अगर अमेरिका के राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप की टैरिफ (व्यापार शुल्क) की धमकियां सिर्फ बातचीत का हथकंडा नहीं हैं, तो भारत की विदेश नीति एक गहरी खाई में जा चुकी है. यह 1998 के बाद का सबसे बड़ा संकट है, जब भारत ने परमाणु परीक्षण किए थे और उसे अंतरराष्ट्रीय अलगाव का सामना करना पड़ा था. बड़ा फर्क यह है कि 1998 के परीक्षणों से भारत की शक्ति बढ़ी थी, जबकि इस समय भारत की ताकत काफी कमजोर दिख रही है. अगर भारतीय अर्थव्यवस्था पिछले दस सालों में औसतन 8-9 प्रतिशत सालाना की दर से बढ़ी होती, न कि 6-6.5 प्रतिशत की दर से, और भारत ने सैन्य आधुनिकीकरण में भारी निवेश किया होता, तो अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में देश की ताकत कहीं अधिक होती. अब दबाव में नीतिगत प्राथमिकताओं का बड़ा पुनर्गठन करना पड़ सकता है.
सभी बड़ी विदेश नीतियों को तीन हिस्सों में समझा जा सकता है — कोर (मुख्य), सेमी-परिफेरी (अर्ध-परिधि) और परिफेरी (परिधि). यह विभाजन भौगोलिक नहीं है, बल्कि महत्व पर आधारित है. भारत की विदेश नीति का कोर कम से कम 2000 से अमेरिका, पाकिस्तान, चीन और रूस पर केंद्रित रहा है. सेमी-परिफेरी में यूरोप में ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी के साथ संबंध आते हैं. मध्य पूर्व में इज़रायल, सऊदी अरब, यूएई और ईरान. पाकिस्तान और चीन से परे भारत का पड़ोस. और कनाडा, ब्राज़ील, ऑस्ट्रेलिया, जापान और सिंगापुर. जगह की कमी की वजह से परिफेरी पर यहां बात नहीं की जा रही है.
अगर कोई बड़ा उलटफेर नहीं होता है, तो भारत की विदेश नीति का कोर लगभग टूटने की कगार पर है. इसे समझने के लिए हमें याद करना होगा कि भारत की विदेश नीति के मुख्य लक्ष्य खासकर पिछले ढाई दशकों में क्या रहे हैं. ऐसे चार लक्ष्य आसानी से पहचाने जा सकते हैं. भारत ने अमेरिका के साथ नजदीकी बढ़ाई. वह पाकिस्तान के साथ बराबरी की स्थिति लौटने से बचना चाहता था. वह चीन के साथ बराबरी चाहता था. और वह रूस के साथ अच्छे संबंध रखना चाहता था.
रूस के साथ संबंध अभी भी मजबूत हैं, हालांकि उन पर खतरा मंडरा रहा है. ट्रंप की टैरिफ पेनल्टी का बड़ा हिस्सा भारत की रूस से तेल आयात पर निर्भरता को कमजोर करने के लिए है. अगर धमकियों के कारण भारत कुछ और स्रोतों जैसे सऊदी अरब से तेल लेने लगे, तो भी रूस से हथियारों और रक्षा सामग्री पर निर्भरता जल्दी खत्म नहीं होगी. इस कारण भारत-रूस की नजदीकी बनी रहेगी। भारत का रूस के साथ रक्षा संबंध लंबे समय तक टिकाऊ है.
बाकी तीन कोर हिस्से — अमेरिका, पाकिस्तान और चीन से जुड़े — लगभग पूरी तरह गिरावट की ओर हैं.
