scorecardresearch
Friday, 22 November, 2024
होममत-विमतट्रंप की यात्रा से पहले अहमदाबाद में खड़ी की गई 'दीवार' मोदी के गुजरात मॉडल की पोल खोलती है

ट्रंप की यात्रा से पहले अहमदाबाद में खड़ी की गई ‘दीवार’ मोदी के गुजरात मॉडल की पोल खोलती है

भारी तामझाम के साथ एक सौ करोड़ रुपये फूंककर ट्रम्प से केम छो (कैसे हैं आप) पूछने के लिए अपने बेबस नागरिकों से इतनी बेदिली से पेश आने को किसी भी तर्क से मानवीय या लोकतांत्रिक नहीं ठहराया जा सकता.

Text Size:

अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप और उनकी पत्नी मेलानिया के आगामी 24-25 फरवरी के भारत दौरे से पहले गुजरात की भारतीय जनता पार्टी सरकार का अहमदाबाद हवाई अड्डे से साबरमती आश्रम के उनके रास्ते में स्थित एक झुग्गी बस्ती को उनकी निगाहों से दूर रखने के लिए लम्बी दीवार से घेरना इस अर्थ में अभूतपूर्व है कि यह दीवार इस सरकार की निर्लज्जता के साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के पराक्रम के प्रतीक माने जाने वाले बहुप्रचारित गुजरात मॉडल की भी पोल खोलती है.

‘बांटो और राज करो’ की स्वार्थनीति के तहत जाति, धर्म, सम्प्रदाय, क्षेत्र, भाषा और संस्कृति वगैरह के नाम पर देशवासियों के बीच अदृश्य दीवारें खड़ी करने और उन्हें अलंघ्य बनाये रखकर लाभ उठाने में लगे रहने का इस देश की सत्ताओं का शगल नया नहीं है.

अमेरिका के ह्यूस्टन में गत वर्ष 22 सितम्बर को सम्पन्न हुए ‘हाउडी मोदी’ की तर्ज पर आयोजित महत्वाकांक्षी ‘केम छो ट्रम्प’ कार्यक्रम के लिए ट्रम्प दम्पत्ति अहमदाबाद स्थित इतिहास प्रसिद्ध साबरमती आश्रम भी आयेंगे.

यह बात तो पाठकों को याद ही होगी कि 2014 के लोकसभा चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी ने अपने प्रधानमंत्री पद के नये-नवेले उम्मीदवार नरेन्द्र मोदी के महत्वाकांक्षी चुनाव प्रचार में नये रंग भरने के लिए किस तरह उनके द्वारा गुजरात के लम्बे मुख्यमंत्रीकाल में इस माॅडल के तहत स्वर्ग उतार देने का दावा किया और देशवासियों को विश्वास दिलाया था कि वे प्रधानमंत्री बने नहीं कि इस माॅडल को पूरे देश में लागू कर देश का गुजरात जैसा ही कायापलट कर दिया जायेगा.

लेकिन अब मोदी के प्रधानमंत्रित्व के पौने छह साल बाद, जब कहा जाता है कि उन्होंने दुनिया भर में घूम-घूम कर भारत का मान बहुत बढ़ा दिया है. अहमदाबाद हवाई अड्डे से साबरमती आश्रम तक के रास्ते में भी इतनी गरीबी व गिरानी है, जिसके बारे में सरकारी समझ यह है कि वह ट्रम्प को दिख गई तो देश की नाक कट जायेगी और वह न दिखे, इसके लिए दीवार खड़ी करनी पड़ रही है तो यह साफ करने के लिए और क्या चाहिए कि गुजरात माॅडल का सच वह नहीं है जो अब तक हमें बताया जाता रहा है.

