scorecardresearch
Friday, 26 April, 2024
होममत-विमतभारतीय मां अपने छोटे बच्चे के साथ हफ्ते में 9 घंटे बिताती हैं वहीं अमेरिकी 13 घंटे, राज्य उठाए कदम

भारतीय मां अपने छोटे बच्चे के साथ हफ्ते में 9 घंटे बिताती हैं वहीं अमेरिकी 13 घंटे, राज्य उठाए कदम

बच्चों की विकास संबंधी गतिविधियों की बेहतरी के लिए जरूरी है कि राज्य माता-पिता को आवश्यक मदद मुहैया कराए, खासकर उन लोगों के मामले में जो कम पढ़े-लिखे हैं.

Text Size:

भागती-दौड़ती जीवनशैली और फुरसत के लिए सांस लेने की ‘ज़रूरत’ के बीच क्या भारतीय माता-पिता अपने बच्चों के साथ पर्याप्त समय बिता पा रहे हैं? क्या बच्चों की देखरेख के दौरान माता-पिता की शिक्षा महत्वपूर्ण है? क्या यह सच है कि अधिक बच्चे होने का मतलब उनकी देखभाल में ज्यादा समय बिताना है?

ये सवाल मायने रखते हैं क्योंकि माता-पिता कितना और किस तरह का समय बच्चों के साथ बिता रहे हैं, जो कि बच्चे के संज्ञानात्मक और सामाजिक विकास को प्रभावित करता है. विकसित देशों में माता-पिता अपने बच्चों के साथ जो समय बिताते हैं, वह पिछले आधे दशक में बढ़ा है.

2019 टाइम यूज सर्वे के यूनिट-लेवल डेटा का इस्तेमाल करते हुए हमने यह अंदाजा लगाया कि भारतीय माता-पिता हर हफ्ते बच्चों की देखभाल और बाल विकास गतिविधियों में कितना समय बिता रहे हैं. शारीरिक देखभाल, उन्हें खिलाना, उनकी साफ-सफाई, चिकित्सा देखभाल आदि सभी चाइल्ड केअर का हिस्सा हैं. जबकि बच्चों को सिखाने, बातचीत करने, पढ़ने और स्कूल एंव चाइल्ड केयर सुविधा देने वालों के साथ मीटिंग करना, बाल विकास गतिविधियों में आता है.

हमने 18 साल से कम उम्र के बच्चों के साथ रहने वाले 76,102 माताओं और 70,394 पिताओं पर राष्ट्रीय स्तर पर रिप्रेजेंटिव डेटा निकाला. हालांकि डेटा सभी बच्चों के साथ बिताए गए कुल समय के लिए है, लेकिन हम इसे सबसे छोटे बच्चे की उम्र के अनुसार रिपोर्ट कर रहे हैं क्योंकि छोटे बच्चों को अधिक देखभाल की जरूरत होती है. टाइम यूज सर्वे ने इंटरव्यू से एक दिन पहले विभिन्न गतिविधियों पर बिताए गए समय को ट्रैक किया था. इसे एक प्रतीकात्मक दिन मानते हुए, हमने बच्चों के साथ बिताए गए समय का साप्ताहिक अनुमान लगाया.


यह भी पढ़ें: अप्रत्यक्ष विज्ञापन, छिपी लागत, CEO ने कहा- डार्क पैटर्न से निपटने के तरीके अपना रहा ASCI


शिक्षा एक पैरामीटर

सर्वे में भारतीय मांओं ने प्रति सप्ताह 7.5 घंटे बच्चों की देखभाल पर और 1.3 घंटे बाल विकास संबंधी गतिविधियों में बिताए. कुल मिलाकर एक सप्ताह में वह लगभग 9 घंटे पूरी तरह से बच्चों के साथ रहीं.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

मोटे तौर पर तुलना करें तो 2021 में अमेरिकी मांओं ने अपने बच्चों के साथ सप्ताह में 12.3 घंटे बिताए. कोविड-19 महामारी के कारण ज्यादातर महिलाएं घर पर रह रही थीं. इस वजह से डेटा ऊपर की ओर झुकता नजर आ सकता है. लेकिन इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि विकसित देशों में माता-पिता अपने बच्चों के साथ जितना समय बिताते आ रहे हैं, उनके उस समय में बढ़ोत्तरी हुई है.

जिन महिलाओं के बच्चे छोटे हैं, वो अपने बच्चों की देखभाल में ज्यादा समय व्यतीत करती हैं. उदाहरण के लिए अगर एक भारतीय महिला जिसके सबसे छोटे बच्चे की उम्र पांच वर्ष से कम है तो वह महामारी से ठीक पहले यानी 2019 में बच्चे की देखभाल में हर सप्ताह औसतन 11.1 घंटे बिता रही थी. वहीं 6 से 14 साल के उम्र के बच्चे की मां हर सप्ताह सिर्फ 1.6 घंटे चाइल्ड केयर में बिता रही थी.