पुराने दौर का साया
ट्रंप ने दो बड़े झटके दिए हैं. पहला, भारत के अमेरिकी निर्यात पर 50 प्रतिशत टैरिफ लगाने की धमकी देकर. इसमें सिर्फ इलेक्ट्रॉनिक्स जैसे स्मार्टफोन और दवाइयों को बाहर रखा गया है. इसका मतलब है कि भारतीय वस्तुओं पर लगभग व्यापार प्रतिबंध लगा दिया गया है (हालांकि सेवाओं पर नहीं). अमेरिका भारत के कुल निर्यात का लगभग पांचवां हिस्सा लेता है. भारत को दूसरे बाज़ार खोजने में समय लगेगा. तिरुप्पुर के कपड़े, सूरत के तराशे हुए हीरे, आंध्र प्रदेश की झींगे, नोएडा और चेन्नई की मशीनें, और पश्चिम व दक्षिण भारत के ऑटो पार्ट्स को अरबों डॉलर के नुकसान का खतरा है, कम से कम छोटे समय में.
दूसरा झटका पाकिस्तान के रास्ते से आया है. कम से कम 1999 से, अगर उससे पहले नहीं, अमेरिका लगातार पाकिस्तान के साथ अपने रिश्तों को कम करता रहा था और भारत को ज्यादा महत्व देता रहा था. यह कोल्ड वॉर के उस पैटर्न का उलट था जिसमें पहले पाकिस्तान और बाद में भारत को प्राथमिकता दी जाती थी. राष्ट्रपति क्लिंटन, बुश, ओबामा, बाइडेन और यहां तक कि ट्रंप ने भी अपने पहले कार्यकाल में भारत से दोस्ती बढ़ाने की कोशिश की. वॉशिंगटन में भारत के नीति-निर्माताओं का स्वागत द्विदलीय सहमति से होता रहा, क्योंकि डेमोक्रेट्स और रिपब्लिकन दोनों ही भारत को अपनाते रहे.
हाल ही के भारत-पाकिस्तान सैन्य संघर्ष ने एक गुणात्मक बदलाव ला दिया है, जिसमें पुराने दौर की परछाइयां गहरी होती दिख रही हैं. इसका सबसे बड़ा प्रतीक ट्रंप का पाकिस्तान सेना प्रमुख फील्ड मार्शल असीम मुनीर को व्हाइट हाउस में दोपहर भोज के लिए आमंत्रण देना है. विदेशी देशों के सैन्य प्रमुखों को व्हाइट हाउस में तभी बुलाया जाता है जब वे राष्ट्रप्रमुख भी हों, जैसे जनरल परवेज़ मुशर्रफ थे. पाकिस्तान के साथ क्रिप्टोकरेंसी और संभावित तेल भंडार की खोज (जो बलूचिस्तान में रेयर अर्थ खनन का प्रतीक भी हो सकती है) पर समझौते भी हुए हैं. निश्चित रूप से, पुरानी शैली का सैन्य गठबंधन गायब है. लेकिन यह ध्यान देने योग्य है कि अमेरिकी सेंट्रल कमांड के जाने वाले प्रमुख जनरल माइकल कुरिल्ला ने कहा कि पाकिस्तान आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में अमेरिका का सहयोगी है. भारतीय नजरिये से यह अजीब बयान है और उस दौर से बड़ा बदलाव है जब 2011 में ओसामा बिन लादेन को मार गिराया गया था, जो पाकिस्तान मिलिट्री अकादमी एबटाबाद से एक मील से भी कम दूरी पर रह रहा था. पाकिस्तान की ईरान में संभावित भूमिका भी विचाराधीन हो सकती है.
दूसरे शब्दों में, यह मोड़ रणनीतिक और आर्थिक तर्क से जुड़ा हो सकता है. लेकिन लगभग निश्चित है कि इसे भारत द्वारा पाकिस्तान के साथ सैन्य संघर्ष में युद्धविराम लाने में अमेरिका की भूमिका को न मानने से और तेज़ी मिली. भारत की कूटनीति ट्रंप की प्रसिद्ध श्रेय लेने की आदत का सही जवाब नहीं दे सकी. जब नीति बहुत व्यक्तिगत हो जाती है, तो अहंकार को शांत करने के लिए सही शब्द खोजना हमेशा एक कूटनीतिक चुनौती होता है. भारत के निर्णयकर्ताओं कोई ऐसा वाक्य नहीं गढ़ सके जो भारत की आत्मसम्मान की भावना और यथार्थवादी राजनीति (रियलपॉलिटिक) दोनों को एक साथ संतुष्ट कर सकें.
