scorecardresearch
Friday, 29 March, 2024
होममत-विमतरद्द हो चुके कानून के बाद भी फेसबुक पोस्ट के आधार पर चल रहा है देशद्रोह का केस

रद्द हो चुके कानून के बाद भी फेसबुक पोस्ट के आधार पर चल रहा है देशद्रोह का केस

आईटी एक्ट की खत्म हो चुकी धारा 66 ए के आधार पर देशद्रोह के मामले चलाए जा रहे हैं. क्या ऐसे लोगों को सुप्रीम कोर्ट के ताजा आदेश के बाद न्याय मिल पाएगा?

Text Size:

सर्वोच्च न्यायालय ने पिछले सोमवार यानी 7 जनवरी को कहा है कि ‘स्क्रैप्ड यानी रद्द किए जा चुके आईटी लॉ 66 ए’ के आधार पर यदि गिरफ्तारियां हुई हैं, तो संबद्ध अधिकारियों को जेल जाना होगा. यह बात कोर्ट ने पीयूसीएल की एक याचिका पर सुनवाई करते हुए कही. दरअसल, याचिकाकर्ताओं ने कोर्ट को यह जानकारी दी थी कि आईटी की जिस धारा 66 ए को सर्वोच्च न्यायालय ने 2015 में ही रद्द कर दिया था, आईटी की उस धारा का इस्तेमाल करते हुए कम से 22 लोगों को अब तक गिरफ्तार किया गया है.

याचिकाकर्ताओं के वकील की इस बात को सुन कर कोर्ट ने आश्चर्य व्यक्त करते हुए उपरोक्त बात कही. कोर्ट को यह भी बताया गया कि विभिन्न उच्च न्यायालयों में इस धारा के तहत दायर मुकदमों को क्वैस/रद्द करने के लिए दायर मुकदमों पर कार्रवाई नहीं हो रही है और मामला लंबित है.

विडंबना यह कि इस लेखक सहित झारखंड के बीस लोगों पर पिछले वर्ष 27 जून को आईटी की इसी धारा 66 ए के तहत देशद्रोह का मामला झारखंड के खूंटी जिला प्रशासन ने दर्ज किया है. उनके नाम हैं- बोलेसा बबीता कच्छप, सुकुमार सोरेन, बिरास नाग, थॉमस रुन्डा, वाल्टर कंडुलना, घनश्याम बिरुली, धरम किशोर कुल्लू, सामू टुडू, गुलशन टुडू, मुक्ति तिर्की, राकेश रौशन किरो, अजय कंडुलना, अनुपम सुमित केरकेट्टा, अजुग्या बिरुआ, स्टेन स्वामी, जे विकास कोड़ा, विनोद केरकेट्टा, आलोका कुजूर, विनोद कुमार और थियोडर किड़ो.

वैसे, इन बीसों लोगों पर खूंटी थाना में जो एफआईआर दर्ज किया गया है उसमें आईटी एक्ट की धारा 66 ए/66 एफ के अलावा आईपीसी की धारा 121/121 ए/124 ए भी लगाई गयी है, लेकिन एफआईआर में जो ब्योरा दर्ज किया गया है, उसमें मुख्य रूप से कहा यह गया है कि इन लोगों ने सोशल मीडिया और अपने फेसबुक पर लिख कर लोगों को गुमराह किया और शांति व्यवस्था और सांप्रदायिक सौहार्द को बिगाड़ने का काम किया. एफआईआर में प्रमाण स्वरूप अभियुक्तों के फेसबुक एकाउंट के स्क्रीनशॉट भी संलग्न किये गये है.

दरअसल, आईपीसी की अन्य धाराओं के इस्तेमाल के लिए प्रशासन ने पूरे मामले को खूंटी में हुई 26 जून की एक घटना से जोड़ा, जिसमें पत्थलगड़ी आंदोलनकारियों ने भाजपा सांसद कड़िया मुंडा के चार सुरक्षा गार्डो को अगवा कर लिया था और जिन्हें अगले दिन छोड़ भी दिया गया था. एफआईआर में आरोप यह लगाया गया है कि इन अभियुक्तों ने फेसबुक और सोशल मीडिया पर लिख कर भ्रामक बातें फैलाई, संविधान की गलत व्याख्या की, लोगों को राजसत्ता के खिलाफ युद्ध करने के लिए प्रेरित किया.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

लेकिन अपने इन आरोपों के लिए सबूत के रूप में अभियुक्तों के फेसबुक एकाउंट के जो स्क्रीनशॉट आरोप पत्र के साथ संलग्न किये, उनसे कुछ भी साबित नहीं होता. साबित सिर्फ यह होता है कि पुलिस ने आईटी एक्ट की एक खत्म हो चुकी धारा 66 ए का इस्तेमाल कर निर्दोष लोगों पर देशद्रोह जैसे गंभीर आरोप लगाये. जिन बीस लोगों पर देशद्रोह का आरोप लगाया गया, उनमें से अधिकतर एक दूसरे से परिचित नहीं. कुछ समाजकर्मी और बुद्धिजीवी है, कुछ बैंक कर्मी या अन्य नौकरीपेशा लोग. वे न तो किसी एक संगठन से जुड़े हैं, न किसी एक जगह के रहने वाले हैं. मुक्ति तिर्की दिल्ली में रहते हैं और दलित आदिवासी दुनिया पत्रिका निकालते हैं. स्टेन स्वामी आदिवासी समाज के बीच सक्रिय एक सोशल एक्टिविस्ट हैं. आलोका कुजूर वामपंथी रुझान की एक सोशल एक्टिविस्ट और कवयित्री है. मैं खुद जेपी आंदोलन से निकला पत्रकार व लेखक हूं. वाल्टर कंडुलना अवकाशप्राप्त बैंककर्मी हैं. थियोडर किड़ो कांग्रेस के पूर्व विधायक हैं.