अपने बच्चों के साथ बिताया गया समय, मां की शिक्षा के स्तर के अनुपात में घटता-बढ़ता नजर आया. डिग्री या मास्टर डिग्री पाने वाली महिलाओं के बच्चों की संख्या कम होती है लेकिन वे अपना ज्यादा समय बच्चों से संबंधित गतिविधियों पर व्यतीत करती हैं. उच्च शिक्षा हासिल करने वाली महिला, जिसके बच्चों की उम्र पांच साल से कम है, वह क्रमशः बच्चों की देखभाल और बाल विकास गतिविधियों पर प्रति सप्ताह 12.5 और 3.5 घंटे खर्च करती हैं. जो महिलाएं शिक्षित नहीं हैं या फिर कम पढ़ी-लिखी हैं, उनके बच्चों की संख्या ज्यादा होती है लेकिन वह उनके साथ कम समय ही बिता पाती हैं. पांच साल से कम उम्र का सबसे छोटा बच्चा होने की स्थिति में कम पढ़ी-लिखी मां बच्चों की देखभाल में 9.7 घंटे और बाल विकास गतिविधियों में सिर्फ 1.1 घंटे बिताती है.

उच्च शिक्षित और कम पढ़ी-लिखी महिलाओं के बीच अपने बच्चों के साथ पढ़ने और खेलने जैसी विकासात्मक गतिविधियों में भी काफी असमानता है. यह असमानता स्कूल जाने वाले बच्चों के बीच और भी व्यापक हो जाती है. 6 से 14 साल की उम्र वाले सबसे छोटे बच्चे की एक अशिक्षित मां बाल विकास पर प्रति सप्ताह आधे घंटे से भी कम समय देती है. वहीं उच्च शिक्षित मां 3 घंटे से ज्यादा समय बच्चे के साथ बिताती है.

ऐसा क्यों है? ज्यादा बच्चे होने के बावजूद एक कम पढ़ी-लिखी मां अपने बच्चे के साथ ज्यादा समय क्यों नहीं बिता पाती हैं?

इसका सबसे पहला कारण, संभवत: उनका गरीब परिवार से संबंधित होना है. जीवन यापन और घरेलू काम करने में उनका ज्यादा से ज्यादा समय खप जाता है. दूसरा कारण, शायद पढ़ा-लिखा न होने की वजह से उनका बाल विकास गतिविधियों मसलन उन्हें पढ़ाना या फिर लिखना सिखा पाने में सक्षम न होना है. इसके चलते उनके बच्चों की देखभाल दादा-दादी या बड़े भाई-बहनों द्वारा किए जाने की संभावना अधिक होती है, या फिर ऐसे बच्चे कम उम्र में आत्मनिर्भर होना सीख जाते हैं.

दुनिया भर में मां की तुलना में पिता अपने बच्चों के साथ कम समय बिताते हैं. भारत कोई अपवाद नहीं है. यह उल्लेखनीय है कि बच्चों की देखभाल पर बिताए गए समय में पिता की शिक्षा के स्तर का असर उतना नहीं है जितना कि माओं का है. अगर सबसे छोटा बच्चा 14 साल से कम उम्र का है, तो बिना पढ़ा-लिखा पिता उसकी देखभाल में प्रति सप्ताह 2.3 घंटे बिताता है. वहीं उच्च शिक्षित पिता 2.7 घंटे बच्चे की देखभाल में लगाता है.

बाल विकास गतिविधियों के संदर्भ में देखें तो, 6 से 14 साल की उम्र वाले सबसे छोटे बच्चे का अशिक्षित पिता 30 मिनट से भी कम समय बच्चे के साथ बिताता है. जबकि उसकी तुलना में उच्च शिक्षित पिता उस उम्र के बच्चे के साथ औसतन 2.7 घंटे बिताता है.

अतिरिक्त सहयोग की जरूरत

बच्चे के साथ माता-पिता ने कितना और कैसा समय बिताया है, यह बच्चों के संज्ञानात्मक, सामाजिक और भावनात्मक विकास के लिए मायने रखता है. हमारे विश्लेषण से पता चलता है कि बच्चों की विकास संबंधी गतिविधियों की बेहतरी के लिए जरूरी है कि राज्य माता-पिता को आवश्यक मदद मुहैया कराए, खासकर उन लोगों के मामले में जो कम पढ़े-लिखे हैं. इसके लिए मौजूदा आंगनवाड़ी सिस्टम को मजबूत और उन्नत करने के साथ-साथ छोटे बच्चों के लिए इसे शहरी क्षेत्रों में बढ़ाने की जरूरत है.

स्कूल में लर्निंग गैप को पाटने के लिए अतिरिक्त सहयोग से बड़े बच्चों को मदद मिलने की संभावना है. उदाहरण के लिए, कोविड-19 महामारी के कारण लर्निंग को लेकर आ रही दिक्कतों के लिए तमिलनाडु सरकार की एनम एज़ूथूम योजना की सफलता के शुरुआती संकेत उत्साहजनक हैं. ऐसी ज्यादा से ज्यादा योजनाएं नियमित आधार पर चलाई जा सकती हैं.

अगर माता-पिता बनने के शुरुआती क्रम में वैकल्पिक स्रोतों के जरिए उन्होंने जरूरी जानकारी या मदद मुहैया कराई जाए तो इस असमानता को पाटना और आसान हो जाएगा.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(सौम्या धनराज गुड बिजनेस लैब में सीनियर रिसर्च फेलो हैं. विद्या महांबारे ग्रेट लेक्स इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट, चेन्नई में अर्थशास्त्र की प्रोफेसर और निदेशक (रिसर्च) हैं. सरोदिया घोष मद्रास स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स से स्नातक हैं.)


यह भी पढ़ें: 40 साल बाद परिवार की तलाश में निकली भारतीय महिला- अजमेर से हुई अगवा, कराची में बेची गई थी


 

share & View comments