अपनी विश्वप्रसिद्ध कृति एनिहिलेशन ऑफ कास्ट यानी जाति व्यवस्था का विनाश की दूसरी भूमिका में बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर ने गांधी के सवालों का जवाब देते हुए लिखा था कि – ‘दुनिया को उन विद्रोहियों का शुक्रगुज़ार होना चाहिए, जिन्होंने धर्मगुरुओं के सामने खड़े होकर तर्क-वितर्क किया और उन्हें बताया कि आप गलत भी हो सकते हैं. मुझे नहीं मालूम कि किसी प्रगतिशील समाज में जो श्रेय विद्रोहियों को मिलता है, वैसा कोई श्रेय मुझे मिलेगा या नहीं. मैं अगर हिंदुओं को ये समझा पाया कि वे भारत के बीमार लोग हैं और उनकी बीमारी की वजह से देश के बाकी लोगों की सेहत को खतरा है, तो मैं समझूंगा कि मैंने अपना काम कर दिया है.’(एनिहिलेशन ऑफ कास्ट, दूसरा संस्करण, 1937 की भूमिका से)
अब इसके संदर्भ में मुंबई में पोस्ट ग्रेजुएशन कर रही आदिवासी छात्रा डॉ. पायल तडवी की खुदकुशी को देखें. डॉ. पायल ने आत्महत्या कर ली, क्योंकि तीन महिला डॉक्टरों ने रैगिंग के नाम पर उसका जातिगत उत्पीड़न किया! अब आरोपी तीनों सवर्ण रेजिडेंट डॉक्टर्स कानून के कठघरे में हैं! उन्हें सस्पेंड कर दिया गया है और उनकी गिरफ्तारी भी हो चुकी है. लेकिन डॉक्टर बनने का सपना लिए पायल मास्टर्स डिग्री लेने से पहले ही मार दी गईं!
इसके पहले हाल ही में एक वीडियो वायरल हुआ जिसमें एक युवती अपने युवा मित्रों की मंडली में बेहद शर्मनाक तरीके से एक खास जाति का नाम लेकर आपराधिक जातिबोधक टिप्पणियां कर रही थी, नफरत की इन्तहा को ज़ाहिर कर रही थी. जब उनके ही एक साथी ने धोखे से यह वीडियो किसी को भेजा तो वह वायरल हो गया और उसके बाद अपने साथी सहित उस युवती ने हाथ जोड़ कर माफी मांगते हुए एक वीडियो जारी किया कि उससे गलती हो गई.
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इससे पहले उत्तराखंड में टिहरी के कोटगांव में ऊंची कही जाने वाली जाति के लोगों ने एक दलित युवक को सिर्फ इसलिए पीट-पीट कर मार डाला कि उसने सवर्णों के सामने ही उनके बराबर कुर्सी पर बैठ कर खाना शुरू कर दिया था. दूसरी ओर, गुजरात के ल्हौर गांव में सभी दलितों का बहिष्कार कर दिया गया था, और उन्हें किसी दुकान से कोई सामान खरीदने या बेचने पर पाबंदी लगा दी गई थी कि एक दलित युवक ने अपनी शादी के लिए घोड़ी पर चढ़ने की ‘हिमाकत’ की थी.
हाल की ऐसी कई घटनाएं हैं, जिनके किसी तरह दुनिया के सामने आ जाने के बाद दलितों के खिलाफ आपराधिक हरकत करने वालों ने बेहद मासूमियत से गिड़गिड़ाते हुए माफी मांगी, किसी भी तरह का भेदभाव नहीं करने की दुहाई दी और सबकी बराबरी का राग अलापा.
सवाल है कि ऊंची कही जाने वाली जातियों ने अपने आपराधिक सामंती बर्ताव के बाद किन हालात में माफी मांगी और अगर वे किसी तरह कठघरे में खड़े नहीं किए गए होते तब भी क्या वे गिड़गिड़ाने की मुद्रा में इस तरह अपनी गलती को कबूल करते?
एससी-एसटी एक्ट की उपयोगिता साबित हुई
फिलहाल भारत का संविधान सभी नागरिकों को समानता का अधिकार देता है और उसमें दर्ज एससी-एसटी (अत्याचार निवारण) एक्ट दलित-आदिवासियों को ब्राह्मणवाद के सामंती मानस से संरक्षण प्रदान करता है, तब दलित तबकों के खिलाफ आपराधिक बर्ताव की यह हालत है. इसके बरक्स बस कल्पना कर सकते हैं कि अगर भारत का मौजूदा संविधान नहीं होता और उसमें भी अनुसूचित जाति-जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम नहीं होता, इसका डर नहीं होता, तब दलित तबके में आने वाली जातियों के साथ क्या और किस तरह के बर्ताव हो रहे होते!
आखिर वे कौन-से हालात थे कि महज कुर्सी पर बैठ कर बराबरी से खाना खाने के चलते किसी युवक को पीट-पीट कर मार डाला गया? किन वजहों से ऊंच कही जाने वाली जात के लोगों को लगता है कि दलितों को घोड़ी पर चढ़ कर शादी करने नहीं जाना चाहिए और अगर वे जाते हैं तो उस बरात के रास्ते में सड़क के बीच में भजन-कीर्तन करके बाधित कर दिया जाता है. किन वजहों से एक आधुनिक युवती अपने दफ्तर के एक आधुनिक माहौल में दोस्तों के बीच पूरी हिम्मत से नफरत के ज़हर से भरी जातिबोधक टिप्पणियां करती है?