वह सच होता तो गुजरात में भारतीय जनता पार्टी के तीन दशकों के शासन के बाद अहमदाबाद की जगर-मगर के पीछे छिपे अंधेरे यह सिद्ध करने वाले नहीं होते कि इस माॅडल के तहत वहां गरीबी का उन्मूलन होने को कौन कहे, उसे अहमदाबाद हवाई अड्डे से कुछ किलोमीटर दूर भी नहीं ठेला जा सका है.


यह भी पढ़ें: क्या मुफ्त सुविधा देने के चुनावी वादे से मतदाता प्रभावित होते हैं


दूसरे पहलू पर जायें तो वर्तमान में जब देश की अर्थव्यवस्था मंदी के दौर से गुजर रही है और हिचकोले पर हिचकोले खा रही है, गुजरात माॅडल उसकी हालत बदलने में कतई मददगार नहीं सिद्ध हो रहा. उलटे प्रधानमंत्री और उनकी पार्टी इस माॅडल को भूल से गये हैं और उसकी चर्चा तक से परहेज बरतने लगे हैं. आश्चर्य नहीं कि अब अनेक लोगों को विपक्षी दलों का यह आरोप सही लगने लगा है कि गुजरात जैसा कोई माॅडल कभी था ही नहीं. होता तो गुजरात की बीस प्रतिशत शहरी आबादी आज भी नाना असुविधाओं के बीच झुग्गियों में रहने को अभिशप्त क्यों होती और क्यों साबरमती नदी का शुमार देश की सबसे ज्यादा प्रदूषित नदियों में होता?

लेकिन, अहमदाबाद में इंदिरा ब्रिज से सटे सरणियावास क्षेत्र में खड़ी की जा रही उक्त दीवार किसी पराये देश के राष्ट्राध्यक्ष की नज़र में देश का मान बनाये रखने के लिए उसकी बदहाली को छिपाने भर का मामला नहीं है. यह महात्मा गांधी के गुजरात में दलितों व आदिवासियों को सामाजिक न्याय दिलाने के तमाम दावों के बावजूद उनके प्रति बरती जानेवाली असहिष्णुता, असंवेदनशीलता और भेदभाव के नरेन्द्र मोदी व विजय रूपाणी के काल तक चले आने और लगातार विकराल होते जाने का भी मामला है. अन्यथा जिस सरणियावास इलाके में उक्त दीवार खड़ी की जा रही है, उसकी झुग्गी बस्ती के कोई ढाई हजार लोगों के इस सवाल की लगातार अनसुनी क्यों की जाती रहती कि सरकार उनकी गरीबी छुपाना ही चाहती है, तो दीवार खड़ी करके उनकी बस्ती को घेर क्यों रही है. बस्ती के घर पक्के क्यों नहीं करा देती कि उसकी गरीबी खुद ही नज़र आनी बन्द हो जाये? क्यों चुनाव के वक्त नेता बस्ती के निवासियों से वोट मांगने आते हैं, लेकिन वोट पा जाने बाद उनकी कतई सुध नहीं लेते?

सच्चाई यह है कि सात फीट ऊंची उक्त दीवार से उक्त बस्ती का हवा-पानी एकदम से बंद हो जायेगा और कोढ़ में खाज की सी स्थिति हो जायेगी, सीवर की व्यवस्था तो वहां पहले से नहीं है. शौचालय, बिजली और पानी की भी माकूल व्यवस्था नहीं ही है. सो, अंधेरे में गुजारा करना पड़ता है. रास्ते के नाम पर बस्ती की गलियां इस हाल में है कि लोग गिरते-पड़ते निकलते हैं. कई बार उन पर घुटनों तक पानी भर जाता है.

