कई साल पहले, जब पश्चिम बंगाल में वाम मोर्चा सत्ता में था, मैं कोलकाता के ठीक बाहर एक गांव में चुनाव की लाइव कवरेज के लिए गई थी. मैं एक मतदान केंद्र के बगल में कैमरे के सामने खड़ी थी, मैंने कुछ मतदान करने आए लोगों से बातचीत की, स्थानीय मुद्दों पर चर्चा की और माहौल की जानकारी दी.
लाइव सेगमेंट के बीच में मेरा फोन बजा. यह नई दिल्ली से मेरे सहकर्मी का फोन था, जिसने कुछ हद तक माफी मांगते हुए मुझसे कहा कि मुख्य चुनाव आयुक्त (सीईसी) न्यूज़ कवरेज देख रहे हैं और उन्होंने मुझसे निजी तौर पर कहा है कि मेरे जैसे वरिष्ठ पत्रकार को चुनाव के दिन न्यूज़ कवरेज के दौरान किसी विशेष पार्टी से जुड़े रंग के कपड़े पहनने से पहले बेहतर पता होना चाहिए था.
मैं हैरान थी, पछता रही थी और मुझे बहुत दुख भी हो रहा था. मैंने उस दिन बिना सोचे समझे लाल कुर्ती पहनी थी. उस समय राज्य में वामपंथी सत्ता में थे और उनके झंडे वगैरह का रंग भी लाल था. मुझे बताया गया कि मतदान के दिन लाल कुर्ती पहनने से मुझे एक राजनीतिक पार्टी का प्रचार करने और मतदाताओं को प्रभावित करने की कोशिश करने के रूप में देखा जा सकता है.
तब से मैंने कभी भी चुनाव के दिन भगवा, हरा या लाल रंग नहीं पहना. यहां तक कि लाल बिंदी भी नहीं लगाई.
मंगलवार को, यह आधी-अधूरी घटना फिर से याद आ गई जब मैंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को टीवी पर गुजरात के गांधीनगर में मतदान केंद्र पर वोट डालने के लिए जाते देखा. उनके साथ-साथ भाजपा के गांधीनगर से उम्मीदवार, गृह मंत्री अमित शाह भी चल रहे थे. उनके पहनावे की पसंद: शाह ने अपने गले में भगवा दुपट्टा डाला हुआ था और मोदी ने बिना आस्तीन का, हल्के चेक वाला चमकीला भगवा जैकेट पहना हुआ था.
नकारात्मक लोग कहेंगे कि भगवा रंग भाजपा का रंग है और मोदी और शाह पार्टी के नेता होने के नाते जब चाहें इसे पहन सकते हैं और आप इस पर बहस नहीं कर सकते. जिस तरह आपको अपना धर्म, जीवन साथी या भोजन चुनने का पूरा अधिकार है, उसी तरह आपको अपनी पसंद का रंग पहनने का भी अधिकार होना चाहिए.
लेकिन क्या वे मतदान के दिन अपवाद बना सकते थे? बंगाल में, मैंने कभी भी कम्युनिस्टों को मतदान केंद्र पर लाल रंग के कपड़े पहने नहीं देखा, न ही टीएमसी को हरा रंग पहने देखा, और अब जब मैं इस बारे में सोचती हूं, तो शायद भाजपा का कोई विरला नेता ही भगवा रंग में मतदान केंद्र पर पहुंचता है.
सभी भद्रलोक और भद्रमहिलाओं के लिए सफेद रंग अनिवार्य रहा है, लाल रंग कभी नहीं. मतदान केंद्र के बहुत करीब पार्टी के झंडे लगाने को लेकर लड़ाई छिड़ गई है. मैंने एक बार एक मतदाता को अपने कुर्ते पर तृणमूल कांग्रेस के चिन्ह की तरह डिज़ाइन किया हुआ ब्रोच लगाकर वोट डालने आते देखा. हालांकि, उन्हें दूर जाना पड़ा और ब्रोच बाहर छोड़कर वापस आकर वोट देना पड़ा.
मंगलवार को गांधीनगर के दृश्यों से ये बहुत अलग था.
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क्या हुआ, निर्वाचन आयोग?
वोट डालने के लिए मोदी की यात्रा एक पूर्ण रोड शो में बदल गई, जो उनके चुनाव अभियान का विस्तार था. कम से कम पूरे 10 मिनट तक — यह टीवी पर दिखाए गए फुटेज की लंबाई थी — मोदी और शाह न केवल गांधीनगर में, बल्कि पूरे भारत में, 92 अन्य निर्वाचन क्षेत्रों में, जहां उस दिन मतदान हो रहा था, टेलीविजन स्क्रीन पर छाए रहे. दोनों लोगों से भरी सड़क पर टहल रहे थे, जो ऊंचे बैरिकेड्स के पीछे से हाथ हिला रहे थे और नारे लगा रहे थे.
