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Saturday, 2 November, 2024
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तनाव कम करने के लिए तनाव बढ़ाना, पाकिस्तान के लिए भारत की नई चाल है

संभव है, बालाकोट हवाई हमले के बाद भी बारंबार होने वाले आतंकवादी हमले ना रुकें, लेकिन भारत ने कथानक को बदलने और यह दिखाने का विकल्प चुना कि वायुशक्ति से क्या कुछ संभव है.

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बालाकोट हवाई हमले ने भारतीय वायुसेना के बारे में प्रबल धारणा और भारत द्वारा वायुशक्ति के इस्तेमाल को अब तक परिभाषित करने वाले सामरिक संकोच को पूरी तरह बदल दिया है.

1971 के युद्ध के बाद से राष्ट्रीय सुरक्षा उद्देश्यों के लिए अक्रामक वायुशक्ति का इस्तेमाल नहीं हुआ, क्योंकि सशस्त्र बल एक अलग तरह की मानसिकता में काम कर रहे थे. यह माना जा रहा था कि भारतीय वायुसेना मुख्यत: परंपरागत तरीके के युद्ध के लिए है; बाकी मौकों पर इसकी भूमिका तनाव बढ़ाती है और इसलिए शेष कार्य भारतीय थलसेना पर छोड़ना बेहतर है.

मिज़ो और नगा विद्रोहों के दौरान 1950 और 1960 के दशकों में अक्रामक वायुशक्ति के इस्तेमाल – जिसमें इसकी भूमिका का अभी तक निष्पक्ष अध्ययन नहीं हुआ है और वह भावनाओं की भेंट चढ़ गई – के बाद से भारत ने सशस्त्र विद्रोहों में इसका उपयोग पूरी तरह बंद कर दिया. जो सही भी था. सशस्त्र विद्रोहों को लेकर यह दलील दी जाती थी कि इसमें आमतौर पर आदिवासियों की भागीदारी होती है और वायु शक्ति के इस्तेमाल के बजाय बातचीत एवं हल्के दबाव के सहारे उन्हें मनाने का मौका मिलना चाहिए, भले ही उन्होंने कुछ समय तक अलगाववाद की बात की हो.

सामरिक जगत में बहुतों का मानना है कि अक्रामक वायुशक्ति ‘बड़ी लड़ाइयों’ के लिए हैं न कि कथित ‘गंदे युद्धों’ के लिए. यह अंशत:, वायु शक्ति के इस्तेमाल के बावजूद लेबनान में हिजबुल्ला को घुटने टेकने पर मजबूर करने में इज़रायल की नाकामी का परिणाम था. हालांकि, नाकामी वायुशक्ति की नहीं थी, बल्कि ऐसा बिना ज़मीनी समर्थन के वायु शक्ति के इस्तेमाल के कारण हुआ था. पर अपने पड़ोस में ही 2008 की बात करें तो श्रीलंका ने लिट्टे और इसके शीर्ष नेतृत्व के खिलाफ निर्णायक लड़ाई में वायु शक्ति का प्रभावी इस्तेमाल किया था.


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जम्मू कश्मीर में 1990 के दशक में वायु शक्ति के उपयोग के लिए बहुत सही स्थिति बनी थी, जब नियंत्रण रेखा पर पाकिस्तानी आईएसआई समर्थित जिहादी प्रशिक्षण शिविरों के बारे में हमारे पास पर्याप्त खुफिया जानकारी उपलब्ध थी. ये शिविर भारतीय तोपखाने और थल सैनिकों की पहुंच से दूर थे. तब भारतीय वायुसेना ने कहा था कि वह पाकिस्तानी वायुक्षेत्र का अतिक्रमण किए बिना उन जिहादी प्रशिक्षण शिविरों को नुकसान पहुंचाने में सक्षम है. पर, तत्कालीन राजनीतिक नेतृत्व रुढ़िवादिता और संशय के कारण नई रणनीति आजमाने के लिए तैयार नहीं हो सका. इस तरह, भारत जनहानि स्वीकार करते हुए इस उम्मीद में सतत लड़ाई वाले विकल्प पर चलता रहा कि आखिरकार एक दिन जिहादी आंदोलन का ज़ोर कम हो जाएगा.

यहां तक कि कारगिल युद्ध के समय भी, भारतीय वायुशक्ति का अपर्याप्त लाभ उठाया गया क्योंकि लड़ाई वाले इलाके में भी वायुसेना को नियंत्रण रेखा का उल्लंघन ना करने के स्पष्ट निर्देश दिए गए थे. इससे वायुसेना के अधिकारियों को निराशा हुई थी क्योंकि वे गिलगित-स्कार्दू सेक्टर में कुछ किलोमीटर अंदर घुसकर रसद के रास्तों को भी बाधित नहीं कर सकते थे, इसके बजाय उन्हें सिर्फ पहाड़ियों पर बने शत्रु के ठिकानों और साजोसामान के कुछे  केंद्रों को ही खत्म करने का काम सौंपा गया. भारतीय वायुसेना को मानो एक हाथ पीछे बांध मुकाबला करना पड़ रहा था, फिर भी उसने तनाव खत्म करने में अहम भूमिका निभाई. तब सरकार की दलील यह थी कि भारत लड़ाई तेज करने के लिए तैयार नहीं है, जो कि एक संकोची ताकत की निशानी है.

