मेरा पिछला हफ्ता सिरसा में गुजरा और इस एक हफ्ते में मेरे आगे ये साफ हो गया है कि किसान आंदोलन अपने को फिर से खड़ा कर रहा है. जैसे, साल 2017 के जून में मध्य प्रदेश के मंदसौर में किसानों पर हुई गोलीबारी से आंदोलन एकबारगी जाग उठा था वैसे ही केंद्र सरकार के तीन अधिनियमों ने 2019 में अचानक ठंडे पड़ चुके किसान आंदोलन को फिर से जगा दिया है और आंदोलन अपने दूसरे चरण में प्रवेश कर गया है.
किसान संगठनों के ऐलान पर मैं वहां ‘पक्का-मोर्चा’ में भागीदारी के लिए गया था. लगभग 15-20 हजार किसान 6 अक्टूबर को सिरसा की रैली में जुटे. इन किसानों की मांग थी कि हरियाणा के उपमुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला और बिजली मंत्री रणजीत सिंह इस्तीफा दें.
संसद में 20 सितंबर को जो तीन कृषि-अधिनियम पारित हुए उसे लेकर रैली में आये किसान कह रहे थे कि उपमुख्यमंत्री और बिजली मंत्री के सामने अब दो ही रास्ते हैं, उन्हें तय करना होगा कि कुर्सी प्यारी है या फिर किसान. राजनीतिक रुप से यह बड़ी होशियारी का कदम था. दुष्यंत चौटाला और रणजीत सिंह दोनों ही चौधरी देवीलाल के कुनबे से हैं. पंजाब के बादल-परिवार से इनके नजदीकी रिश्ते हैं और बादल-परिवार की ही तरह चौधरी देवीलाल के परिवार की साख-धाक हरियाणा में इस बात को लेकर है कि वह सूबे की सियासत में किसानों का नुमाइंदा है. इस परिवार का पैतृक गांव ‘चौटाला’ सिरसा में है, हालांकि दुष्यंत चौटाला जिले के बाहर के निर्वाचन क्षेत्र से चुनाव लड़े और जीते. पारिवारिक ताकत के प्रतीक के रुप में पढ़ा जाने वाला 10 फीट के ग्रेनाइट वॉल के घेरे के भीतर बना महल ‘चौटाला हाउस’ भी शहर सिरसा में ही है.
जैसे ही रैली खत्म हुई, हजारों की तादाद में किसान चौटाला हाउस की ओर बढ़े. पुलिस बैरीकेड ने उन्हें रोका, फिर किसानों का ‘स्वागत’ वाटर कैनन और टीयर गैस (आंसू गैस) के गोलों से हुआ. लेकिन किसान मोर्चे पर डटे रहे, वे पीछे मुड़े और पक्का-मोर्चा नाम के अपने धरने पर बैठ गये. किसानों को धरने की जगह से जबरिया उठा दिया गया, उन्हें हिरासत में लिया गया. सो आक्रोश में किसानों ने अगली सुबह नेशनल हाइवे जाम कर दिया. सूबे की सरकार को झुकना पड़ा, उसके तेवर ढीले पड़े. हिरासत में लिये गये सभी किसान-कार्यकर्ताओं को बिना शर्त छोड़ना पड़ा, जाहिर है फिर इन पंक्तियों के लेखक को भी हिरासत से निजात मिली. इसके बाद से सिरसा में हफ्ते के सातो दिन और चौबीसों घंटे चलने वाला धरना जारी है, वक्त फसल की कटाई का है और मौसम भी अपने मिजाज से कोई खास मेहरबान नहीं लेकिन किसान धरने पर जमे हुए हैं. उन्हें कोविड-19 महामारी का भी खौफ नहीं. कोशिशें हुई कि किसान-आंदोलन को अपने खीसे में ले लिया जाये और जो ऐसा ना हो सके तो फिर आंदोलन को जुटे किसानों के बीच फूट डाल दी जाए लेकिन किसानों ने ऐसी कोशिशों को नाकाम कर दिया.
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पंजाब तक सीमित नहीं है प्रदर्शन
इस वाकये से निकलता एक संदेश तो यही है कि किसान-आंदोलन पंजाब तक सीमित नहीं, वह पंजाब से बाहर भी फैल रहा है. ठीक-ठीक कहें तो सिरसा पंजाब के बार्डर पर है और वहां इस संदेश को बड़े साफ ढंग से पढ़ा जा सकता है. ये बात अपनी जगह दुरुस्त है कि इस इलाके में आंदोलन का जोर पंजाबी-भाषी पट्टी में ज्यादा है, बागड़ी भाषी पट्टी में कम. लेकिन आंदोलन से लोगों के जुड़ाव और लोगों के बीच उसकी स्वीकृति के लक्षण इतने प्रकट हैं कि आप उसकी अनदेखी नहीं कर सकते. किसान अपने ट्रैक्टर और ट्रालियों के साथ धरना-स्थल पर पहुंच रहे हैं. साथ में होता है उनका बिछावन और रोजमर्रा की जरूरत की और चीजें. यह सारा कुछ किसान अपने खर्चे से कर रहे हैं. चंदा भी खुद ही जुटने लगा है. नन्हीं गुड़िया सी एक बच्ची ने अपना गुल्लक तोड़ डाला और पक्का-मोर्चा को 2800 रुपये दिये. किसान आंदोलन को पंजाबी कलाकारों का साथ मिला और अब इसी टेक पर हरियाणवीं गायक धरने के समर्थन में अपने मीठे सुर घोलने लगे हैं. और, एक लंबे अरसे के बाद ये भी दिखा कि किसान-आंदोलन में नौजवानों की तादाद अच्छी-खासी है. आंदोलन में शिरकत करने वाले ये नौजवान पढ़े-लिखे हैं. इनमें से कइयों के पास तो मास्टर्स (स्नातकोत्तर) या फिर इंजीनियरिंग की डिग्री है.
