scorecardresearch
Thursday, 21 November, 2024
होममत-विमतEWS फैसले से जातिगत आरक्षण में मौलिक बदलाव, आने वाले वक्त में 'सकारात्मक कार्यवाही' को देगा नई शक्ल

EWS फैसले से जातिगत आरक्षण में मौलिक बदलाव, आने वाले वक्त में ‘सकारात्मक कार्यवाही’ को देगा नई शक्ल

एसएफएफए और ईडब्ल्यूएस के सन्दर्भ में पेश किये गए सवाल भिन्न संवैधानिक और कानूनी रूप बाले हैं, लेकिन एक तरह से समान राजनीतिक चिंताओं पर आधारित हैं.

Text Size:

भारत और अमेरिका ने पिछले सात दशकों में बड़े और जटिल अफ्फर्मटिव एक्शन (सकारात्मक कार्यवाही) के कार्यक्रमों को लागू किया है, मगर शायद ही कभी ये कार्यक्रम एक दूसरे की उपस्थिति को स्वीकार करते हैं या उनका हवाला देते हैं. एक विचित्र संयोग के तहत भारतीय और अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट दोनों ही वर्तमान में जाति और नस्ल के प्रति जागरूक सकारात्मक कार्यवाही के साथ उपजे राजनीतिक और सामाजिक असंतोष से प्रेरित मामलों का फैसला कर रहे हैं. निश्चित रूप से इनके द्वारा दिए गए फैसले सकारात्मक कार्यवाही की नीति को फिर से आकार देंगे और संभावित रूप से उनकी आशिंक रूप से वापसी (रोल बैक) का कारण भी बन सकते है. इसी वजह से इन पर और नजदीकी के साथ सार्वजानिक रूप से गौर करने की आवश्यकता है.

7 नवंबर को, भारत के सर्वोच्च न्यायालय के पांच न्यायाधीशों की पीठ ने आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग (एकनॉमिकली वीकर सेक्शन-ईडब्ल्यूएस) के लिए आरक्षण के मामले में एक विभाजित फैसला सुनाया. पीठ के तीन-न्यायाधीशों के बहुमत ने अदालत के समक्ष प्रस्तुत तीन परस्पर जुड़े मुद्दों पर केंद्र सरकार के साथ अपनी सहमति व्यक्त की.

ईडब्ल्यूएस वाला मामला एक काफी पुराने हो चुके तर्क को झाड़-पोंछकर नए कानूनी रूप में अदालत के सामने प्रस्तुत करता है. साल 1950 में ही भारत के सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष आरक्षण संबंधी पहला मामला चंपकम दोरैराजन मामले के रूप में आया जिसमें याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया था कि ‘पिछड़े वर्गों’ की पहचान आर्थिक वर्ग-घरेलू आय या संपत्ति – का उपयोग करके की जानी चाहिए, न कि जाति की पहचान से. अदालत ने इस तर्क को खारिज कर दिया और सरकार को (आरक्षण के लिए) जातीय पहचान का उपयोग करने की अनुमति दी, बशर्ते पिछड़ी जातियों की पहचान अन्य प्रासंगिक सामाजिक मानदंडों का उपयोग करके की गई हो.

साल 1993 के इंद्रा साहनी मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर से इस बात की पुष्टि की कि आरक्षण के लाभार्थियों के रूप में ‘अन्य पिछड़ा वर्ग’ की जाति-आधारित पहचान संवैधानिक रूप से मान्य है. इसलिए, अमेरिका के विपरीत, भारतीय संवैधानिक कानून में जाति-आधारित सकारात्मक कार्यवाही की नीति को समाप्त करने वाले ‘समानता सिद्धांत’ के लिए कोई जगह नहीं है.

हालांकि, आर्थिक वर्ग-आधारित आरक्षण की सुसुप्त राजनीतिक मांग पिछले सात दशकों से कायम रही है. इस तरह के आर्थिक वर्ग-आधारित आरक्षण को लागू करने के लिए पिछली विधायी और कार्यकारी रणनीतियों के न्यायिक बाधाओं से प्रभावित होने के बाद केंद्र सरकार ने संविधान (103वां संशोधन) अधिनियम, 2019 को ‘आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों’, जिसे ‘पारिवारिक आय और आर्थिक नुकसान के अन्य संकेतक के साथ पहचाना गया है, के लिए आरक्षण की एक नई श्रेणी के साथ पेश किया. चूंकि किसी संवैधानिक संशोधन को केवल इसी आधार पर चुनौती दी जा सकती है कि यह संविधान की मूल संरचना सिद्धांत को नुकसान पहुंचाता है या उसे नष्ट कर रहा है, अतः ईडब्ल्यूएस वाले मामले में दी गयी चुनौती भी इसी बिंदु पर केंद्रित है.

