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Thursday, 25 April, 2024
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जम्हूरियत के जागीरदारों के खेतों में फूटती लोकतंत्र की नई कोंपलें

हम जिस दौर का सामना कर रहे हैं, वह बहुत ही तमतमाया हुआ है. इसलिए कि कुछ शक्तियां आम लोगों के विवेक का अपहरण सुनियोजित तरीकों से कर रही हैं. उनका चेहरा दिख तो सात्विक रहा है लेकिन वह भीतर से क्रोधान्वेषित हैं.

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देखो-देखो
वे आज़ाद आदमी से डरते हैं,
सारी दुनिया आज़ाद आदमी से डरती है
क्योंकि उसकी हथेलियां इस दुनिया को रचती हैं
और फूल और सांप के फनों का अंतर नहीं जानतीं
उन्हें एक-सा थाम लेती हैं.

-सर्वेश्वरदयाल सक्सेना (‘एक बस्ती जल रही है’ में)- (13 अप्रैल, 1971)

पत्रकारिता की बगिया में रातरानियां नागफनी हुए जा रही हैं, तब नई कोंपलें खिल रही हैं और उनकी महक सुदूर फैल रही है. नवोदित पत्रकार मनदीप पूनिया को किसान आंदोलन की कवरेज़ के दौरान गिरफ्तार करके पुलिस ने तिहाड़ भेजा. पिछले साल इन्हीं दिनों उत्तर प्रदेश में चौरीचौरा से राजघाट तक शांति-यात्रा निकालते हुए प्रदीपिका सारस्वत और नौ युवतर नागरिकों को योगी सरकार ने जेल भेजा था. किसी पत्रकार के लिए किसी कवरेज़ के मामले में जेल जाना किसी बड़े पुरस्कार का सा एहसास देता है. ये लोकतंत्र की धमनियों को नया रक्त मिलना है.

किसी अच्छे लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की आज़ादी और जन-आंदोलन दरअसल गणतंत्र की देह के झूम उठने का स्वाद होता है. लेकिन जब भी कोई आंदोलन होता है तो वह किसी सुनसान चौराहे पर हजार सारंगियों के एक साथ बजने और उन असभ्य लोगों के दुर्भाग्यशाली कानों से टकराने जैसा भी होता है, जिनके लिए इससे बुरा शोर कुछ हो ही नहीं सकता. जन-आंदोलन कोलकाता की ट्रेन में मधुबनी की किसी पेंटिंग जैसा भी लग सकता है और वह अभयमुद्रा में उठा कोई पवित्र हाथ भी हो सकता है.

हम जिस दौर का सामना कर रहे हैं, वह बहुत ही तमतमाया हुआ है. इसलिए कि कुछ शक्तियां आम लोगों के विवेक का अपहरण सुनियोजित तरीकों से कर रही हैं. उनका चेहरा दिख तो सात्विक रहा है लेकिन वह भीतर से क्रोधान्वेषित हैं.

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आज मीडिया विज्ञानी जॉर्ज गर्बनर भारत में हाेते तो संचार थ्योरियों के चेहरों को कुरूपतम रूप में देखते. सोशल मीडिया के माध्यम से दिन भर अबाध खास तरह के विचारों को ग्रहण करने और निरंतर सुनते रहने का असर यह है कि लोग दिशा-ज्ञान भूलने के अचरज से प्रफुल्लित हैं. वे लोकतंत्र विरोधी आचरण से सम्मोहित हैं. दिशा-ज्ञान भूल जाने वाले दिशा-ज्ञान भुला देने वालों से सम्मोहित हैं. हालात ने इन सबको नींद में चलने वाले व्यक्तियों में बदल दिया है. यह सब एक हाइपोथिसिस के माध्यम से हो रहा है. इसकी कुछ डेमोग्रैफिक कैरेक्ट्रिस्टिक्स हैं. ये अब पहले से अधिक शार्प और साॅफस्टिकेटिड है.

इसका एक बड़ा कारण प्रतिपक्ष की कमज़ोर और निस्तेज भूमिका है. वह सिर्फ बयानों तक सीमित है.

आप कल्पना कीजिए, केंद्र में सरकार कांग्रेस की होती, किसान इस तरह आंदोलित होते, मीडिया कांग्रेस के समर्थन में किसानों को खालिस्तानी कह रहा होता और पत्रकारों की गिरफ्तारियां हो रही होतीं और आंदोलन के सुशिक्षित चेहरों के घरों पर पत्थर फेंके जा रहे होते तो भाजपा क्या उसी तरह रहती, जैसी आजकल कांग्रेस है?