मोदी के हाथ में कमल-भाजपा का चुनाव चिह्न — का एक छोटा सा कट-आउट भी था, लेकिन मुझसे चूक भी हो सकती है.
शायद मोदी और शाह को देखने के लिए भीड़ लगाने वाले दर्शक प्रशंसक थे — आखिरकार, मोदी और शाह के अलावा अन्य मतदाता भी अपना संवैधानिक कर्तव्य निभाने के लिए मतदान केंद्र पर आए थे, लेकिन पार्टी के झंडों और पार्टी चिन्हों के कट-आउट से लैस होकर ईवीएम का बटन दबाने कौन आता है? मैं प्रधानमंत्री और गृह मंत्री की दिन-रात सुरक्षा करने की सराहना करती हूं, लेकिन उस दिन, जिस सड़क पर वे मतदान करने गए थे, उस पर पूरी तरह से रोक लगा दी गई और पूरा तमाशा मंच-प्रबंधित लग रहा था.
एमसीसी को क्या हुआ? नहीं, मैरीलेबोन क्रिकेट क्लब नहीं बल्कि चुनाव आयोग द्वारा लागू आदर्श आचार संहिता के अनुसार एमसीसी, जो संयोगवश इस वर्ष 50 साल का हो गया. मुझे बताया गया है कि हेमलेट का प्रसिद्ध वाक्यांश, ‘पालन की तुलना में उल्लंघन में अधिक सम्मान’, वर्षों से गलत व्याख्या की गई है और अब इसे कुछ अलग अर्थ की तरह देखा जाता है, लेकिन 40 साल पहले मैंने कॉलेज में जो सीखा था, उस पर कायम रहते हुए, यह चुनाव एमसीसी उल्लंघनों के बारे में है जैसा शायद पहले कभी नहीं हुआ.
असंख्य उल्लंघनों के उदाहरण गिनाने का कोई मतलब नहीं है: वे सभी सार्वजनिक डोमेन में हैं, जिसमें राजस्थान में मोदी के सांप्रदायिक भाषण के लिए भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा की कलाई पर चुनाव आयोग का थप्पड़ भी शामिल है. इसके बजाय, मुझे बात को आगे ले जाना चाहिए और पूछना चाहिए कि भारत के चुनाव आयोग ने मतदान के दिनों में राजनीतिक अभियान की अनुमति कब दी, भले ही दूर के निर्वाचन क्षेत्र में?
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छोटे-छोटे काम, बड़े चुनाव
मतदान की तारीख से 48 घंटे पहले प्रचार अभियान कभी सच में थमा करता था. सहमत हूं, आज के समय में पूरी तरह से चुप्पी संभव नहीं है. राजनीतिक दल सोशल मीडिया और डिजिटल न्यूज़ प्लेटफॉर्म पर रैलियों का सीधा प्रसारण कर रहे हैं और उन भाषणों के विवादास्पद क्लिप एक्स और इंस्टाग्राम पर वायरल हो रहे हैं, लेकिन टेलीविज़न न्यूज़ चैनलों पर किसी तरह की पाबंदी न होना, जबकि वे सबसे ज़्यादा पहुंच वाले मीडिया हैं — क्या इस पर पुनर्विचार होना चाहिए?
मतदान के दिन मेरी लाल ड्रेस और सीईसी की आलोचनात्मक टिप्पणी के बारे में छोटी सी कहानी पर वापस आते हुए, मैंने हाल के वर्षों में कुछ सेवानिवृत्त सीईसी से इस बारे में पूछा था. उन्होंने कहा कि मेरी कुर्ती के रंग पर टिप्पणी “अनावश्यक बकवास” थी. मतदान के दिन कोई भी व्यक्ति अपनी पसंद का कोई भी रंग पहन सकता है.
यह सुनकर मुझे तसल्ली हुई, कुछ हद तक वर्षों की शर्मिंदगी को कम होने में मदद मिली, जिसे मैं अपनी अलमारी की एक गलती मान रही थी, लेकिन मंगलवार के गांधीनगर तमाशे के बाद, मैं यह सोचने पर मजबूर हूं कि क्या चुनाव आयोग, बढ़िया शराब की तरह, समय के साथ सुधर गया है या सिरके में बदल गया है.
देश भर में गर्मी की लहर को देखते हुए, मेरे पास 44 दिनों के चुनाव के बारे में भी एक मुद्दा है, जो 1951-1952 में हमारे पहले चुनाव के बाद सबसे लंबा है. इसके अलावा, आम तौर पर, पारंपरिक रूप से, चुनाव मई की शुरुआत में खत्म हो जाते हैं और परिणाम अब तक आ जाते हैं. हमें 4 जून तक परिणाम का इंतज़ार करने और पीड़ित करने का विचार किसका था? चुनाव थकान नाम की कोई चीज़ होती है, दोस्तों.
(लेखिका कोलकाता स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनका एक्स हैंडल @Monideepa62 है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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