ऐतिहासिक रूप से भारत में आरक्षण की व्यवस्था ने किसी समूह को हुए नुकसान पर ध्यान केंद्रित किया है. मगर, ईडब्ल्यूएस के तहत आरक्षण स्पष्ट रूप से ‘व्यक्तिगत आर्थिक स्थिति’ पर जोर देता है, जो किसी भी तरह से सामाजिक समूह’ की पहचान से जुड़ा नहीं है. इस संशोधन के तहत अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या अन्य पिछड़ा वर्ग के आरक्षण कार्यक्रमों में शामिल समूहों को बिना किसी स्पष्टीकरण के ईडब्ल्यूएस श्रेणी के आरक्षण से बाहर रखा गया है. इस तरह के ‘बहिष्करण’ ने ईडब्ल्यूएस आरक्षण के लिए ‘व्यक्ति केंद्रित आर्थिक वर्ग’ मूल्यांकन के आधार को छीन लिया और इसे अगड़े वर्ग के आरक्षण कार्यक्रम में बदल दिया.

ऐतिहासिक रूप से, आरक्षण से जुड़े कार्यक्रमों का राजनीतिक औचित्य ऐतिहासिक भेदभाव से उत्पन्न सामाजिक और आर्थिक नुकसान को दूर करने के लिए बैकवर्ड-लुकिंग ((पीछे की ओर मुड़ कर देखने वाले) ‘सीमित उपाय’ के रूप में ठहराया गया है. ईडब्ल्यूएस आरक्षण सकारात्मक कार्यवाही को फॉरवर्ड लुकिंग (दूरंदेशी वाले) सामान्य गरीबी-विरोधी और सामाजिक गतिशीलता उपाय के रूप में नई भूमिका प्रदान करता है. इस मामले में ‘मूल संरचना सिद्धांत’ को दी गयी किसी चुनौती पर फैसला करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय को यह विचार करने की आवश्यकता होगी कि क्या आरक्षण के लिए बैकवर्ड लुकिंग और फॉरवर्ड लुकिंग दोनों ही तरह के औचित्य भारत में संवैधानिक रूप से मान्य हैं.

पीठ के बहुसंख्यक मत के अनुसार उसे इस तरह के ‘बहिष्करण’ के साथ कोई संवैधानिक दुर्बलता नहीं दिखी, जबकि इसके अल्पसंख्यक विचार ने पाया कि यह संविधान के मूल ढांचे को नुकसान पहुंचाता है.

अदालत में दिए गई तर्कों के दौरान केंद्र सरकार ने ईडब्ल्यूएस श्रेणी को आवेदकों की सामान्य श्रेणी में से ही निकाले गए एक हिस्से (कार्व आउट) के रूप में प्रस्तुत किया. हालांकि, व्यक्तिगत नुकसान के इंटेरसेक्शनल व्यू (अंतरानुभागीय दृष्टिकोण) के तर्क पर कुछ अकादमिक साहित्य के तहत जोर दिया गया है, मगर भारतीय अदालतों ने हमेशा से इस दृष्टिकोण को अपनाने में दिक्कत महसूस की है. ऐसे मामलों में जहां सरकारों ने ओबीसी आरक्षण के लिए ‘क्रीमी लेयर’ वाले आय से संबंधी कट-ऑफ स्थापित की हो या एससी और ओबीसी जातियों के लिए उप-वर्गीकृत आरक्षण, जो कि विभाजित आरक्षण ब्रैकेट बनाते हैं, को लागू किया हो, अदालत को बिना किसी स्पष्ट या न्यायिक रूप से प्रबंधनीय मानकों के अनिर्णायक तथा जटिल अनुभव आधारित बहस में जबरन घसीटा गया है.