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में यह प्रश्न भी पूछा जा रहा है कि स्वतंत्रता कितनी हो? आंदोलन हो कि न हो! आंदोलन कितना लंबा हो! आंदोलन किन मुद्दों पर हो! आंदोलन हो तो सही, लेकिन सरकार को कष्ट न हो! आंदोलन मानो सरकार की इज़ाजत और उसके प्रसाद पर्यंत चलने जैसी कोई चीज़ हो!


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आंदोलन लोकतंत्र के बचपने में लोरी भी होती है और तरुणाई में अधपका संकल्प भी. लोकतंत्र में आंदोलन ही नहीं होंगे तो वह लोकतंत्र लोकतंत्र रहेगा कैसे? वह एक बड़े सुविधा संपन्न और अत्याधुनिक सेवन स्टार हॉस्पीटल की मोर्चरी जैसा हो जाएगा. कांग्रेस की सरकारों के समय आरएसएस और भारतीय जनता पार्टी से लेकर कम्युनिस्ट पार्टी या समाजवादी लोग तक मीडिया को बार-बार उकसाते थे. मानो मीडिया का काम सरकार में बैठे सत्ताधीशों और सरकारी तंत्र के लोगों से प्रश्न पूछना, उकसाना और उन्हें नाराज़ तक करना भी हो. और यह होता भी था. इसके पीछे एक जायज तर्क भी था. वह यह कि मीडिया की इस तरह की भूमिका और भाव-भंगिमा के बिना उसकी उपस्थिति का अर्थ नहीं.

किसान आंदोलन का विरोध करने वाले लोग कौन हैं? वे जो आज पूर्ण स्वतंत्रता को भोग रहे हैं, सुविधा संपन्न हैं. मोटी तनख्वाहें हैं, बेहतरीन कारें हैं, पॉश कॉलोनियों में आवास हैं, बड़े फॉर्म हाउस हैं, राजनीति, सरकार, सत्ता, अफसरशाही और बड़े कारपोरेट घरानों के साथ सघन रिश्ते हैं. ये आज की जम्हूरियत के जागीरदार हैं. लोकतंत्र के नए नवाब हैं. लेकिन जिनके लिए ये सब बहुत दूर हैं, उनके लिए लोकतंत्र या स्वतंत्रता उस मरुस्थलीय किसान की प्यास है, जो सुदूर रेगिस्तान में दिन भर खटता है.

कुछ लोगों ने धरना दे रखा है. वे किसान हैं, मज़दूर हैं, हिन्दुत्ववादी हैं या समाजवादी हैं या कि मानवतावादी या फिर नागरिक अधिकारवादी, इससे क्या! मतलब इस बात से है कि क्या हम में यह हिम्मत है कि इन दिनों उठ रहे आंदोलनों और आंदोलनकारियों के सिर कुचलने के लिए कुछ बहकाए भरमाए हाथों में जो लाठियां और जो पत्थर हैं, क्या उन्हें हम अपने लोकतंत्र की नींव की चट्टानों और हमारे लोकतंत्र के घर की छतों के शहतीरों में बदल पाएंगे?

सरकार किसी की हो, कम्युनिस्टों की हो, हिन्दुत्ववादियों की, समाजवादियों की हो या कांग्रेस की, बौद्धों की हो या इस्लामिस्टों की- उसका चरित्र तो कमोबेश एक जैसा ही होता है लेकिन लोकतंत्र की चीख सुनकर अगर हम बघनखे पहन पर निकल पड़ेंगे तो गांधी नेपथ्य में चले जाएंगे और नथूराम गोडसे उत्सवी परिधान में सजकर सत्तासीन हो जाएगा!

लिहाजा, पत्रकारिता, स्वतंत्रता और आंदोलनों के लिए और इनके उपक्रम के दौरान उत्पीड़न का स्वागत होना चाहिए ताकि प्रतिरोध प्रभावी और अहिंसक हो. इस समय बहुत से लोग आंदोलनों या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के पक्ष में मूल्यह्रास के साथ लोकतांत्रिकता का समर्थन करते हैं, सही नहीं है. यह ऐसा ही है, मानो आप ज़मीन की जुताई के बिना फसल चाहें. बिना गरज-बरस और बिजली के बारिश चाहें. बाढ़ के बिना नदी कैसी और उफान के बिना समुद्र कैसा.

हिंसा, कपट और अनैतिकता पर टिकी संघर्ष प्रणालियों की खुशखबरियाें को शोकांतिकाओं में तब्दील होते देर नहीं लगती. अहिंसा की अस्थियों और नैतिकता के लोहू में डूबी मांसपेशियों वाला लोकतंत्र वह चांदनी और तारकाभा उलीचेगा, जिसके सामने ‘छप्पन इंच के सीने वाली सत्ता’ का धूमकेतु निस्तेज नज़र आएगा.

(लेखक एक पत्रकार हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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