scorecardresearch
Thursday, 21 November, 2024
होममत-विमतअर्थव्यवस्था इतनी बीमार है कि इसका इलाज होम्योपैथी से नहीं, सर्जरी से ही हो सकता है

अर्थव्यवस्था इतनी बीमार है कि इसका इलाज होम्योपैथी से नहीं, सर्जरी से ही हो सकता है

आर्थिक संकट केवल सही और साहसी सुधारों से ही दूर हो सकता है, और यह मोदी सरकार अगर यह नहीं कर पाती तो इससे यह आशंका ही सही साबित होगी कि वह अपना जादू गंवा चुकी है.

Text Size:

भारतीय उद्यमशीलता के अंदर जो ‘पाशविक जुनून’ छिपा है उसे जगाने की बातें जब-न-तब होती रहती हैं और हमारा राजनीतिक तबका भी इस जुमले का अक्सर इस्तेमाल करता रहता है. हमें याद आता है, डॉ. मनमोहन सिंह और बाद में जसवंत सिंह (वाजपेयी सरकार में वित्त मंत्री) ही दो ऐसे नेता हुए, जिन्होंने कॉर्पोरेट इंडिया से अपने भीतर इस जुनून को जगाने की अपील की थी. इस मोदी सरकार ने भी हाल में ऐसी कोशिश की है, अपने तरीके से.

स्वतंत्रता दिवस के अपने भाषण में प्रधानमंत्री ने भारत में ‘संपदा पैदा करने वालों’ से बेशक कुछ जरूर कहा. उन्होंने कहा कि सरकार ऐसे लोगों का सम्मान करती है और मानती है कि न लोगों ने भी राष्ट्र-निर्माण में जरूरी योगदान दिया है. लाल किले से किसी प्रधानमंत्री द्वारा निजी उद्यमशीलता की यह सबसे जोरदार वकालत थी. इसके बाद कई कदम भी उठाए गए हैं- कॉर्पोरेट टैक्स में बड़ी छूट दी गई, कैपिटल गेन टैक्स में बदलाव किए गए और बेअक्ली भरे उस विचार को रद्द कर दिया गया जिसके तहत किसी इंस्पेक्टर को यह देखने का अधिकार दिया गया था कि कोई कंपनी अपने मुनाफे का 2 प्रतिशत भाग ‘कॉर्पोरेट सामाजिक ज़िम्मेदारी’ के मद में ‘सही-सही’ खर्च कर रही है या नहीं.

इसी तरह, विदेशी पोर्टफोलियो में निवेश करने वालों (एफपीआइ) के पूंजीगत लाभ पर लगाए जाने वाले भारी टैक्स को भी वापस ले लिया गया है. एक बार फैसला करके उस पर डटी रहने वाली, जोखिम को पसंद करने वाली, उड़ते जहाज से पैराशूट की जांच किए बिना कूदने से न इनकार करने वाली सरकार का इस तरह कदम वापस खींचना एक नया अनुभव था. सरकार में कोई भी इसे कबूल नहीं करेगा, लेकिन पहली बार यह जताया जा रहा है कि प्रधानमंत्री की अविश्वसनीय लोकप्रियता और दूसरी बार बहुमत से सत्ता में आई उनकी सरकार का दबदबा भी बाज़ार पर काबू नहीं कर रहा है. कहा जा सकता है कि इतनी ताकतवर सरकार तो न्यायपालिका, मीडिया, चुनाव आयोग, यहां तक कि पाकिस्तान को भी काबू में कर सकती है. लेकिन, बाज़ार ऐसी चीज़ है जिसे कोई पाशविक राजनीतिक ताकत काबू में नहीं कर सकती.

पिछले कई सप्ताह से वित्तमंत्री निर्मला सीतारामण व्यावसायिक समुदाय से संवाद कर रही हैं. वे अपने बजट के कुछ पेचीदा मसलों का खुलासा प्रेस-कॉन्फ्रेंस-दर-प्रेस-कॉन्फ्रेंस करती रही हैं. ‘खराब खबर’ देने वाले इस बजट का मसौदा तैयार करने के लिए जिम्मेदार माने जा रहे वित्त सचिव को चलता कर दिया गया है और वे समय से पहले सेवानिवृत्त किए जाने की अपील कर रहे हैं. बजट पेश किए जाने के बाद से रिज़र्व बैंक दरों में फटाफट दो बार कटौती कर चुका है और वह जिस भाषा में बातें कर रहा है उसे फाइनेंशियल प्रेस ‘शांतिवादी भाषा’ कह रहा है.

