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गुरूवार, 26 जून, 2025
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जाति जनगणना से डरिए मत शेखर गुप्ता, प्राइवेट सेक्टर में जातीय असमानता की तरफ देखिए

यह कहना क्रूरता ही होगी कि वंचित तबके पब्लिक सेक्टर के विस्तार का इंतजार करें या संगठित निजी क्षेत्र से ज्यादा जुड़ाव की अपीलों पर निर्भर रहें.

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भारतीय जनता पार्टी का वर्चस्व जारी रहने का एक अनपेक्षित परिणाम यह है कि इसने विपक्ष के बुद्धिजीवियों में विभाजनों को पाट दिया है. दो दशक पहले के हालात के मुकाबले, कुछ ही टीकाकारों ने जातिगत जनगणना भी करवाने की ताज़ा घोषणा का सीधा विरोध किया है. इसकी जगह वह तकनीकी मसलों को लेकर शोर मचा रहे हैं. इस बीच, भाजपा समर्थक बुद्धिजीवी तो पार्टी की लाइन पर चल ही रहे हैं.

इस लिहाज़ से शेखर गुप्ता ने अपने विचार पर कायम रहकर साहस दिखाया है. उनका तर्क है कि जातिगत जनगणना जाति आधारित जनकल्याणवाद में बदलकर रह जाएगी और आखिरकार प्राइवेट सेक्टरों में भी आरक्षण लागू हो जाएगा. प्रगति के बारे में उनकी जो योजना है उसके लिए इनमें से किसी की ज़रूरत नहीं है.

गुप्ता के नज़रिए को हस्तक्षेप से परहेज़ करने वाला उदारवाद कहा जा सकता, जो कि व्यक्तिगत स्वाधीनतावाद की विशेषता है, लेकिन हमें यहां वैचारिक मीनमेख निकालने की ज़रूरत नहीं है. यह कहना काफी होगा कि गुप्ता मुक्त बाज़ार व्यवस्था के पक्ष में भी इस तरह के तर्क दे चुके हैं और वे कब की बेमानी हो चुकी स्वतंत्र पार्टी को बड़ी हसरत से याद करते हुए उसका समर्थन करते हैं.

फिर भी, जातिगत जनगणना के बारे में अर्जेंटीना के राष्ट्रपति ज़ेवियर मिलेई (जो खुद व्यक्तिगत स्वाधीनतावादी थे) के शब्दों को उधार लेते हुए, कहा जा सकता है कि यह तर्क “जातीय हितों की रक्षा के लिए एक भले मकसद का इस्तेमाल करना है”. मिलेई ने ‘जाति’ शब्द को हमेशा अर्जेंटीना के कुलीन तबके की उपमा के तौर पर इस्तेमाल किया है, जबकि भारत में जाति एक वास्तविकता है. फिर भी, मिले के जाति विरोधी अभियान का मतलब है : जातीय वर्चस्व और बाज़ार की आज़ादी मूलतः एक-दूसरे के विपरीत है. भारत में नियमन मुक्त पूंजीवादी अर्थव्यवस्था सामंती नियमनों को लागू करने से ज्यादा कुछ नहीं करती.

बाज़ार जाति को मिटाता नहीं, उसे नया रूप देता है

पिछले महीने छपी एक स्टडी में कहा गया है कि इस बात के शायद ही कोई प्रमाण मिलते हैं कि निचली जातियां (दलित और ओबीसी, हिन्दू और मुसलमान) जाति आधारित पेशों से मुक्त हुई हैं. इस स्टडी ने उत्तर प्रदेश में सर्विस सेक्टर की ग्रेड ए और बी की नौकरियों, बिजनेस के क्षेत्रों के रोज़गारों में हिंदुओं की सामान्य जातियों की पीढ़ी-दर-पीढ़ी की प्रमुखता पाई है. नाममात्र की मुक्ति, जॉन स्टुअर्ट मिल के शब्दों में कहें तो, “प्रथा की तानाशाही: के बोझ से दबी इस विशाल आबादी के लिए शायद ही कोई मायने रखती है”.

पाठक कह उठता है : ‘ओह उत्तर प्रदेश!’ लेकिन अफसोस की बात यह है कि यह केवल एक राज्य तक सीमित नहीं है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चाय बेचने की कहानियों से ऊब कर मल्लिकार्जुन खरगे ने एक बार चुनावी भाषण में उन्हें याद दिलाया कि अगर उनका परिवार सच में चाय बेचता था तो कोई भी उनकी बनाई चाय नहीं पीता होगा. खरगे कर्नाटक के हैं. माकपा सांसद के. राधाकृष्णन यह बता चुके हैं कि केरल के कोट्टायम में एक दलित व्यक्ति ने सोडा बनाने की फैक्ट्री लगाई थी और किस तरह उसका मूक बहिष्कार किया गया था.

