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Thursday, 3 April, 2025
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अन्ना हज़ारे पर मत हंसिए, वे तो खुद ही मोहरा बनकर रह गए हैं

एक समय था जब अन्ना को आज का महात्मा कहा गया था, वे आज उस दौर को वापस लाना चाहते हैं लेकिन उन्हें इसलिए खारिज मत कीजिए कि वे अरविंद केजरीवाल की महज एक कठपुतली बनकर रह गए थे.

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अन्ना हज़ारे ने एक और आंदोलन शुरू करने की घोषणा की और उसे रद्द कर दिया. अक्सर वे ऐसा कुछ करते रहे हैं कि वह खबर भी नहीं बन पाती. फिर भी, कुछ उदारवादी लोग, खासकर कांग्रेसी मानसिकता वाले लोग कहते हैं कि हमने आपको कहा ही था कि अन्ना एक ढोंगी हैं. उनका एकमात्र मकसद था यूपीए-2 को बदनाम करना और नरेंद्र मोदी को सत्ता दिलाना. लोकपाल आंदोलन तो ‘आरएसएस की चाल’ थी, वगैरह-वगैरह.

ऐसी तमाम बातें उस बुजुर्ग के प्रति नाइंसाफी है, ये तथ्यात्मक रूप से सही नहीं हैं.

पहली बात तो यह कि लोकपाल आंदोलन ने मनमोहन सिंह सरकार को अलोकप्रिय नहीं बनाया था. उसने यूपीए -2 से बढ़ते मोहभंग को आवाज़ दी. उसने उस भावना को ठोस रूप दिया, लेकिन वह भावना पहले से मौजूद थी. जब तक लोकपाल आंदोलन आया, भ्रष्टाचार के मामलों और घोटालों की लाइन लग चुकी थी, अपना घर ठीक हाल में न रख पाने की सरकार की अक्षमता सामने आ चुकी थी. और, सबसे बढ़कर, महंगाई इतनी बढ़ चुकी थी कि हर कोई परेशान हो रहा था.

दूसरे, अन्ना हज़ारे तो लोकपाल आंदोलन के लिए अरविंद केजरीवाल द्वारा पहना गया एक मुखौटा थे. जब उस मुखौटे की जरूरत नहीं रही, उसे फेंक दिया गया. केजरीवाल ने ‘इस्तेमाल करो और फेंको’ को आगे चलकर अपनी शैली बना लिया, क्योंकि आम आदमी पार्टी ने योगेन्द्र यादव और प्रशांत भूषण के साथ भी यही किया. यह बताता है कि एक राजनीतिक नेता के रूप में केजरीवाल कितने निर्मम हो सकते हैं. वैसे, क्या यह आजकल के नेताओं की विशेषता नहीं मानी जाने लगी है?

सवाल यह है कि अन्ना का क्या? क्या उनके इरादे बुरे थे? असली अन्ना कौन है? वे उस समय क्या चाहते थे, और आज क्या चाहते हैं? आज ये सारे सवाल राजनीतिक लिहाज से बेमानी हो सकते हैं, लेकिन सिर्फ उत्सुकता को शांत करने के लिए इनके जवाब चाहिए. आखिर, अन्ना हज़ारे ने आधुनिक भारत के इतिहास के एक अहम अध्याय में अपनी जगह बनाई थी.


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फिर से, ‘मैं भी अन्ना’

आगे इतिहासकार जब इस दौर का इतिहास लिखें तब उनके लिए मुंबई के सामाजिक कार्यकर्ता मयंक गांधी की किताब ‘आप ऐंड डाउन’ जरूर पढ़नी चाहिए. इस किताब में गांधी ने लोकपाल आंदोलन को अन्ना आंदोलन में बदलने का दावा किया है. केजरीवाल या ‘आप’ ने उनके इस दावे का खंडन नहीं किया है. किताब के मुताबिक, आरटीआइ एक्टिविस्ट केजरीवाल ने लोकपाल आंदोलन शुरू करने की योजना बनाई और मयंक गांधी से इससे जुड़ने का अनुरोध किया. केजरीवाल इसी तरह देश भर में विभिन्न पृष्ठभूमि और राजनीतिक विचार वाले, वामपंथी और दक्षिणपंथी, सभी लोगों के पास गए थे. मयंक गांधी को उनका विचार पसंद आया, लेकिन सवाल यह था कि इस आंदोलन का चेहरा कौन होगा?

