‘वेयर आर यू बि*****?’ एक आर्मेनियाई सैनिक जोर से चिल्लाता है जबकि उसके साथी आसमान की तरफ देखकर एकाएक फायरिंग शुरू कर देते हैं. थोड़ी ही देर में एक ड्रोन नजदीक की बस पर आकर गिरता है.
ट्विटर पर उपलब्ध इस एक घटना का वीडियो हमें नए जमाने के युद्ध के तौर-तरीके बताता है जिसमें इंसान उन मशीनों से लड़ने की कोशिश कर रहा है जो दूर आसमान से ही उन्हें आसानी से ट्रैक कर सकती हैं और पल भर में तबाही का मंजर सामने ला सकती हैं.
नागोर्नो-करबाख में अजरबैजान के साथ जंग में आर्मेनिया की जबर्दस्त और बुरी तरह हुई यह हार सभी देशों, खासकर भारत के लिए एक अच्छा सबक है, जो अपनी सेना में बदलाव और आधुनिकीकरण पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं.
यह युद्ध तुर्की और इजराइल से खरीदे गए ड्रोन और कुछ हल्की-फुल्की युद्ध सामग्री की बदौलत ही जीता लिया गया था, जो टैंक, बख्तरबंद वाहनों, खंदकों में छिपे सैनिकों, राडार और जमीन पर हरकत करने वाली हर चीज को निशाना बनाने में सक्षम थे. आर्मेनिया की वायु रक्षा प्रणाली और हथियारबंद सैनिक आसानी से हमला करने में सक्षम इन ड्रोन के लिए तो कोई चुनौती ही नहीं थे.
ड्रोन का युग
दिलचस्प बात यह है कि 1990 के दशक की शुरुआत में आर्मेनिया अपनी आधुनिक और बेहतर हथियारों से सुसज्जित सेना की बदौलत अजरबैजान पर भारी पड़ा था.
लेकिन समय के साथ चीजें बदल गईं. अजरबैजान ने नई तकनीक में निवेश किया और निर्णायक ढंग से जंग जीतने में सफल रहा. हालांकि, यह तो केवल समय ही बताएगा कि क्या ड्रोन टैंकों को निरर्थक बना देंगे, जैसे बाबर के समय बारूद का इस्तेमाल शुरू होने के बाद हाथी अंततः युद्ध में अप्रासंगिक हो गए थे.
माइक एकेल आरएफई/आरएल में लिखते हैं, ‘पहले की तुलना में अब ड्रोन का इस्तेमाल काफी ज्यादा हो रहा है और ये जंग का रुख भी निर्धारित कर रहे हैं, जो कि यह दर्शाता है कि भविष्य में होने वाले युद्ध किस तरह लड़े जाएंगे…’
और जैसा कि वाशिंगटन पोस्ट ने लिखा है, ‘नागोर्नो-करबाख संभवत: इसका सबसे सशक्त उदाहरण बन गया है कि कैसे छोटे और अपेक्षाकृत सस्ते ड्रोन का इस्तेमाल युद्ध के आयामों को ही बदलकर रख सकता है जिसमें कभी जमीनी जंग और पारंपरिक वायु शक्ति के प्रदर्शन का वर्चस्व रहा है.’
इसमें कहा गया है, ‘यह किसी विशिष्ट ड्रोन डिफेंस सिस्टम के बिना आधुनिक हथियार प्रणाली, टैंक, राडार और सतह से हवा में मिसाइलों के लिए उत्पन्न हुए खतरे को रेखांकित करता है. और इससे यह बहस भी छिड़ गई है कि क्या पारंपरिक टैंकों का युग समाप्ति के कगार पर है.
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पाकिस्तान और चीन के बीच
भारत व्यापक स्तर पर आधुनिकीकरण की प्रक्रिया से गुजर रहा है और यह महत्वपूर्ण है कि देश अजरबैजान-आर्मेनिया के संघर्ष से सबक ले और आला दर्जे की और उपयुक्त प्रौद्योगिकी पर ध्यान केंद्रित करे.
भारतीय सेना हमेशा विशुद्ध तकनीकी कौशल के बजाय संख्याबल पर निर्भर रही है.
हमारी सेना के लिए 1970 के दशक के अंत से लेकर 1980 के दशक तक सबसे अच्छा काल रहा है. इसी दौरान सेना को वास्तव में अत्याधुनिक तकनीक और हथियार हासिल हुए, वो भी बड़े पैमाने पर न कि अभी टुकड़ों-टुकड़ों में होने वाले सौदों की तरह. चाहे वह मिराज 2000 जेट हो, जिन्होंने पिछले साल बालाकोट हमले को अंजाम दिया, या लद्दाख में हवाई गश्त में इस्तेमाल होने वाले मिग-29 लड़ाकू विमान, या फिर चीन के समक्ष मोर्चा संभाले खड़े टी-72 टैंक, इन सभी प्रणालियों को उसी अवधि में खरीदा गया था. भारत को कारगिल जंग जिताने वाली और अब भी शानदार प्रदर्शन कर रही, चाहे वो पाकिस्तान हो या लद्दाख, बोफोर्स तोप को भी नहीं भूलना चाहिए.
भारत को एक स्पष्ट राष्ट्रीय सुरक्षा सिद्धांत पर काम करना चाहिए और इस तरह की जंग को ध्यान में रखना चाहिए जो दुश्मन छेड़ सकते हैं. हमें केवल उन प्रणालियों पर ही ध्यान और पैसा बर्बाद नहीं करना चाहिए जो भविष्य में होने वाले युद्धों में अनुपयोगी या बेकार साबित हों.