शोधकर्ता और पब्लिक पॉलिसी प्रोफेसर असीम प्रकाश ने कई दलित उद्यमियों से बातचीत करके जो स्टडी पेश की है, उससे पता चलता है कि जाति और पूंजीवाद के बीच का रिश्ता योग्यता और कुशलता के बारे में अमूर्त धारणाओं के मुताबिक नहीं चलता. यह सामाजिक संबंधों से गहराई से जुड़ा है और आधुनिक बाज़ारवादी आदर्शों में निहित व्यक्ति निरपेक्ष करारों से संचालित नहीं होता.

इसी तरह, बारबरा हैरिस-व्हाइट का कहना है कि जातीय नेटवर्क बिजनेस को रेगुलर चलाने में निर्णायक भूमिका निभाता है. ऊंची जातियां इस तरह के नेटवर्कों का सबसे ज्यादा फायदा उठाती हैं. उधर दलितों के पेशेगत संबंध कलंकित माने गए उद्योगों (चमड़े के काम, सफाई, ईंट भट्टी, कचरा शोधन) के निचले स्तरों पर उनकी बहुलता से मजबूती पाते हैं. इन मामलों के बारे में कम ही लिखा गया है, लेकिन जो लिखा गया है वह निर्णयात्मक है.

असीम प्रकाश के नज़रिए से कहें तो यह बहिष्कार के स्वरूप को नहीं बल्कि ‘प्रतिकूल समावेशन’ को उजागर करता है जिसमें दलित लोग बाज़ार में समान शर्तों पर भागीदारी करते हैं. ये शर्तें जातिगत पदानुक्रमों से तय होती हैं.

पश्चिम के उदार समाजों में अनाक्रामकता की जगह अहस्तक्षेप का सहारा लिया जाता है क्योंकि राज्य अक्सर सबसे आक्रामक भूमिका में होता है, लेकिन दलितों की सामाजिक स्थिति एक विपरीत उदाहरण पेश करती है. उनके लिए सुरक्षा हस्तक्षेप के ज़रिए आती है; अहस्तक्षेप का अर्थ है कि बाकी जातीय समाज की ओर से हर दिन आक्रामकता का सामना करना पड़ता है.

कई नृवंशविज्ञान के आधार पर डेविड मोस्से का कहना है कि जातीय पहचान अक्सर सूक्ष्म तथा पहचाने न जाने वाले तरीकों शहरी रोजगार अवसरों को स्वरूप प्रदान कर रही है. गतिरोध में पड़े कृषि क्षेत्र से आने वाले लोगों का रोज़गारों के लिए चयन उनके हुनर, उनकी असुरक्षा, उनके खतरों, उनके कुप्रभावों और उनकी हैसियत के आधार पर किया जाता है. ये सभी बातें काफी कुछ व्यक्ति की जाति से तय होती हैं. यह बात कई ओबीसी जातियों पर भी लागू होती हैं, लेकिन वर्तमान आंकड़े श्रमिक-पूंजी रिश्ते के दो ध्रुवों पर ही ज़ोर देकर और अधिकांश ओबीसी को शामिल न करके एक खालीपन छोड़ते हैं.

कौन तार्किक पूंजीवादी होगा जो यह नहीं देख पाएगा कि यह मानव पूंजी का अकुशल इस्तेमाल है?

जाति को तोड़ने के लिए मुक्त बाज़ार में राज्य का हस्तक्षेप

बाज़ार की आज़ादी उन समाजों में वास्तव में सकारात्मक शक्ति बन सकती है जिनमें सामंती तत्वों के विकास को परास्त किया जा चुका है, लेकिन जो समाज जातीय मानकों और प्रथाओं पर चल रहे हैं उनमें बाज़ार को राज्य द्वारा नियमन से अगर मुक्त किया जाता है तो इससे स्वाधीनता के विपरीत वाली स्थिति बन जाती है. मुक्त बाज़ार का विचार कहता है कि राज्य यथासंभव न्यूनतम हस्तक्षेप करे, लेकिन ज़ोर जितना ‘न्यूनतम’ पर दिया जाता है उतना ही ‘यथासंभव’ पर दिया जाना चाहिए.

