कुछ समय पहले, एक महत्वपूर्ण खबर ने सभी का ध्यान उतना अपनी तरफ नहीं खींचा जितना इसे खींचना चाहिए था क्योंकि यह भविष्य के हिसाब से काफी महत्वपूर्ण था. यह खबर भारत की कुल प्रजनन दर से संबंधित थी जो कि 2022 में घटकर मात्र 1.99 रह गई है. जनसांख्यिकीय सिद्धांतों के अनुसार, अगर कुल प्रजनन दर (कोई महिला अपने जीवनकाल में कुल जितने बच्चों को जन्म देती है) 2.1 से कम हो जाए तो देश की जनसंख्या कम होने लगेगी.
काफी समय तक भारत में बढ़ती जनसंख्या को बोझ के रूप में देखा जाता था. जनसांख्यिकीय संक्रमण सिद्धांत के अनुसार, यह स्थिति तब उत्पन्न होती है जब देश तो अभी तक अविकसित होता है, लेकिन मेडिकल के क्षेत्र में प्रगति के कारण स्वास्थ्य सुविधाएं बेहतर हो जाती हैं. दूसरे शब्दों में यह स्थिति तब होती है जब औद्योगिक क्रांति से पहले चिकित्सा क्रांति आती है. इसके कारण देश में जन्म दर बहुत धीमी गति से घटती है जबकि मृत्यु दर तेज़ी से गिरती है. इसका प्रभाव यह होता है कि जनसंख्या वृद्धि दर बढ़ने लगती है. यह स्थिति – जिसे जनसंख्या विस्फोट कहा जाता है – भारत में 1950 से 1980 तक देखी गई थी, लेकिन 1980 के दशक के बाद, जन्म दर और कम हो गई, इसलिए जनसंख्या वृद्धि की प्राकृतिक दर भी घटने लगी.
एक वर्ष से कम उम्र के शिशुओं की मृत्यु दर में गिरावट का जनसंख्या पर बड़ा प्रभाव पड़ता है. भारत में यह 1981 में 111.7 प्रति हज़ार से घटकर 1991 में 86.6 प्रति हज़ार, 2001 में 64.5 प्रति हज़ार और 2011 में केवल 43.2 प्रति हज़ार रह गई है. नेशनल पॉपुलेशन रजिस्ट्रार द्वारा प्रकाशित आंकड़ों के अनुसार, 2022 में यह घटकर मात्र 27.7 प्रति हज़ार रह गई है.
इससे देश को एक नया मौका मिला. शिशु मृत्यु दर कम होने के कारण देश में युवा आबादी लगातार बढ़ने लगी, इस घटना को जनसांख्यिकीय लाभांश के रूप में जाना जाता है. 2001 के आंकड़े देखें तो देश में युवाओं (15 से 34 वर्ष आयु वर्ग) की आबादी कुल आबादी का 33.80 फीसदी थी, जो 2011 में बढ़कर 34.85 फीसदी हो गई. वर्तमान में यह कुल जनसंख्या के 35.3 फीसदी से ज्यादा है. जब हम पूरी संख्या पर नज़र डालते हैं, तो यह स्पष्ट हो जाता है कि आज भारत में किसी भी अन्य देश की तुलना में युवाओं की संख्या सबसे अधिक है. जनसंख्या का यह वर्ग विकास में अधिक योगदान दे सकता है.
हर कोई इस स्थिति का फायदा उठाकर देश को तरक्की की राह पर ले जाने की बात कर रहा है. अधिकांश अर्थशास्त्री इस बात से सहमत हैं कि यदि विवेकपूर्ण तरीके से उपयोग किया जाए तो जनसंख्या बोझ नहीं है. हमें अपनी युवा शक्ति का पूर्ण एवं कुशल उपयोग करने की आवश्यकता है.
जनसंख्या घटने का डर
अधिकांश ‘विकसित देशों’ में जनसंख्या वृद्धि की प्राकृतिक दर शून्य से नीचे चली गई है. यानी उनकी आबादी कम हो रही है. ऐसे कई देशों में अप्रवासियों के आने से जनसंख्या में कुछ संतुलन आता है. फिर भी, इस स्थिति के लंबे समय तक जारी रहने की संभावना कम है. इन देशों में प्रजनन दर ने जनसंख्या वृद्धि में गिरावट का संकेत दिया.