बराबरी की चाहत पर हिंसक हमला
दरअसल, ऐसे लगभग सभी मामलों में वजह यह होती है कि जिनका जन्म ‘नीच’ कही जाने वाली जातियों में हुआ है, वे बराबरी या सम्मान की मांग क्यों कर रहे हैं! उनकी आर्थिक स्थिति कैसे अच्छी हो सकती है! वे पारंपरिक और कई बार अपमानजनक पेशों को छोड़ कर दूसरे पेशे क्यों अपना रहे हैं!
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दलित तबके की एक जाति के खिलाफ नफरत का जहर उगलती युवती को परेशानी है कि ‘उस जाति को माथे पर क्यों बैठा रखा है, जबकि उनकी कोई ‘औकात’ नहीं होती है!’ उत्तराखंड में दलित युवक कुर्सी पर बैठ कर सवर्णों के बराबर स्तर पर बैठ कैसे खाने लगा! गुजरात में दलितों ने मरे हुए जानवर उठा कर फेंकने का पेशा क्यों छोड़ दिया! यानी दलितों के जीवन में बेहतरी और बराबरी ऊंच कही जाने वाली जातियों को बर्दाश्त नहीं है और इसे रोकने के लिए वे किसी भी हद तक जाकर असभ्य और बर्बर हो जाते हैं! बेशक ऐसे लोग दिमागी तौर पर गंभीर रूप से बीमार हैं!
लेकिन अब वे माफी क्यों मांग रहे हैं?
लेकिन इस तरह के व्यवहारों के बाद जैसे ही कानूनी कार्रवाई के हालात सामने आए, सभी मामलों में सबके सब माफी की मुद्रा में चले गए. सामंती मानस में जी रहे लोगों के लिए माफी मांगना एक सहज स्थिति नहीं है.
तो क्या यही वजह है कि हाल के वर्षों में एससी-एसटी (अत्याचार निवारण) कानून को कमज़ोर करने की कोशिश हुई या फिर उसे खत्म करने की मांग ऊंची कही जाने वाली जातियों की ओर से की जाती है? इस कानून के दुरुपयोग को लेकर जितनी भी बातें कही कई हैं, वे लगभग सभी तर्क और यथार्थ की कसौटी पर खोखली और बेईमान साबित हुई हैं. फिर क्या वजह है कि हिंदू समाज में समर्थ और ताकतवर कही जाने वाली जातियां अपने लिए इस कानून से छूट या इसे कमज़ोर करने की मांग करती हैं? क्या इसके पीछे मंशा यह है कि सवर्ण जातियों को जाति की बुनियाद पर खड़ी एक अमानवीय भेदभाव, अत्याचार और नफरत की मानसिकता के निर्बाध प्रदर्शन की पूरी आज़ादी मिले?
हाल ही में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री और भाजपा नेता योगी आदित्यनाथ के एक बयान को याद किया जा सकता है, जिसमें उन्होंने समाजवादी पार्टी के मुखिया और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को कहा था कि अगर संविधान नहीं होता तो वे किसी ज़मींदार के घर चारा खिला रहे होते. यानी असली समस्या संविधान है, उसमें मौजूद वे कानून और अधिकार हैं, जो दलित-पिछड़ी जातियों के युवाओं की ताकत हैं. शायद यही वजह है कि संविधान और कानून समाज में सामंती और सवर्ण मानस में जीते लोगों को अपने लिए बाधक लगते हैं.
सवर्णों के बीच समाज सुधार आंदोलन की ज़रूरत
एक ओर जहां दुनिया भर में सभ्य समाजों में जहां समर्थ और सत्ताधारी समूहों के बीच से ही बड़ी तादाद में लोग सामने आए और उन्होंने वंचित और अत्याचार के शिकार तबकों के मानवीय और दूसरे तमाम अधिकारों के पक्ष में एक मज़बूत लड़ाई खड़ी की, यहां तक कि बहुत सारे लोगों ने अपनी जान भी दे दी, वहीं हमारे देश में सत्ताधारी जातियों-तबकों के बीच इस इक्कीसवीं सदी के दूसरे दशक के आखिर में भी अमानवीय, असभ्य, सामंती और आपराधिक मानसिकता हावी है, जिसमें वे कमज़ोर जातियों का दमन करके, उनका हक मार कर अपनी श्रेष्ठता की कुंठा का शमन करना चाहते हैं.
भारत में ऊंची कही जाने वाली या सवर्ण जातियां अगर आज भी इस पिछड़े हुए असभ्य मानस में जीती हैं और अक्सर ऐसा व्यवहार करती हैं तो क्या यह उनके गंभीर रूप से बीमार होने का सबूत नहीं है? यह ध्यान रखा जाना चाहिए कि एक व्यक्ति अगर दिखने में सामान्य लगता है, लेकिन उसकी हरकतें सहज नहीं होती हैं तो उसे या तो अपराधी माना जाता है या फिर मनोरोगी. ऐसी स्थिति में उसे या तो कानूनन सजा दी जाती है या फिर उसे मनोरोगी मान कर उसका इलाज कराया जाता है.
दोनों ही स्थितियों में उन्हें किसी सभ्य समाज का हिस्सा नहीं माना जा सकता. ऐसे लोगों के लिए देश के सत्तातंत्र को विशेष व्यवस्था करके या तो सज़ा दिलानी चाहिए या फिर उनके इलाज की व्यवस्था करनी चाहिए. उन्हें मानवीय और संवेदनशील बनाने के लिए सामाजिक प्रशिक्षण की एक व्यापक योजना भी शुरू की जा सकती है, ताकि वे असभ्य से सभ्य बन सकें.
(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं और यह इनके निजी विचार हैं)
Jab tak dalit humlawar nahi bantey tab tak savran kahlaney Waley log apna raweya nahi badlegeyn
सब हमलावर हो कर एक दूसरे को मार डालो, बाबा साहब ने संविधान क्या आचार डालने के लिए बनाया था, अगर खुद ही सब फैसले करने थे तो