सामाजिक-शैक्षणिक तौर पर पिछड़े तबके तथा आर्थिक लिहाज से कमजोर सामान्य वर्ग के छात्रों के लिए मोदी सरकार ने मेडिकल पाठ्यक्रम के दाखिले में आरक्षण का रास्ता खोल दिया है. 2016 में जबसे राष्ट्रीय पात्रता सह प्रवेश परीक्षा स्नातक एवं परास्नातक (NEET- UG & PG) के तहत दाखिला शुरू हुआ है, OBC के लिए आरक्षण लागू नहीं था. मोदी सरकार के इस निर्णय से NEET-UG एवं NEET- PG के तहत ऑल इंडिया कोटे में ओबीसी अभ्यर्थियों को 27% तथा आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) को 10% आरक्षण मिलना संभव होगा.
मोदी सरकार के इस निर्णय को एक धड़ा विपक्ष के दबाव में लिया गया फैसला बता रहा है. इसमें राजनीतिक दल और बुद्धिजीवी दोनों शामिल हैं. इस निर्णय का श्रेय लेने वालों में राजनीतिक दल बढ़चढ़कर हैं. ऐसे में यह समझना जरूरी है कि श्रेय लेने की होड़ में लगे भाजपा विरोधी दलों के दावे में कितना दम है. इसकी पड़ताल करने के लिए मोदी सरकार द्वारा लिए गये हाल के निर्णय को नहीं बल्कि इतिहास की पुरानी कड़ियों के सन्दर्भ में भी इस विषय को समझने की जरूरत है.
नेहरू ने नहीं लागू की काका कालेलकर की रिपोर्ट
संविधान के अनुच्छेद-340 के अंतर्गत सामाजिक-शैक्षणिक रूप से पिछड़ा वर्ग को लेकर कुछ प्रावधान रखे गए थे और इसी के अंतर्गत एक आयोग का प्रस्ताव भी था. अत: वर्ष 1953 में काका कालेलकर कमीशन का गठन किया गया. जब इस कमिशन का गठन किया गया तब देश में नेहरू की सरकार चल रही थी. काका कालेकर आयोग ने 1955 में अपनी रिपोर्ट सौंपी जो कांग्रेस की तत्कालीन नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने लागू नहीं की. अब देखना जरूरी है कि उस समय भारतीय जनसंघ, जो भाजपा का बुनियादी संगठन था, के विचार क्या थे?
21 अक्तूबर 1951 को दिल्ली में हुए पहले राष्ट्रीय अधिवेशन में भारतीय जनसंघ ने जो घोषणापत्र देश के सामने रखते हुए लिखा है, ‘जनसंघ का सिद्धांत होगा- सबके लिए समान अवसर तथा पिछड़े हुए लोगों को आर्थिक और शैक्षणिक प्रगति के लिए विशेष सहायता उपलब्ध कराना.’ 1954 तथा 1957 के घोषणा पत्रों में पिछड़े वर्ग तथा अनुसूचित जातियों के लिए ‘समान अवसर’ की बात को जनसंघ ने दोहराया है.
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एससी-एसटी की नियुक्तियों का सवाल जनसंघ उठाता रहा है
गौर करना होगा कि कांग्रेस की अनदेखी की वजह से सामाजिक-शैक्षणिक रूप से पिछड़ा वर्ग के लिए विशेष अवसर के प्रावधान लंबे समय तक लागू नहीं थे, लेकिन अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के लिए 22.5 फीसद आरक्षण संविधान सम्मत व्यवस्था से हासिल था. भारतीय जनसंघ इसके लागू होने की खामियों को लगातार अपने एजेंडे में उठाता रहा. सितंबर 1968 में इंदौर में हुई जनसंघ की प्रतिनिधि सभा में पारित प्रस्ताव में कहा गया है कि ‘सरकारी सेवाओं अनुसूचित जातियों तथा जनजातियों के लिए जितने स्थान सुरक्षित किये गये हैं, अभी तक उन पर ईमानदारी से नियुक्तियां नहीं की जा रही हैं.’