यह भी पढ़ें : झारखंड में महागठबंधन का केंद्र बनने की कोशिश न करे कांग्रेस


यदि इन सबमें कुछ सामान्य है, वह यह कि ये सभी आदिवासी और आदिवासी आंदोलन के समर्थक हैं. पत्थलगड़ी आंदोलन क्या है, इस पर विस्तार से यहां लिखने का अवसर नहीं, संक्षेप में यह आदिवासियों द्वारा अपने जल, जंगल, जमीन को बचाने के लिए चलाया गया एक आंदोलन है. भाजपा की एनडीए सरकार किस तरह आदिवासी जमीन को हड़प कर कारपोरेट को देने के लिए बेताब है, इसका नजारा कुछ आकड़ों से देखा जा सकता है.

सूत्रों के अनुसार झारखंड में 21 लाख हेक्टेयर सामुदायिक जमीन, सरना स्थल और वनभूमि की जमीन को लैंड बैंक में डाला गया है. औद्योगिक नीति 2016 के अनुसार कोडरमा से रांची होते हुए बहड़ागोरा तक फोरलेन सड़क के दोनों ओर 25-25 किमी, यानी 341 वर्ग किमी के 421799 एकड़ जमीन पर औद्योगिक गलियारा बनाने की योजना है. इसी तरह वाइल्ड लाईफ कोरिडार, सब-कारिडोर, यानी, जिधर देखो उधर आदिवासियों को उजाड़ने की तैयारी. गोड्डा में अडानी के पावर प्लांट के लिए आदिवासियों की खेतिहर जमीन को रौंद दिया गया. अभी- अभी मोदी ने पलामू में मंडल बांध को फिर से चालू करने की येाजना का उद्घाटन किया जिससे कम से कम साढ़े तीन लाख वृक्ष कटने वाले हैं.

खूंटी में ही मूल विवाद इसी बात का है कि उसके आस पास के कुछ इलाकों में सोने के खान मिले हैं जिसका खनन होना है. रांची के विस्तार के लिए इस इलाके में जमीन चाहिए. सरकार का कहना है कि वह इस इलाके का ‘विकास’ करके मानेगी और जो विरोध करेंगे उसे देशद्रोही करार दिया जायेगा.

आईये, हम यहां पर उन कुछ स्क्रीनशॉट पर ही नजर डाल लेते हैं जिन्हें देशद्रोह के आरोप का आधार बनाया गया. एफआईआर में संलग्न मेरे स्क्रीनशॉट में कहा गया है – ‘वे कहते हैं, मुझे तुम्हारा आधार कार्ड नहीं चाहिए, मेरी पहचान पत्थरगड़ी है.’

स्टेन स्वामी ने एक कटिंग शेयर की थी जिसमें बिशप का एक वक्तव्य दर्ज है – ‘कैथोलिक चर्च यह मांग करता है कि सरना आदिवासियों को सरना धर्म कोड दिया जाये.’

राकेश रौशन किड़ो का पोस्ट है – ‘खूंटी में आदिवासी की जान लेकर सरकार ने संविधान के अनुच्छेद 21 की सही व्याख्या कर दी.’

आलोका कुजूर का पोस्ट है – ‘खूंटी की जूलियानी तिडू खतरे में है. ऐसा सूचना मिली है.’

इस आरोप पत्र में इतनी ईमानदारी तो बरती गई कि किसी अभियुक्त को घटना स्थल पर घटना के दिन उपस्थित रहने या भाषण देते नहीं दिखाया गया. बस यह कहा गया कि उन्होंने फेसबुक या सोसल मीडिया पर लिख कर लोगों को भड़काया और स्क्रीनशॉट साक्ष्य के रूप में पेश किये गये.

देशद्रोह के इन बीस अभियुक्तों में से कुछ तो सामने नहीं आये, लेकिन अधिकतर लोगों ने लोकतांत्रिक तरीके से अपना विरोध दर्ज किया और इस मामले के विरोध में आयोजित धरना, प्रदर्शनों में हिस्सा लिया. इसके अलावा इस मामले के क्वैसिंग के लिए रांची उच्च न्यायालय में आवेदन भी दर्ज किया गया जिसकी सुनवाई लगातार खिंचती जा रही है. सरकारी पक्ष अब तक चार्जशीट दायर नहीं कर सका है और किसी न किसी बहाने अगली तारीख ले लेता है. अभियुक्तों को अदालत ने किसी तरह की सुरक्षा अभी तक प्रदान नहीं की है और सरकार का लक्ष्य शायद यह कि गिरफ्तारी की तलवार हर वक्त उन पर लटकी रहे है और उनके इस हालत से दूसरे भी आतंकित होकर सरकार की गलत कुकृत्यों के खिलाफ मुंह न खोलें.

सर्वोच्च न्यायालय के ताजा दिशा निर्देश व तीखी प्रतिक्रिया का इन मामलों पर विभिन्न उच्च न्यायालयों में लंबित क्वैशिंग के आवेदनों पर क्या कुछ असर पड़ेगा? पता नहीं.

(लेखक जयप्रकाश आंदोलन से जुड़े रहे हैं. समर शेष है उनका चर्चित उपन्यास है.)

share & View comments