फिर भी, मूड थोड़ा ही ठीक हुआ है, बुलंद नहीं. वर्ल्ड एकोनॉमिक फोरम के इंडिया समिट में कोई जोश से भरा मुस्काराता चेहरा नहीं नज़र आया. क्या हम जुनून की बात कर रहे हैं? वह दिखता तो है मगर उसके पीछे वह जज़्बा नहीं दिखता जिसकी आप उम्मीद करते हैं- पूंछ खड़ी किए हमले को तैयार चीते वाला जज़्बा. यहां तो पैरों के बीच पूंछ दबाए उपेक्षित पिल्ला ही नज़र आता है.


यह भी पढ़ें : मोदी को कोई शिकस्त दे सकता है, तो वह है भारतीय अर्थव्यवस्था


अगर आपको यह उपमा ठीक नहीं लगी या आप कुत्ते को नापसंद करते हैं तो मैं कोई और चालू किस्म की उपमा पेश कर सकता हूं, मसलन पस्तहाल सेना की. इसे आप बढ़िया से बढ़िया हथियार दे दीजिए, लेकिन इसके जनरल दिमागी तौर पर हार मान चुके हों तो वे अपनी फौज को जंग जीतने तो क्या, जंग के मैदान में उतरने को भी तैयार नहीं कर सकते.

जज़्बा तो क्या, स्वाभिमान तक की कमी का ही नतीजा है कि सरकार प्रायः हर शुक्रवार को ताबड़तोड़ जो अच्छी खबरें दे रही थी वे भी बेकार जा रही हैं. कॉर्पोरेट टैक्स में छूट से भारतीय व्यवसाय की झोली में सीधे 1.45 लाख करोड़ रुपए डाल दिए गए हैं. इससे बाज़ारों में दो दिन की चांदनी रही और फिर असलियत ने अपना चेहरा सामने कर दिया. टैक्स में छूट के बाद 24 सितंबर को चोटी छूने के बाद बीएसई में सूचीबद्ध कंपनियों को 2.53 करोड़ की चपत लग चुकी है. ब्याज दरों में कटौती समेत तमाम दूसरी कटौतियां और सुधार इसी निराशावाद की भेंट चढ़ चुके हैं. पिकेटी के बाद के दौर में दुनियाभर के बाज़ारों का भी हाल गड़बड़ है. लेकिन आपको मानना पड़ेगा कि वे चाहे जितने भी दिशाहीन, खराब, विषम हाल में क्यों न हों, वे सच कहने से डरते नहीं. भारत के बाज़ार निडर होकर वह कर रहे हैं, जो करने के लिए मीडिया और यहां तक कि न्यायपालिका जैसी खोखली संस्थाओं में कई लोग तैयार नहीं हैं- मोदी सरकार को बुरी खबरें देना.

पिछली तिमाही की 5 प्रतिशत वृद्धि दर के आंकड़ें ने सदमा पहुंचाया, लेकिन केवल भोलेभाले लोगों को. अर्थव्यवस्था पर नज़र रखने वाले लोग इसकी अपेक्षा कर भी रहे होंगे. अब, जब तक कोई भारी कदम नहीं उठाया जाता, अर्थव्यवस्था में सुधार मुश्किल ही लगता है. वह भारी कदम क्या हो, यह अभी किसी को मालूम नहीं है. क्योंकि मालूम होता, कम-से-कम उस तबके को जो हमारी किस्मत का फैसला करता है, तो रिजर्व बैंक ने इस साल की वृद्धि दर का अनुमानित आंकड़ा 6.9 प्रतिशत से घटाकर 6.1 प्रतिशत नहीं किया होता.

उद्यमशीलता को मुनाफे या टैक्स में कटौती से उतनी गति नहीं मिलती जितनी भविष्य के प्रति आशावादिता से मिलती है. लेकिन, पिछली मोदी सरकार ने नोटबंदी करके आर्थिक क्षेत्र की गति को जो झटका दिया उसके बाद से यह आशावादिता धूमिल ही होती गई है. व्यवसाय में और आम लोगों तथा परिवारों में ज्यादा फर्क नहीं है. जब उन्हें भविष्य धूमिल नज़र आता है तो वे तमाम नई आय, बचत, दूसरे लाभों आदि को हाल की टैक्स रियायत की तरह बुरे दिनों की खातिर परिवार की बचत के तौर पर सुरक्षित रख देते हैं. जब उनमें उम्मीद जागती है तभी उपक्रमों में निवेश करते हैं या जोखिम मोल लेते हैं.