ऐसी ही स्थिति अब भारत में बन रही है और देश का जनसांख्यिकीय लाभ केवल 2042 तक ही उपलब्ध है. इस प्रकार, 1.99 की सकल प्रजनन दर देश की प्रगति में आड़े आ सकती है.
सवाल केवल कुल प्रजनन दर में गिरावट का नहीं है, समाज के विभिन्न वर्गों में अलग-अलग दर को लेकर भी चिंताएं हैं. गौरतलब है कि सबसे पहले अशिक्षित महिलाओं में प्रजनन दर 1991 में 3.33 से बढ़कर 2001 में 3.36 हो गई और बाद में 2011 में यह घटकर 3.17 हो गई, लेकिन जो महिलाएं स्नातक या उससे ज्यादा पढ़ी हैं, उनमें प्रजनन दर लगातार गिर रही है. 1991 में यह 1.62 और 2011 में 1.40 थी. मैट्रिक से ऊपर और स्नातक स्तर से नीचे की शिक्षा प्राप्त महिलाओं में भी यही प्रवृत्ति देखी गई है. उनकी प्रजनन दर 1991 में 2.08 से घटकर 2011 में 1.77 हो गई
ये आंकड़े बताते हैं कि जो लोग अपने बच्चों को बेहतर शिक्षा और बेहतर जीवन दे सकते हैं, उनके लिए प्रजनन दर कम है और जो नहीं दे सकते, उनके लिए प्रजनन दर अधिक है. यदि अशिक्षितों में प्रजनन दर अधिक है और शिक्षितों में कम है और घट रही है, तो भविष्य में जनसंख्या की संरचना गुणवत्ता के मामले में बदतर हो जाएगी.
‘दोगुनी आय नहीं तो बच्चे नहीं’
शहरी क्षेत्रों में उच्च आय वाले इलाकों में जीवन का एक नया तरीका उभर रहा है और यह शिक्षित और उच्च शिक्षित लोगों के बीच अधिक प्रचलित है. यह सोच पश्चिम की उपभोक्तावादी मानसिकता से प्रेरित है. कामकाजी जोड़े अब परिवार बढ़ाने के बजाय अधिक स्वतंत्र और विलासितापूर्ण जीवन जीने की ख्वाहिश रखते हैं.
भारतीय समाज में परिवार संस्था का विशेष महत्व रहा है. माता-पिता अपने बच्चों और पोते-पोतियों के साथ रहते हुए खुश हैं, लेकिन पिछले कुछ समय से संयुक्त परिवारों का चलन धीरे-धीरे कम होता जा रहा है. यह पश्चिम के भोगवादी मानसिकता से प्रेरित है.
आजकल कुछ युवा जोड़ों में शादी के बंधन से बचकर लिव-इन रिलेशनशिप का विकल्प चुनने की प्रवृत्ति भी देखी जा रही है. लिव-इन रिलेशन में रहने वालों के आमतौर पर बच्चे नहीं होते हैं. यहां तक कि जो लोग शादी कर लेते हैं उनमें से भी कई लोगों को बच्चे पैदा करने में कोई दिलचस्पी नहीं होती है. यह सोच, यानी DINKS (डबल इनकम नो किड्स) तेजी से लोकप्रिय हो रही है.
और अगर उनके एक बच्चा है भी, तो कई जोड़े एक से अधिक बच्चे पैदा करने में रुचि नहीं रखते हैं. इन सबके कारण पढ़े-लिखे युवाओं के बीच कम बच्चे पैदा हो रहे हैं.
शिक्षित महिलाओं में लगातार घटती प्रजनन दर के आंकड़े समाज में बदलती मान्यताओं के परिचायक हैं. जनसांख्यिकी में उभरती यह स्थिति देश में जनसंख्या के बढ़ते स्तर के लिए शुभ संकेत नहीं है. हालांकि, सैद्धांतिक रूप से, अशिक्षित और कम शिक्षित परिवारों में भी, बच्चे शिक्षा के माध्यम से बेहतर बन सकते हैं, लेकिन इस बात की अधिक संभावना है कि वे अशिक्षित और गरीब बने रहें. ऐसी स्थिति जनसंख्या की गुणवत्ता में कमी ला सकती है. इस विषय पर समाज और सरकार को गहन चिंतन की आवश्यकता है.
(अश्वनी महाजन दिल्ली विश्वविद्यालय के पीजीडीएवी कॉलेज में प्रोफेसर हैं. उनका एक्स हैंडल @ashwani_mahajan है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
(संपादन : शिव पाण्डेय)
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