वे मजबूत मसीहा वाली अपनी उस छवि को कमजोर करेंगे, जो कि उनका मुख्य आकर्षण रहा है. अगर प्रदर्शनकारियों को बलपूर्वक हटाया गया तो यह और भी बुरा होगा और कहीं अधिक निंदनीय आख्यान की रचना कर देगा. न्यूनतम राजनीतिक नुकसान वाला कदम यही हो सकता है कि आंदोलनकारियों को थका दिया जाए और तब इज्ज़त बचाने की खातिर कोई समझौता किया जाए. जो भी हो, 2015 के बाद से लगता है कि यह पहला मौका है जब मोदी एक राजनीतिक परिदृश्य के गलत छोर पर खड़े दिख रहे हैं. और वहां वे इसलिए पहुंचे हैं कि वे अपने उसी जनाधार को समझने में चूक गए जिसने उन्हें अर्श पर बैठा दिया था.
(लेखक सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च, नई दिल्ली में शोधार्थी है. ये उनके निजी विचार है)
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Egostic aadmi kisi ka bhala nahi kar sakta chahe desh ho ya janta…or feku ne usmain ph.d kiya hua hai…Ghanchi or baniya desh ko loot khasot k nikal jayenge or pata bhi nahi chalega.
हकीकत ये है कि मोदी मध्यमवर्ग के बिल्कुल खिलाफ हैं । इन्होंने अपने पूर्ण शासन काल में मध्यमवर्ग का अहित ही किया है जो कुछ भी दिया है वोह दलित व मुस्लिम को, कारण मध्यमवर्ग का वोट प्रतिशत नगण्य है जिसकी इनको परवाह नहीं।दूसरी हकीकत ये है कि मध्यमवर्ग का भी देश की उन्नति में अच्छा खासा योगदान है जिसे भुलाया नहीं जा सकता