फिर भी भाजपा नेताओं व सरकार के मंत्रियों की असंवेदनशीलता का आलम यह है कि वे इस ओर से ध्यान हटाने का कोई उपक्रम उठा नहीं रहे. यह कहकर बस्ती वालों की बढ़ती समस्याओं को हवा में उड़ा रहे हैं कि किसी भी घर में कोई मेहमान आता है तो उसमें साफ-सफाई की ही जाती है. इनमें से किसी को तो पूछना चाहिए कि यह साफ-सफाई है या एक समुदाय को परिदृश्य से बाहर निकालकर उसके विलोपीकरण का प्रयत्न? साफ कहें तो भारी तामझाम के साथ एक सौ करोड़ रुपये फूंककर ट्रम्प से केम छो (कैसे हैं आप) पूछने के लिए अपने बेबस नागरिकों से इतनी बेदिली से पेश आने को किसी भी तर्क से मानवीय या लोकतांत्रिक नहीं ठहराया जा सकता.

लेकिन क्या कीजिएगा, ‘मोदी है तो मुमकिन है’ का नारा आजकल ऐसी ही अमानवीय और अलोकतांत्रिक संभावनाओं की अगवानी में सार्थक किया जा रहा है. फिलहाल, मोदी, जैसा कि उन्होंने वाराणसी में कहा है- नागरिकता कानून और संविधान के अनुच्छेद 370 संबंधी अपने फैसलों पर ही नहीं, अपनी कुर्सी पर भी पूरी मजबूती से कायम हैं और ह्यूस्टन में उनसे ‘हाउडी मोदी’ पूछ चुके ट्रम्प को बुलाकर अहमदाबाद में उनसे ‘सब कुछ चंगा-सी’ कहलवाने की हड़बड़ी में भी हैं. ऐसे में उनके गुजरात में क्या नामुमकिन है?


यह भी पढ़ें: करदाताओं की संख्या घटकर एक चौथाई रह गई है, इसके लिए सरकार को अपने गिरेबां में झांकना होगा


जब वे देश की सुविचारित विदेश नीति को धता बताकर ह्यूस्टन में अपने इस यार का चुनाव-प्रचार कर सकते हैं तो उसके महाभियोग से बच निकलने की खुशी में अहमदाबाद बुलाकर उसके लिए ‘केम छो’ के अतिरिक्त मोटेरा में सरदार वल्लभभाई पटेल स्टेडियम के उद्घाटन का रंगारंग समारोह व भव्य रोड शो आयोजित कराकर उसके लिए उन गुजराती मूल के लोगों के वोट पक्के करने की क्यों नहीं सोच सकते, जो अमेरिका में अच्छी खासी संख्या में रहते हैं?

इससे पहले चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग, जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे और इजराइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू को अहमदाबाद बुलाकर वे ऐसे दौरों की परम्परा तो समृद्ध कर ही चुके हैं. भले ही इससे न देश की अर्थव्यवस्था को कुछ खास हासिल हो पा रहा हो और न उसकी विदेश नीति के खाते में कोई उल्लेखनीय उपलब्धि दर्ज हो पा रही हो.

बहरहाल, इस देश में सत्ताओं को ऐसी दीवारें खड़ी करने के लिए बेरहमी की हद से गुजर जाने का जैसा पुराना अभ्यास है, उसको देखते हुए यह उम्मीद नहीं ही है कि वर्तमान सत्ताओं में- वह गुजरात सरकार हो या केन्द्र की, जिसके इंगित पर यह सब हो रहा है- झुग्गी बस्ती को घेरने वाली इस दीवार को लेकर कोई अपराधबोध पैदा होगा और वे अपना फैसला बदलेंगी. आश्चर्य नहीं कि कल वे इसके लिए कांग्रेसकाल की उन नज़ीरों का सहारा लेती नजर आने लगें, जब विदेशी मेहमानों की नज़रों की ओट करने के लिए ऐसी बस्तियों के बाहर कपड़े के परदे लगा दिये जाते थे.

मुश्किल यह कि परदे की उस परम्परा को दीवार तक ला चुकी ये सत्ताएं समझती ही नहीं हैं कि लोगों ने उन्हें पुरानी परंपराओं की लकीरें पीटने के लिए नहीं बल्कि स्थिति को बदलने के लिए सत्ता सौंपी है.

share & View comments