बहुत संभव है, ऐसा मंजर बाकी जगहों पर ना हो. लेकिन बीते 25 तारीख को भारत-बंद के दौरान ये दिखा जरूर कि इस आंदोलन में बड़ी संभावनाएं हैं. मीडिया में तो सिर्फ पंजाब और हरियाणा में हुए प्रदर्शनों की खबरें आयीं. लेकिन अखिल भारतीय किसान संघर्ष समन्वय समिति (एआईकेएससीसी) से जुड़े हम लोगों को सूचना मिली है कि 20 राज्यों में विरोध-प्रदर्शन हुए जिसमें तमिलनाडु भी शामिल है जहां 300 जगहों पर किसानों ने विरोध-प्रदर्शन में भाग लिया. कर्नाटक में किसानों ने सिर्फ 25 तारीख को ही नहीं बल्कि 28 तारीख को भी बंद रखा. इन राज्यों में हुए प्रदर्शन को पंजाब में हुए विरोध-प्रदर्शन के जोड़ का तो खैर नहीं कहा जा सकता लेकिन ये समर्थन चौतरफा है और किसी भी वक्त जोर पकड़ सकता है.
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किसान एकजुट हैं
दूसरी बात यह कि किसान संगठनों के बीच तीनों कृषि-अधिनियमों के विरोध को लेकर एका है. सिरसा में मैंने देखा कि समृद्ध किसानों के संगठन भी उसी भाषा और तेवर में बोल रहे हैं जिसमें वामपंथी या फिर विपक्षी पार्टियों से जुड़े किसान संगठन. जिन स्थानीय नेताओं ने पक्का-मोर्चा का विरोध किया था और किसानों से अपील की थी कि आप इस मोर्चे में शामिल ना हों, उन्हीं नेताओं ने पक्का-मोर्चा के मंच पर अपने भाषण की शुरुआत की तो उन्हें कहना पड़ा कि तीनों अधिनियमों का वे विरोध करते हैं. जाहिर है, देश में जो कुछ अभी चल रहा है उसकी एक झांकी आपको सिरसा के वाकये से मिल जायेगी. अभी तक मेरी नज़र में व्यापक जनाधार वाला एक भी किसान-संगठन ना आया जिसने इन तीन अधिनियमों के मसले पर केंद्र सरकार का समर्थन किया हो. एआईकेएससीसी तथा किसानों की जुटान के अन्य महामंच और साझे के संगठन जिसमें ऐसे भी संगठन शामिल हैं जिनके बीच आपस का अबोला है, सभी ने एक स्वर से इन कानूनों का विरोध किया है.
इस बात को विचारधारा के सान पर परखना हो तो क्या ही अच्छा होगा कि हम उदाहरण के तौर पर शेतकारी संगठन को लें क्योंकि शेतकारी संगठन के संस्थापक शरद जोशी ने कभी जो मांग की थी, ये कानून उसी तर्ज और तरह पर बने हैं. विचारधारा के लिहाज से शरद जोशी के कुछ अनुयायियों ने बेशक केंद्र सरकार के इन तीन कानूनों का समर्थन किया है लेकिन शरद जोशी के किसान-आंदोलन का असली वारिस राजू शेट्टी की अगुवाई वाला स्वाभिमानिनी शेतकारी संगठन ही है. इस संगठन का जनाधार व्यापक है और इस संगठन ने केंद्र सरकार के इन तीन कानूनों की प्रतियों का होलिका-दहन किया है. अगर राजनीतिक रुझान के हिसाब से देखें तो एक और नज़ीर भारतीय किसान यूनियन का लिया जा सकता है जो अभी महेन्द्र सिंह टिकैत के पुत्रों के नेतृत्व में चलता है और इनकी नज़दीकी बीजेपी से है. लेकिन, इस संगठन ने भी तीनों कानून का विरोध किया है. यहां तक कि आरएसएस से जुड़े भारतीय किसान संघ ने भी मसले पर सरकार के खिलाफ खुलकर मोर्चा खोल दिया है. मुझे नहीं लगता कि हाल-फिलहाल कोई और मुद्दा ऐसा रहा है जिसने तमाम रंगों-आब के किसान-संगठनों को इस तरह एकजुट कर दिया हो.