गौरतलब है कि 10 प्रतिशत का ईडब्ल्यूएस आरक्षण सकल आरक्षण को सर्वोच्च न्यायालय द्वारा आरक्षण की मात्रा पर लगाई गई 50 प्रतिशत की अधिकतम सीमा से ऊपर ले जाता है. केंद्र सरकार ने तर्क दिया है कि ईडब्ल्यूएस आरक्षण आवेदकों की सामान्य श्रेणी (अर्थात, अगड़े वर्ग) के भीतर आने वाला केवल एक ‘वर्गीकृत समूह’ है. चूंकि अदालत द्वारा लगाई गई 50 प्रतिशत की अधिकतम सीमा केवल पिछड़े वर्ग के आरक्षण पर लागू होती है, इसलिए ईडब्ल्यूएस आरक्षण की गणना इस सीमा के भीतर नहीं की जानी चाहिए.

यह विलक्षण तर्क ईडब्ल्यूएस को आरक्षण की एक नई ‘ऊर्ध्वाधर श्रेणी’ (वर्टीकल केटेगरी) के बजाय अगड़े वर्गों के बीच के एक ‘वर्गीकृत आरक्षण’ के रूप में दर्शाता है. पीठ के बहुमत ने इन तर्कों को स्वीकार कर लिया और न्यायमूर्ति जे के माहेश्वरी ने कहा, ‘ईडब्ल्यूएस आरक्षण ‘समानता संहिता’ का उल्लंघन नहीं करता है, यह संविधान के ‘अनिवार्य स्वरूप’ का उल्लंघन नहीं करता है और 50 प्रतिशत के परे जाना बुनियादी ढांचे का उल्लंघन नहीं करता है, क्योंकि अधिकतम सीमा की शर्त यहां केवल 16 (4) और (5) के लिए लागू है.’


यह भी पढ़ें: भारतीय मां अपने छोटे बच्चे के साथ हफ्ता में 9 घंटे बिताती हैं वही अमेरिकी 13 घंटे, राज्य उठाए कदम


स्टूडेंट्स फॉर फेयर एडमिशन इंक

पिछले हफ्ते ही, यूएस सुप्रीम कोर्ट ने भी हार्वर्ड यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी ऑफ नॉर्थ कैरोलिना में नस्ल के प्रति जागरूक सकारात्मक कार्यवाही (रेस कॉन्ससियस अफ्फर्मटिव एक्शन) वाली नीतियों के खिलाफ दायर मुकदमों की सुनवाई पूरी की. इन मुकदमों को एडवर्ड ब्लम नामक एक रूढ़िवादी राजनीतिक कार्यकर्ता द्वारा स्थापित स्टूडेंट्स फॉर फेयर एडमिशन इंक (एसएफएफए) द्वारा आगे बढ़ाया गया था, ताकि अमेरिकी सार्वजनिक विश्वविद्यालयों में रेस कॉन्ससियस अफ्फर्मटिव एक्शन की नीतियों को चुनौती देने के लिए छात्रों और अभिभावकों को एक साथ लाया जा सके. दोनों ही मामलों में मुख्य चुनौती यह है कि क्या विविधता के आधार पर उच्च शिक्षा में रेस कॉन्ससियस अफ्फर्मटिव एक्शन अपनाना संवैधानिक रूप से स्वीकार्य है?

साल 1977 के बक्के मामले (रीजेन्ट्स ऑफ द यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफ़ोर्निया वर्सेस बक्के) में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने छात्र निकायों की विविधता को बढ़ावा देने के लिए उच्च शिक्षा में इसे सीमित रूप से अनुमति दी थी. साल 2003 में ग्रटर मामले (ग्रटर वर्सेस बोलिंगर मामले) में बड़े बहुमत के साथ इस अपवाद की पुष्टि हुई, जिसने प्रवेश (दाखिले) के मुद्दे पर विश्वविद्यालय प्रशासकों को अधिकार दे दिया. एसएफएफए ने ग्रटर वाले निर्णय को खारिज करने के लिए अदालत में याचिका दायर की.