यह काफी अहम सवाल था. हर आंदोलन को एक चेहरे की जरूरत और तलाश होती है, और जब उसका कोई चेहरा नहीं होता तो मीडिया चुन लेती है. गांधी का कहना है कि केजरीवाल तुरंत सहमत हो गए कि यह एक मुद्दा बन सकता है और उन्होंने उनसे पूछा कि क्या उनके दिमाग में किसी का नाम है? गांधी ने अन्ना हज़ारे का नाम लिया और उनका इस्तेमाल करने के पक्ष-विपक्ष में तर्क भी रखे. गांधी ने अन्ना के अहं और आत्म-प्रशंसा भाव के बारे में बताया और यह भी कहा कि उनके राजनीतिक विचार अस्पष्ट हैं, कि वे जिद्दी हैं और अपनी मंडली से घिरे रहते हैं, उनका तौर-तरीका मनमाना किस्म का है.

आज अन्ना की ये विशेषताएं हम देख चुके हैं. लोकपाल आंदोलन के दौरान हम देख चुके हैं कि वे किस तरह मीडिया को अपनी ओर आकर्षित करने की कोशिश में लगे रहते थे. वे आंदोलन का चेहरा ही नहीं, राष्ट्रपिता भी बनना चाहते थे. यही वजह है कि देश को फिर से आंदोलित करने की उम्मीद में वे जब-तब अनशन पर बैठने और प्रदर्शन करने की घोषणाएं करते रहते हैं.

वे फिर से उस दौर को वापस लाना चाहते हैं जब लोग ‘मैं भी अन्ना’ वाली टोपी पहने नज़र आते थे. वे सिर्फ सबकी नज़रों में बने रहना चाहते हैं. वे नरेंद्र मोदी नहीं, तो कम-से-कम कंगना रणौत तो बनना ही चाहते हैं. अगर उनकी उम्र आज 20 साल कम होती और वे लोगों को ट्वीटर के जरिए उकसाना जानते, तो उनके कामयाब होने की संभावना हो सकती थी.


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एक चेहरे की जरूरत

बहरहाल, इस बात से कोई इनकार नहीं कर सकता कि मयंक गांधी और केजरीवाल का आकलन बिलकुल सही था. लोकपाल आंदोलन के चेहरे के तौर पर अन्ना हिट हो गए. मयंक गांधी ने अपनी किताब में जो भी कारण बताए हैं उनके बावजूद अन्ना गांधीवादी हैं, और गांधीवाद ऐसा विचार तथा कार्यपद्धति है जिसे आज भी भारत में काफी समर्थन हासिल है. अन्ना किसी स्पष्ट विचारधारा के खांचे में फिट नहीं होते, न वे धुर वामपंथी थे और न धुर दक्षिणपंथी. सबसे अहम बात यह थी कि उनकी साख भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए बिलकुल उपयुक्त थी. इससे पहले वे आमरण अनशन करके कुछ मंत्रियों से इस्तीफा दिलवा चुके थे. ग्रामीण विकास को दिशा देने वाले व्यक्ति और आरटीआइ कार्यकर्ता के रूप में वे नाम कमा चुके थे. लोकपाल विधेयक के बारे में वे अच्छी समझ रखते थे.

इसलिए, जो लोग अन्ना के प्रति सम्मोहित थे वे एक ऐसे विचार का समर्थन कर रहे थे जिसके वे एक चेहरा बन गए थे. क्या वे लोग आज उसको लेकर शर्मिंदा हैं? बिलकुल नहीं, उनके लिए वह भी एक दौर था. अगर आपको यह लगता है कि अन्ना आंदोलन जिस राजनीतिक बदलाव के लिए हुआ था उसे हासिल करने में विफल रहा, तो इसके लिए केजरीवाल दोषी हैं.

अन्ना तो दरअसल मोहरा बनकर रह गए.

बहरहाल, अन्ना हज़ारे की कहानी का सबक यही है कि ऐसे विश्वसनीय चेहरे की अहमियत हमेशा रहेगी जिसमें बदलाव के लिए आवाज़ उठाने का साहस हो. कल्पना कीजिए कि आज देश में विपक्ष के पास ऐसा कोई चेहरा होता!

(लेखर दिप्रिंट के कॉन्ट्रिब्यूटिंग एडिटर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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