2003 के युद्धविराम और 9/11 के बाद के अमेरिकी दबाव के बाध्यकारी प्रभाव के कारण लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद के कई आतंकवादी कैम्प हटा दिए गए और उन्हें आईएसआई की निगरानी में मुरिदके और बहावलपुर जैसे घनी आबादी वाले इलाकों में स्थानांतरित कर दिया गया. भारत ने 1990-2003 की अवधि में दबाव डालने का मौका गंवा दिया. 2008 के मुंबई हमलों के बाद भी वायुशक्ति की उपयोगिता को लेकर भारत का संशय हावी रहा, हालांकि तत्कालीन वायुसेना प्रमुख ने संकेत दिया था कि भारतीय वायुसेना जवाबी कार्रवाई के लिए तैयार है.

नरेंद्र मोदी सरकार के आलोचकों की दलील है कि 2016 में उरी हमले के बाद हुए सर्जिकल स्ट्राइक का घुसपैठ और आतंकी हमलों पर कोई असर नहीं पड़ा. लेकिन उस सर्जिकल स्ट्राइक से नए विकल्पों को आजमाने के अवसर उपलब्ध हुए. संभव है बालाकोट हवाई हमले के बाद भी बारंबार होने वाले आतंकवादी हमले ना रुकें, पर भारत ने कथानक को बदलने और यह दिखाने का विकल्प चुना कि वायुशक्ति से क्या कुछ संभव है. उम्मीद है इससे सशस्त्र सेनाओं में इस बात की समझ बढ़ेगी कि एक-दूसरे की क्षमताओं का दोहन और परस्पर पूरक कार्य करना ही संघर्ष के बदलते आयामों से निबटने का एकमात्र तरीका है.

जब भारत पिछले 48 घंटों के घटनाक्रम को लेकर व्यस्त है, यह आवश्यक हो जाता है कि हम थोड़ी स्थिरता से विभिन्न सामरिक और ऑपरेशनले संभावनाओं और परिणामों पर गौर करें.


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पाकिस्तान स्थित आतंकी नेटवर्क के पूर्ण खात्मे से लेकर पाकिस्तानी सैनिक क्षमता को व्यापक क्षति पहुंचाने जैसे कई अतिआक्रामक सुझाव हैं – ये दोनों ही सुझाव असंभव प्रकृति के हैं. अतिवादी सुझाव के दूसरे सिरे पर अमनपसंद लोग हैं जिनका कहना है कि भारत पाकिस्तानी प्रधानमंत्री इमरान ख़ान के उनके ऐसे देश से बातचीत के प्रस्ताव को स्वीकार कर ले जिसने बारंबार साबित किया है कि उसके लिए वार्ताएं भारत में पाकिस्तान समर्थित आतंकवाद से ध्यान हटाने की साधन मात्र हैं. इन दोनों विचारधाराओं के मध्य में एयर चीफ मार्शल टिपनिस, एस कृष्णास्वामी और पूर्व सेनाध्यक्ष वेद मलिक जैसे ज्ञानवान, जानकार और लड़ाई का अनुभव रखने वाले पूर्व सैनिक अधिकारी हैं, जिनका मानना है कि कथानक बदलने का फैसला कर चुकने के बाद भारत को अब अपनी ऑपरेशनल रणनीति को जारी रखना चाहिए जो पाकिस्तान के रवैये को बदलने या कम से कम इसके लिए संयत प्रयास करने पर केंद्रित है.

ऐसा तभी संभव होगा जब सटीक दंडात्मक कार्रवाई के सहारे मौजूदा स्थिति से निबटने के साथ-साथ कूटनीतिक प्रयासों के लिए गुंजाइश बनाई रखी जाए जो कि जैश और उसके नेता मसूद अज़हर के खिलाफ विश्वसनीय और अमल में लाने योग्य प्रतिबद्धताओं पर केंद्रित हो.

जहां तक ऑपरेशनल आयाम की बात है, तो वायुसेना की बुधवार की कार्रवाई प्रवेश के वक्त अवरोध की शानदार कार्रवाई थी जब पाकिस्तानी वायुसेना के एक बड़े समूह (एफ-16 और जेएफ-17 विमान शामिल रहे होंगे) को भारतीय वायुक्षेत्र में घुसते ही कुछेक एसयू-30 और मिग-21 बाइसन विमानों के सहारे रोक लिया गया. कई तरफ से घेराबंदी की गई होगी तभी पाकिस्तानी विमानों के एक बड़े झुंड को अपने चुनिंदा लक्ष्यों – एक ब्रिगेड मुख्यालय और आयुध भंडार – पर बम गिराए बिना भागना पड़ा. इस दौरान मची अफरातफरी में, ऐसा लगता है मिग-21 बाइसन वार करने की सबसे अच्छी स्थिति में था.

पाकिस्तानी वायुसेना के अपने किसी भी विमान के मार गिराए जाने से इनकार के बावजूद, पाकिस्तानी सेना द्वारा बरामद इंजन के टुकड़ों की तस्वीरों और अन्य रिपोर्टों से लगता है कि संभवत: एक एफ-16 विमान को मार गिराया गया है. दोनों पक्षों से पुष्टि के अभाव में इस बारे में अटकलें ही लगाई जा सकती हैं. वैसे भी, भविष्य को लेकर उभरती बड़ी तस्वीर के मद्देनज़र यह बाल की खाल निकालने की कवायद ही मानी जाएगी.

क्या भारत तनाव कम करने के उद्देश्य से तनाव बढ़ाएगा? मेरी राय में एकमात्र विकल्प यही है, जिससे अंतत: काफी हद तक भारत को स्वीकार्य परिणाम निकल सकता है.

(लेखक भारतीय वायुसेना के सेवानिवृत एयर वाइस मार्शल और सामरिक मामलों के टिप्पणीकार हैं.)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें )

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