न्यायपूर्ण राज्य को जातीय मानकों के खिलाफ हस्तक्षेप न करना असंभव लगेगा. व्यक्तिगत अधिकारों और निजी संप्रभुता को स्थापित करने के लिए किया जाना वाला हस्तक्षेप ही वास्तव में मुक्त बाज़ार तक पहुंच को आसान बनाएगा. उदारवादी दार्शनिक जॉन लॉक ऐसे कदमों के पक्ष में तर्क देते हैं कि एक वैध सरकार को निजी संपत्ति का सार्वजनिक उपयोग करने की अनुमति दी जा सकती है. यह निजी संपत्ति का उचित मुआवजा देने के बाद उसका सार्वजनिक उपयोग करने का सिद्धांत है.

हम जाति आधारित ‘ओलिगोपॉली’ (अल्पाधिकार) का मुकाबला करने के लिए आरक्षण जैसे उपाय आजमा चुके हैं. ये आदर्श उपाय नहीं हैं, लेकिन न्यूनतम बुरे विकल्प हैं और कारगर हैं.

निजी शिक्षा, और अंततः निजी क्षेत्र के ‘व्हाइट कॉलर’ जॉब्स में आरक्षण थोड़े समय के लिए ही असुविधाजनक होगा और इससे एससी, एसटी, और ओबीसी तबकों को काफी सीमित लाभ ही होगा. फिर भी यह इन पिछड़े समूहों को पूंजीवादी अर्थव्यवस्था से जोड़ने का अच्छा उपाय साबित हो सकता है. उनसे यह कहना क्रूरता ही होगी कि वह पब्लिक सेक्टर के विस्तार का इंतज़ार करें या संगठित निजी क्षेत्र से ज्यादा जुड़ाव की अपीलों पर निर्भर रहें.

संवैधानिक आदेश के बिना इस तरह का जुड़ाव नामुमकिन है. ऐसे जुड़ाव के बिना 70 साल गुज़र चुके हैं, इसलिए यह समस्या रातों-रात नहीं खत्म होने वाली है.

राज्य हस्तक्षेप करे या पूंजीपति अपनी दिशा बदलें, इसके लिए हमें डाटा की ज़रूरत है. जातिगत जनगणना इस तरह की स्टडीज़ और निजी क्षेत्र में धीरे-धीरे सुधार के लिए ज़मीन तैयार कर सकती है, लेकिन तभी जब विशेषाधिकार प्राप्त जातियों समेत सभी जातियों की गणना की जाए, और आर्थिक डाटा भी इकट्ठा किए जाएं.

क्रिस्टोफर हिचेन्स ने एक बार कहा था कि “एक गंभीर किस्म का शासक वर्ग अपने ही आंकड़ों के मामले में खुद से झूठ नहीं बोलेगा”. उसे आंकड़ों को दबाना भी नहीं चाहिए. मिस्टर गुप्ता यह मान कर चलते हैं कि जनगणना से पहले ही आंकड़े निजी क्षेत्र में आरक्षण की मांग को हवा दे देंगे. अगर जनगणना यह साबित कर दे कि भारत में पहले ही जातीय समानता हो चुकी है, तो हमें खुशी होगी.

समाजवैज्ञानिक आंकड़ों ने कभी किसी देश को संकट में नहीं डाला है. न ही भारत के तीन राज्यों में इकट्ठा किए गए जातीय आंकड़ों ने संकट पैदा किया है. इसलिए नतीजे के बारे में पहले से ही धारणा बना लेने की जगह सच्ची आस्था के साथ आगे बढ़ने में ही बुद्धिमानी है. वास्तव में, जनगणना जातिगत हो या न हो प्राइवेट सेक्टर में आरक्षण को लागू करने के पीछे एक उदारवादी तर्क है. सिद्धांतप्रेमी उदारवादियों को इसकी मांग करनी चाहिए, आखिर यह ‘नेशनल इन्टरेस्ट’ में है, जो कि संयोग से ‘दिप्रिंट’ में गुप्ता के वीकली कॉलम का नाम भी है.

यह लेख ‘दिप्रिंट’ के एडिटर-इन-चीफ शेखर गुप्ता के कॉलम ‘नेशनल इन्टरेस्ट’ में 3 मई 2025 को छपे लेख पर एक प्रतिक्रिया है.

सुमित समोस ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी से एमएससी ग्रेजुएट हैं. उनका एक्स हैंडल @SumitSamos है.

अर्जुन रामचंद्रन हैदराबाद यूनिवर्सिटी में पीएचडी स्कॉलर हैं. उनका एक्स हैंडल @___arjun______ है.

(व्यक्त किए गए विचार निजी हैं. इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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