इंदिरा गांधी ने भी पिछड़े वर्ग के लिए कुछ नहीं सोचा
खैर, नेहरू का दौर 60 के पूर्वार्ध में समाप्त हो गया और फिर इंदिरा गांधी का दौर आया. वर्ष 1966 से लेकर 1977 तक इंदिरा गांधी लगातार देश की सत्ता पर रहीं. अपने लंबे कार्यकाल में इंदिरा गांधी ने भी पिछड़ा वर्ग को लेकर कुछ ख़ास करने की नहीं सोचीं. शायद कांग्रेस, खासकर नेहरू-इंदिरा परिवार, इसे मुख्यधारा का विषय मानने को ही तैयार नहीं थे. आपातकाल में हुए चुनाव में जब जनता पार्टी की सरकार आई तो उसने दिसंबर 1978-79 में सामाजिक-शैक्षणिक रूप से पिछड़े लोगों के लिए मंडल कमीशन गठित किया. जानना जरूरी है कि इस सरकार में जनसंघ, जो आज भाजपा है, के नेता प्रमुख रूप से हिस्सेदार थे. चूंकि सरकार में हिस्सेदार थे तो मंडल कमीशन गठित होने के श्रेय में भी उनकी उतनी ही हिस्सेदारी बनती है. क्या यह प्रश्न कांग्रेस से नहीं पूछा जाना चाहिए कि कांग्रेस ने तब क्या किया था?
खैर, मंडल कमीशन की रिपोर्ट तो 1980 में आ गई, लेकिन मंडल कमीशन बनाने वाली जनता पार्टी सरकार गिर गयी थी. इंदिरा गांधी एक बार फिर सत्ता में वापसी कर चुकी थीं. अपने पिछड़ा विरोधी पुराने रुख पर चलते हुए इंदिरा गांधी की कांग्रेस सरकार ने एक बार फिर काका कालेलकर रिपोर्ट की तरह मंडल कमीशन की रिपोर्ट को भी ठंडे बस्ते में डाल दिया. 1980 से 1984 तक इंदिरा सत्ता में रहीं. 1984 में हुई इंदिरा गांधी की हत्या के बाद उनके बेटे राजीव गांधी सत्ता में आये. वे 1989 तक पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में रहे. क्या कांग्रेस को नहीं बताना चाहिए कि इन 10 वर्षों में मंडल कमीशन की रिपोर्ट पर उसने क्यों कुछ नहीं किया?
मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करने वाले वीपी सिंह सरकार की सहयोगी थी भाजपा
1989 में कांग्रेस की हार के बाद वीपी सिंह प्रधानमंत्री बने और उनकी सरकार, जिसमें भाजपा एक बड़ी सहयोगी की भूमिका में थी, ने मंडल कमीशन की सिफारिशों को लागू करते हुए सामाजिक-शैक्षणिक रूप से पिछड़ा वर्ग को 27%
आरक्षण देने का रास्ता साफ़ किया.
यह महज संयोग तो नहीं है कि जब मंडल कमीशन गठित हुआ तब भी कांग्रेस की सरकार नहीं थी और वीपी सिंह द्वारा इसे जब लागू किया गया तब भी इस देश में कांग्रेस की सरकार नहीं थी. यह भी संयोग भर नहीं है कि जब मंडल कमीशन का गठन हुआ तब भी भाजपा (जनसंघ) उस सरकार में शामिल रही, और जब मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू हुई तब भी भाजपा सरकार में शामिल रही.
भाजपा पर ‘आरक्षण विरोधी’ होने का आरोप लगाने वाले कई बार बारीक पहलुओं की अनदेखी कर देते हैं. मंडल कमीशन की रिपोर्ट की सिफारिशों को लागू होने से पहले 1987 में ही भाजपा ने मंत्रालयों तथा विभागों संविधान में निहित आरक्षण को ठीक से लागू नहीं होने का विषय उठाया था.
भाजपा ने नहीं किया मंडल कमीशन रिपोर्ट का विरोध
ऐसी धारणा बनाने की कोशिश होती है कि भाजपा ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट का विरोध किया था. कोई भ्रम न रहे इसलिए तथ्यों को जान लेना जरूरी है. 7 अगस्त 1990 को जब मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू हुई तब भाजपा वीपी सिंह सरकार में भागीदार थी. मंडल कमीशन की रिपोर्ट किन राजनीतिक घटनाक्रमों में वीपी सिंह ने लागू की थी, यह जगजाहिर है. इस रिपोर्ट के लागू होने के दो दिन बाद देवीलाल ने सरकार से इस्तीफ़ा दे दिया था. यह सच है कि इसे लागू करना वीपी सिंह का यह एक विशुद्ध राजनीतिक कदम था. साथ ही यह भी सच है कि यह एक साहसिक
कदम भी था.