अब आइए चीन की ओर चलते हैं, जो भारत की विदेश नीति का आखिरी कोर हिस्सा है.
हम कहां खड़े हैं?
1990 में भारत और चीन का GDP लगभग बराबर था. लेकिन आज, प्रति वर्ष 9 प्रतिशत की तेज़ आर्थिक वृद्धि दर की वजह से चीन की अर्थव्यवस्था भारत से पांच गुना बड़ी हो गई है चीन की सैन्य ताकत भी काफी अधिक है. विपिन नारंग और प्रणय वड्डी ने अपने हालिया निबंध ‘हाउ टू सर्वाइव द न्यू न्यूक्लियर एज’ में लिखा है कि शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन एक “परमाणु महाशक्ति” बनने के लिए दृढ़ है। (फॉरेन अफेयर्स, जुलाई-अगस्त 2025) और “शी ने… सैकड़ों नए साइलो बनाने का फैसला किया है, जिनमें ज़मीन से लॉन्च होने वाले इंटर कंटिनेंटल बैलिस्टिक मिसाइल (ICBMs) होंगे, जिन्हें कुछ ही मिनटों में दागकर अमेरिका की ज़मीन को तबाह किया जा सकता है.” संक्षेप में, चीन की सैन्य ताकत अमेरिका के और करीब पहुंच रही है.
इसके विपरीत, चीन के साथ आर्थिक और सैन्य बराबरी की भारत की तलाश अधूरी रह गई है. बराबरी के करीब पहुंचने के लिए भारत की अर्थव्यवस्था को पिछले 10-15 वर्षों में प्रति वर्ष 8-9 प्रतिशत की दर से बढ़ना चाहिए था, जैसा कि इस सदी के पहले दशक में हुआ था. साथ ही सैन्य आधुनिकीकरण में बड़े निवेश की ज़रूरत थी. इनमें से कोई भी वांछित स्तर तक नहीं हो पाया.
इसी तरह, अमेरिका ने भारत को चीन के मुकाबले एक संतुलन के रूप में देखना शुरू किया था, खासकर 2012-13 के बाद जब चीन को अमेरिका का मुख्य प्रतिद्वंद्वी माना जाने लगा. यही तर्क वॉशिंगटन में भारत के पक्ष में द्विदलीय सहमति को चला रहा था, हालांकि अमेरिका में भारतवंशियों की बढ़ती क्षमता ने भी इसमें भूमिका निभाई. भारत को इस बदलाव से मूल्यवान फायदे मिले. रक्षा सहयोग बढ़ा और खास तौर पर, दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी कंपनी, एप्पल, ने भी चीन से भारत की ओर अपना रुख बदलना शुरू किया.
अब नए हालात में भारत चीन के साथ कैसा व्यवहार करेगा? पहले अमेरिका चाहता था कि भारत चीन को संतुलित करे. क्या अगर हालात और बिगड़े तो भारत चीन का सहारा लेकर अमेरिका को संतुलित करने की कोशिश करेगा? इस अधिक नज़दीकी की कीमत क्या होगी, जबकि पाकिस्तान को चीन का समर्थन पुराना है और भारत का चीन के साथ सीमा विवाद भी अनसुलझा है? भारत को चीन के सामने बहुत बड़ी शक्ति असमानता के साथ जाना होगा.
भारत के नीति-निर्माताओं और रणनीतिक विचारकों को इस खाई से निकलने का रास्ता ढूंढना होगा. कुंजी यही है कि आत्मसम्मान के नियमों और शक्ति की वास्तविकताओं के बीच संतुलन बनाने की कोशिश की जाए. आत्मसम्मान के बिना कोई भी गर्वीला राष्ट्र नहीं जी सकता. और शक्ति की सच्चाई को अनदेखा करना बेहद ख़तरनाक हो सकता है.
आशुतोष वार्ष्णेय इंटरनेशनल स्टडीज़ और सोशल साइंसेज़ के सोल गोल्डमैन प्रोफेसर और ब्राउन यूनिवर्सिटी में पॉलिटिकल साइंस के प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.
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