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मीडिया के मदद के बिना
सिरसा में मुझे तीसरा सबक मीडिया के बारे में मिला. बड़े मीडिया घरानों से जब किसानों के विरोध-प्रदर्शन की खबर को दबाते नहीं बना तो उन्होंने उसे कम करके दिखाने की जुगत लगायी. किसानों का विरोध-प्रदर्शन टेलीविजन के पर्दे पर बड़ी-बड़ी हेडलाइन बनकर नहीं उभरा और ना ही अखबारों के मुखपृष्ठ पर ही उसे जगह मिली लेकिन तब भी किसानों तक विरोध-प्रदर्शन की खबर की आमद रोकी ना जा सकी और यह हुआ सोशल मीडिया के मार्फत जो अभी खूब उफान पर है. लेकिन यहां मैं सिर्फ प्राइवेट व्हाट्सएप मैसेज और फेसबुक पोस्ट की बात नहीं कर रहा. सिर्फ सिरसा में ही कम से कम एक दर्जन चैनल यूट्यूब और फेसबुक प्लेटफार्म का इस्तेमाल करते हैं और लोगों तक इनकी पहुंच को एक साथ जोड़ दें तो जिसे हम नेशनल मीडिया कहते हैं, उसकी पहुंच से वह कहीं ज्यादा ही निकलेगी. इन चैनलों की आपसी होड़ चलती है कि कौन खबर तक पहले पहुंचता है, कौन खबर पर खुलकर बोलता और कौन नई-नई कथाएं लेकर आता है. ये ही चैनल सिरसा की रैली में जुटे नौजवान और स्मार्टफोनधारी किसानों के लिए समाचार के प्रमुख स्रोत बने. मिसाल के लिए, इन चैनलों में से एक ने मेरे भाषणों का लाइव प्रसारण किया और इस तर्ज पर प्रसारित मेरे एक भाषण को तो 13 लाख व्यूज मिले. इन सभी अखबारों का जिले में सर्कुलेशन एक साथ जोड़कर देखें तो लगभग 2 लाख है.
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हां..सरकार परेशान है
और, आखिर की एक बात यह कि सिरसा में मुझे लगा कि चाहे सरकार अपने को कितना भी पायेदार बताये लेकिन मसले पर उसके पांव डगमगा रहे थे. किसानों ने जब विरोध-प्रदर्शन का ऐलान किया तो दुष्यंत चौटाला ने कहा था कि मैं अपने घर में उनका स्वागत करुंगा लेकिन रैली से एक दिन पहले ही वे अचानक चंडीगढ़ निकल गये. रैली के दिन उन्होंने बताया कि जांच में उनकी रिपोर्ट कोरोना-पॉजिटिव आयी है भले ही रोग के लक्षण जाहिर नहीं है.
स्थानीय प्रशासन ने आंदोलन की धार कुंद करने और फूट डालने की जो कड़ी कवायद की वह भी गैर-मामूली ही कहा जायेगा. जिस डीएसपी ने हमें हिरासत में लिया उसे सीधे चंडीगढ़ से हर पल निर्देश मिल रहे थे. हरियाणा की सरकार ने अपने सभी मंत्रियों और विधायकों को प्रवाद (प्रोपेगैंडा) फैलाने की मुहिम पर लगा दिया था. वे किसानों को ये समझाने में लगे थे कि तीनों कानून बड़े गुणकारी हैं. ऐसे कई नेताओं का किसानों ने बहिष्कार किया, उन्हें काले झंडे दिखाये.
बीजेपी ने कानूनों के समर्थन में एक ट्रैक्टर रैली निकालने की कोशिश की लेकिन फिर इस कोशिश में उसे शर्मसार होना पड़ा. ये भेद खुल गया रैली में ‘किसान’ बनाकर जिन्हें लाया गया है दरअसल वे बिहार और बंगाल से मजदूर हैं और उन्हें रैली में पैसे देकर बुलाया गया है. और, ऐसा ही पूरे देश में हो रहा है: सरकार देखे-दिखार भी किसान कार्यकर्ताओं तक पहुंचने की कोशिश कर रही है और छिपे-छिपाये भी और पूछ रही है कि आप ही कोई रास्ता बताइए. लेकिन किसान संगठन ऐसे भी मेहरबान नहीं कि सरकार को निजात का रास्ता बतायें.
हरियाणा में फसल की कटाई का वक्त अब अपने आखिरी मुकाम पर है. इसके बाद रबी की फसल की बुवाई शुरू होगी. दिवाली तक उत्तर-पश्चिम भारत के किसानों के पास काम से मोहलत का कुछ वक्त होगा. परंपरागत रूप से यही किसानों के विरोध-प्रदर्शन का भी समय रहा है. सिरसा के अनुभव ने मुझे सिखाया है कि अबकी बार जाड़े में असंतोष उबाल लेने वाला है.
(योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं. व्यक्त विचार निजी है)
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