भाजपा ने मंडल कमीशन की सिफारिशों को स्वीकार करते हुए इस बात से असहमति जताई थी कि सरकार ने उनसे चर्चा नहीं की. सरकार का भागीदारी होने के नाते भाजपा की यह अपेक्षा गलत भी नहीं कही जा सकती. इसको लागू करने के समय को लेकर भी जनता दल सरकार में कुछ अन्य दलों को भी आपत्ति थी. गौर करना होगा कि 1996 के अपने चुनाव घोषणापत्र में भाजपा ने दोहराया है कि ‘भाजपा आरक्षण के माध्यम से सामाजिक तथा शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों- दोनों को ही सामाजिक और आर्थिक न्याय दिलाने के प्रति वचनबद्ध है.’ स्पष्ट होता है कि भाजपा को मंडल की रिपोर्ट लागू होने से नहीं बल्कि उसकी निर्णय प्रक्रिया से आपत्ति थी.
एक भ्रम यह पैदा किया जाता है कि मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के विरोध में भाजपा ने वीपी सिंह सरकार से समर्थन लिया था. यह इसलिए गलत है क्योंकि मंडल कमीशन की रिपोर्ट अगस्त 1990 के शुरुआती सप्ताह में लागू हुई जबकि भाजपा ने अडवाणी की गिरफ्तारी के विरोध में नवंबर 1990 में वीपी सरकार से समर्थन वापस लिया.
मोदी सरकार ने दिया पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा
इतिहास के आईने में जब पिछड़ा वर्ग को लेकर कांग्रेस का रुख और कांग्रेस नीत सरकारों की नीतियों पर नजर डालते हैं, तो मंशा पर संदेह और पुख्ता होता है. अगर देखा जाए तो सामजिक एवं शैक्षिक रूप से पिछड़ा वर्ग को संवैधानिक आयोग का दर्जा देने की मांग लंबे समय से थी और 1993 के राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के वैधानिक निकाय के रूप में गठित होने के बाद इसको संवैधानिक आयोग का दर्जा देने की मांग चलती रही. राजनीति में सत्ता पक्ष से मांग करना, वादा करना और चुनावी आरोप-प्रत्यारोप करना एक पक्ष है, जबकि दूसरा पक्ष यह है कि जब आपके पास अवसर था अर्थात सत्ता थी तब आपने क्या किया था?
2018 में भाजपा नीत केंद्र सरकार ने नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने का काम किया. उस दौरान भी कांग्रेस ने कई अड़चने पैदा की थीं.
मेडिकल की पढ़ाई में आरक्षण पर देरी की वजह समझें
मोदी सरकार द्वारा NEET-UG एवं NEET-PG के तहत ऑल इंडिया कोटे में ओबीसी अभ्यर्थियों को 27% तथा आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (EWS) को 10% आरक्षण लागू होने के बाद फिर श्रेय लेने की होड़ में समाजवादी पार्टी, राष्ट्रीय
जनता दल तथा इन दलों से सहानुभूति रखने वाले कुछ बुद्धिजीवी आगे आये हैं. कुछ लोग यह भी कहते देखे जा सकते हैं कि इस निर्णय में इतनी दे क्यों हुई? इन सवालों को भी समझना होगा.
1986 में सर्वोच्च न्यायलय के निर्देशों के तहत ‘ऑल इंडिया कोटा’ स्कीम मेडिकल कॉलेजों में पढ़ाई के लिए लागू हुई. 2007 तक इसमें कोई आरक्षण प्रावधान लागू नहीं था. 2007 में अभय नाथ बनाम दिल्ली विश्वविद्यालय मामले में सर्वोच्च न्यायलय ने अनुसूचित जाति तथा जनजाति के लिए इसके तहत 22.5 फीसद आरक्षण लागू करने का निर्देश किया. 2007 में ही केंद्रीय शैक्षणिक संस्थान (प्रवेश में आरक्षण) अधिनियम के प्रभाव में आने के बावजूद तत्कालीन यूपीए सरकार द्वारा राज्यों के मेडिकल कॉलेजों में इसके तहत पिछड़ा वर्ग को आरक्षण देने के प्रावधानों को लागू नहीं की. यह बताने की जरूरत नहीं है कि आज जब मोदी सरकार ने इसे लागू किया है तो श्रेय लेने के लिए आगे आ रहे आरजेडी जैसे दल तब यूपीए की सत्ता में हिस्सेदार थे. तेजस्वी यादव के पिता लालू प्रसाद यूपीए सरकार में केंद्रीय मंत्री थे.
ऐसे में सवाल ये नहीं है कि मोदी सरकार ने इसे इतने दिन बाद क्यों लागू किया. सवाल तो यह होना चाहिए कि जब 2007 में अधिनियम आ गया था तब सामाजिक न्याय का झंडा उठाने वाले आरजेडी जैसे दल इस मुद्दे पर मौन क्यों थे?
(लेखक भाजपा के थिंकटैंक एसपीएमआरएफ में फेलो हैं. लेख में व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)
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