कंपनियों के पूंजीगत खर्चों के बारे में सीएमआइई के आंकड़े भी आपको पूरी कहानी कह सकते हैं. दिसंबर 2018 में खत्म हुई तिमाही में इसका आंकड़ा 3.03 लाख करोड़ था, जो इस साल मार्च में घटकर 2.66 लाख करोड़ हो गया, और इसके बाद की तिमाहियों में क्रमशः 0.84 लाख करोड़ और 0.99 लाख करोड़ हो गया. सीएमआइई के आंकड़े यह भी बताते हैं कि सबसे ताजा तिमाही में सभी कंपनियों की बिक्री में वृद्धि ऋणात्मक – 1 प्रतिशत पर थी. इससे पहले ऐसा 2008 में लेहमैन संकट की सबसे खराब तिमाही में हुआ था. यह मंदी नहीं, भगदड़ है.

आप इस आंकड़े के साथ जो भी करें, कहानी वही रहेगी. सभी आर्थिक संकेतक निरपवाद रूप से बुरी हालत में हैं और यह स्थिति काफी समय से बनी हुई है. इसके लिए कुछ दोष अंतरराष्ट्रीय हालात के मत्थे मढ़ा जा सकता है, लेकिन कुछ ही. समस्या की जड़ तो अपने यहां ही है.

जब मुकेश अंबानी समेत लगभग सब के सब नकदी को संजोए बैठे हों या संभलकर, जोखिम से बचकर चल रहे हों तब बाकी लोगों से निवेश की उम्मीद बेमानी है. अगर आप भारत के आला, अग्रणी व्यवसायियों से पूछें कि ऐसा क्यों है, तो कानों में फुसफुसाहट भरा जवाब मिलेगा कि 1991 के बाद से मूड इतना उदासीभरा कभी नहीं हुआ था, कि उनका हौसला गिरा हुआ है.


यह भी पढ़ें : अर्थव्यवस्था भारत का सबसे धारदार औजार है, लेकिन वो कुंद हो रहा है


यह स्थिति सिर्फ इसलिए नहीं पैदा हुई है कि टैक्स अधिकारियों को छापेमारी या गिरफ्तारी करने के नए, बेहिसाब, निरंकुश अधिकार दे दिए गए हैं बल्कि इसलिए भी कि बुरे ऋणों के मामलों में बुरा बर्ताव किया जाने लगा है. आम कर्जदार से लेकर व्यवसाय के सचमुच बुरे चक्र में फंसे गंभीर उद्यमी को अगर ऋण-चोर के बराबर मान कर शक और नफरत की नज़र से देखा जाएगा तो न तो उद्यमियों को ऋण लेने में और न बैंकरों को ऋण देने में दिलचस्पी रहेगी.

एक प्रमुख और सम्मानित कॉर्पोरेट लीडर ने मुझसे कहा कि जोखिम तो हर कारोबार में होता है लेकिन अगर मुझे यह डर होगा कि कर्ज़ भुगतान में 30 दिन की भी देर होने पर बैंक मेरा नाम डिफॉल्टरों की सूची में डाल देगा और मुझे दिवालिया घोषित करवाने के लिए मुझे ‘एनसीएलटी’ में भेज देगा तो मैं भला जोखिम क्यों उठाऊंगा? ‘अगर कोई आदमी बीमार पड़ जाता है तो आप उसे अस्पताल भेजेंगे या श्मशान घाट? रिजर्व बैंक ने दिवालिया घोषित करने के जो नए नियम बनाए हैं वे भारत में उद्यमशीलता के लिए अंतिम क्रिया सरीखे हैं और प्रतिशोधी सत्तातंत्र ने हम जैसों के लिए ‘एनसीएलटी’ के रूप में एक श्मशान घाट ही बना दिया है.’

आर्थिक संकट अब टैक्स रियायतों, प्रोत्साहनों, बड़े-बड़े बोलों और वादों की पहुंच से आगे निकल चुका है. इनमें से कुछ उपाय स्टेरॉयड या इंसुलिन की सुई की तरह कुछ देर के लिए ही राहत दिला सकते हैं. भारतीय अर्थव्यवस्था को कुछ गंभीर, साहसिक सुधारों की जरूरत है. इसकी शुरुआत शायद सार्वजनिक उपक्रमों के निजीकरण से हो सकती है. अगर कोई मोदी सरकार अपने छठे वर्ष में भी यह नहीं करती है, तो वह उन्हीं लोगों को सच साबित करेगी जो यह मानते हैं कि यह सरकार अपना जादू गंवा चुकी है और यह केवल चुनाव जीतने की मशीन है, जिसके लिए आर्थिक वृद्धि एक लक्ष्य तो है. मगर जरूरत नहीं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

share & View comments