ताजा मामले में पांच घंटे तक चली मैराथन बहस के दौरान, यूएस सुप्रीम कोर्ट में याचिकाकर्ताओं ने इस बात पर जोर दिया कि सिर्फ और सिर्फ विविधता का औचित्य ही अफ्रीकी अमेरिकी छात्रों या निचले वर्ग और एशियाई अमेरिकी आवेदकों के पक्ष में नस्ल-आधारित सकारात्मक कार्रवाई को सही नहीं ठहरा सकता है. इस मामले में न्यायिक हस्तक्षेप अनुमानित लाइन पर ही रहे. पिछले मामलों में असहमति जताने वाले न्यायाधीशों ने इस बात की पुष्टि करने के लिए कि विश्वविद्यालय नौकरशाही की प्रमाणन प्रक्रिया के बजाय स्वयं की पहचान पर निर्भर हैं, यह सवाल किया कि कब कोई छात्र सकारात्मक कार्यवाही से लाभान्वित हो सकता है; वहीं अन्य न्यायाधीशों ने इस बात की पड़ताल की कि क्या लिगेसी कंट्रीब्यूशन (पुराने जुड़ाव के आधार पर दिए गए अनुदान) देने वाले छात्र या पूर्व छात्रों के बच्चे भी विविधता वाले औचित्य से लाभान्वित होते हैं.

जस्टिस ब्रेट कवानुघ और एमी बैरेट ने पूछा कि क्या ग्रटर मामले में विविधता आधारित प्रवेश के लिए तय की गई 25 साल की समय सीमा बाध्यकारी है? दूसरी ओर, न्यायमूर्ति एलेना कगन ने याचिकाकर्ताओं से यह दिखाने के लिए कहा कि विश्वविद्यालय विविधता-आधारित प्रवेश देने लिए विशेष रूप से नस्ल पर निर्भर करते हैं न कि समग्र मानदंड पर.

इस साल की शुरुआत में अमेरिकी सुप्रीम कोर्ट ने थॉमस डॉब्स मामले में सुनवाई करते हुए महिलाओं को गर्भपात के लिए प्राप्त अधिकार के संवैधानिक संरक्षण को हटाने के लिए ‘रो बनाम वेड’ के मामले में दिए गए अपने ही फैसले को पांच दशकों के बाद पलट दिया था. इसलिए, अदालत द्वारा बक्के मामले के निर्णय को भी चार दशकों के बाद को खारिज किये जाने की संभावनाएं वास्तविक हैं. सीमित विविधता अपवाद को त्यागने के निर्णय में अमेरिकी विश्वविद्यालयों में प्रवेश करने वाले छात्रों की सामाजिक संरचना को बदलने और वंचित समूहों की सामाजिक गतिशीलता की संभावनाओं को धक्का पहुंचने की क्षमता है.

एसएफएफए और ईडब्ल्यूएस के संदर्भ में पेश किये गए सवाल भिन्न संवैधानिक और कानूनी रूप वाले हैं लेकिन एक तरह से समान राजनीतिक चिंताओं पर आधारित हैं. ईडब्ल्यूएस आरक्षण को अगड़े वर्ग के सामान्य श्रेणी के आवेदकों के बीच के उप-वर्गीकरण के रूप में नया जामा पहनाने के प्रयासों के बावजूद, ईडब्ल्यूएस मामले में आया निर्णय समूह-आधारित कार्यवाही से दूर होते हुए ‘व्यक्ति केंद्रित सकारात्मक कार्रवाई नीति’ की ओर एक मौलिक बदलाव की शुरुआत करेगा.

निश्चित रूप से यह आने वाले दशकों में ‘सकारात्मक कार्यवाही’ की नीति में जातीय पहचान के महत्व को कम करेगा. एसएफएफए मामले में आगामी निर्णय अमेरिकी विश्वविद्यालयों में रेस कॉन्ससियस एडमिशंस (नस्ल के प्रति जागरूक प्रवेश) के भविष्य का निर्धारण करेगा. एक साथ देखें जाने पर ये मामले आने वाले दशकों के लिए सकारात्मक कार्यवाही और समानता की राजनीतिक और कानूनी नींव को स्पष्ट रूप से नया रूप देंगे.

(सुधीर कृष्णास्वामी, नेशनल लॉ स्कूल ऑफ इंडिया यूनिवर्सिटी, बैंगलोर के वाइस चांसलर और सेंटर फॉर लॉ एंड पॉलिसी रिसर्च, बैंगलोर के मैनेजिंग ट्रस्टी हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: गुजरात को मिले हिंदुत्व के दो चेहरे लेकिन उसके राजनीतिक विरोध का एकमात्र चेहरा हैं राहुल गांधी


 

share & View comments