आर्मेनिया के संदर्भ में ड्रोन युद्ध भले ही सफल साबित हो सकता है, लेकिन भारत-पाकिस्तान परिदृश्य में स्थिति वैसी नहीं हो सकती जहां दोनों पक्षों ने बड़े स्तर पर वायु रक्षा प्रणाली तैनात कर रखी है. ड्रोन की सफलता के लिए जरूरी है कि इनका इस्तेमाल करने वाले देश के पास वायु क्षेत्र में पूरा वर्चस्व हो, जबकि भारतीय वायु सेना (आईएएफ) या पाकिस्तानी वायु सेना (पीएएफ) के लिए लंबी अवधि तक ऐसा कर पाना संभव नहीं हो सकता.
लेकिन क्या होगा यदि कई स्थानों से एक साथ कई ड्रोन हमला कर दें? क्या भारत और पाकिस्तान इस तरह के हमले नाकाम कर पाएंगे?
ड्रोन का खौफ इतना ज्यादा है कि 27 फरवरी 2019 को श्रीनगर में जमीन पर मौजूद वायुसेना के एयर डिफेंस ऑपरेटर्स ने एमआई 17 वीएच हेलिकॉप्टर को गलती से दुश्मन का ड्रोन समझ लिया, जिसका नतीजा एक घातक ‘फ्रेंडली फायर’ की घटना के तौर पर सामने आया.
मानवरहित हवाई वाहन (यूएवी) की बात करें तो भारत का नजदीकी पड़ोसी चीन एक बड़े खिलाड़ी के तौर पर सामने आता है. इसने न केवल ड्रोन, जिसमें हथियारबंद भी शामिल, विकसित करने में खासा निवेश किया है, बल्कि एंटी-ड्रोन तकनीक पर भी खास ध्यान केंद्रित किया है.
एशिया टाइम्स की एक रिपोर्ट के अनुसार, ‘सरकारी स्वामित्व वाले चीन एयरोस्पेस साइंस एंड इंडस्ट्री कॉर्पोरेशन (सीएएसआईसी) ने एक काउंटर-ड्रोन प्रणाली विकसित की है जो कई हथियारों और उपकरणों से लैस है, जिसमें लैंड-बेस रॉकेट और ड्रोन-हंटिंग ड्रोन शामिल हैं और यह प्रणाली वेब और व्हीकल आधारित तमाम बड़े टोही उपकरणों को नाकाम करने में सक्षम है.
ग्लोबल टाइम्स का कहना है, ‘चीन के पास राइफल के आकार वाली काउंटर-ड्रोन डिवाइस भी हैं, जो ‘शूट’ करने पर सिग्नल जाम कर देती है जिससे हमला करने के लिए छोड़ा गया ड्रोन या तो लैंड करने के लिए विवश होगा या फिर डायवर्ट हो जाएगा.’
भारत की अपनी यूएवी क्षमता पर एक नजर डालें तो स्थिति काफी खराब दिखती है.
तकनीकी रूप से सक्षम बनने का समय
यह काफी दुर्भाग्यपूर्ण है कि जब चीन ने हमारी नाक में दम कर रखा है तब भी जमीनी स्तर पर भारतीय सैनिकों के पास पर्याप्त टोही और निगरानी क्षमता नहीं है.
उत्तरी क्षेत्र में चीन के साथ वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) की निगरानी का जिम्मा संभाल रही 14वीं कोर सीमा पर चौकसी बढ़ाने के लिए कम से कम 10 से 15 लंबी दूरी के हेरॉन यूएवी और 20-25 मल्टी-चॉपर्स की खरीद की तैयारी कर रही है.
भारत के अपने सैन्य भंडार में सीमित संख्या में निगरानी ड्रोन और कुछ युद्धक सामग्री ही हैं.
पिछले साल ऊंचाई वाले स्थानों पर निगरानी में जुटी सेना को हवाई निगरानी के लिए लगभग 600 स्पाईलाइट मिनी-यूएवी मिले थे. इसे साइंट सॉल्यूशन एंड सिस्टम्स (सीएसएस) द्वारा बनाया गया है, जो इजराइल के ब्लूबर्ड एरो सिस्टम्स और साइंट लिमिटेड का एक संयुक्त उपक्रम है. सेना के पास हैरोप लाइटरिंग म्यूनिशन भी है, जिसकी खरीद 1990 के दशक के अंत में इजराइल से की गई थी. इसके साथ ही इजरायल से ही सर्चर एमके-11 और हेरॉन भी खरीदे गए थे.
भारत इसके अलावा अमेरिका से कई जीए-एएसआई एमक्यू -9 रेपर्स खरीदने की संभावनाएं भी तलाश रहा है.
भारत को विदेशों से महंगे सशस्त्र ड्रोन खरीदने के बजाय स्वदेशी ड्रोन तकनीक पर बड़ा निवेश करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, क्योंकि तमाम विदेशी ड्रोन युद्ध की स्थिति में दुश्मन के खिलाफ बहुत ज्यादा कारगर साबित नहीं होंगे.
समय आ गया है कि भारत युद्ध के मैदान में दुश्मन का मुकाबला करने के लिए मानवशक्ति के बजाय प्रौद्योगिकी क्षमता हासिल करने पर विचार करे.
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(विचार लेखक के निजी हैं)
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