पिछले हफ्ते, रिया चक्रवर्ती को क्लीन चिट मिल गई. पांच साल बाद, जब ज़हरीले मीडिया ट्रायल ने उनका जीवन लाइव टेलीविज़न पर बर्बाद कर दिया था. यह सब कुछ न्यूज़ एंकर्स के नेतृत्व में हुआ, जिन्हें अचानक उभर आए गुमनाम ‘एक्स’ वॉरियर्स की सेना में अपना साथी मिल गया था. रिया की ज़िंदगी एक खुले, अनियंत्रित तमाशे में बदल गई थी — और हम सबने उसे पूरे जोश से देखा. अब, अपने साथी सुशांत सिंह राजपूत को खोने के हज़ार से ज़्यादा दिन बाद, सीबीआई को कोई सबूत नहीं मिला — न आत्महत्या के लिए उकसाने का, न आर्थिक गड़बड़ी का, न भावनात्मक शोषण या काला जादू का. कुछ भी नहीं.
तो, क्या हम रिया चक्रवर्ती के कर्ज़दार हैं?
यह कोई प्रतीकात्मक सवाल नहीं है. रिया के नुकसान की सूची उस दिन से बढ़नी शुरू हो गई जब उनके बॉयफ्रेंड की 14 जून 2020 को आत्महत्या से मौत हुई. राजपूत को एक ऐसे स्टार के रूप में पेश किया गया जो खुद के दम पर आगे बढ़े थे, बॉलीवुड के किसी ‘गॉडफादर’ से जुड़े नहीं थे. लेकिन वही संवेदना और समझ रिया को नहीं मिली, जो खुद भी इस इंडस्ट्री की ‘बाहरवाली’ थीं. भारत की सामूहिक नफरत की इस आग में हमने सुनिश्चित किया कि उनकी ज़िंदगी थम जाए, उनका करियर रुक जाए, उनका परिवार और दोस्त परेशान किए जाएं. बल्कि, हमने तो उनका शोक भी उनसे छीन लिया.
मुझे उस दौर की एक साफ़ याद है — टीवी मीडिया को इस हद तक गिरते देख कर मैं हैरान थी. अब पीछे मुड़कर देखें, तो वह भारत की सांस्कृतिक राजनीति का एक ऐसा मोड़ था, जैसा पहले कभी नहीं देखा गया. एक सामाजिक-राजनीतिक भंवर, जिसने रिया को पूरी तरह निगल लिया.
जुलाई और अगस्त 2020 के महीनों में, जब देश महामारी के बीच था, चैनल्स ने राजपूत के शव की तस्वीरें दिखाईं, उनकी दवाइयों और मानसिक स्थिति की जांच की, और “ब्लैक मैजिक” की थ्योरी बेचने के लिए वूडू डॉल और खोपड़ी के ग्राफिक्स तक इस्तेमाल किए. रिपोर्टर पुलिस थानों, कोर्ट और रिया के घर के बाहर चिल्लाते नजर आए, जहां भी उनके दिखने की संभावना होती.
सबसे आगे रिपब्लिक टीवी के अर्नब गोस्वामी थे, जो हर दिन नए नारे के साथ टीवी पर आते थे — “मुझे ड्रग्स दो, ड्रग्स दो” से लेकर “मुझसे सहा नहीं जा रहा है” तक. गोस्वामी रोज़ाना ज़हर उगलते थे, और पैनल पर बैठे लोग, जिनका केस से कोई लेना-देना नहीं था, उनकी हां में हां मिलाते थे. जैसे एक्टर मुकेश खन्ना, जो 1990 के दशक के बाद से शायद ही प्रासंगिक रहे हों. फिर भी सभी इस बात पर सहमत थे कि बॉलीवुड एक भ्रष्ट और पाप से भरा संसार है. सभी ने खुशी जताई कि यह ‘नेपोटिज़्म वाला’ उद्योग अब गिरने वाला है, जो उनके अनुसार, रिया के साथ मिलकर राजपूत को आत्महत्या के लिए मजबूर करने का दोषी था.
टाइम्स नाउ पर हमें ‘गहरी जांच’ दिखाई गई, जैसे “इम्मा बाउंस” शब्दों का मतलब क्या है. एक एपिसोड में, नविका कुमार स्टूडियो में एक टोट बैग लेकर आईं, जिसमें “सबूत और जरूरी फाइलें” थीं, जिन्हें उन्होंने कैमरे पर दिखाया. उन्होंने भारतीय समाज के सबसे रूढ़िवादी विचारों को बढ़ावा देते हुए कहा, “महिलाएं पजेसिव हो सकती हैं… भारतीय परिवारों में देखा गया है कि पत्नी या गर्लफ्रेंड को अपने साथी का अपने परिवार से ज़्यादा घनिष्ठ होना पसंद नहीं होता.”
मैं उस समय की सबसे बुरी रिपोर्टिंग का उदाहरण चुन लूं, तो भी उस पागलपन की पूरी तस्वीर सामने नहीं आ पाएगी. पुलिस से लेकर प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया तक ने इस कवरेज की आलोचना की. बॉम्बे हाई कोर्ट ने विशेष रूप से रिपब्लिक टीवी और टाइम्स नाउ को फटकार लगाई, यह कहते हुए कि उन्होंने राजपूत की मौत को सनसनीखेज बना दिया और इससे जांच पर बुरा असर पड़ा.
पत्रकार निधि राजदान ने कहा था कि उन्होंने “इतनी नीचे गिरती हुई मीडिया दौड़ पहले कभी नहीं देखी.” लेकिन असल में यह सब हमारे कारण हुआ — दर्शक के रूप में हमने इस सार्वजनिक अपमान को पोर्नोग्राफी की तरह देखा और उसका आनंद लिया.
जबरदस्त प्रतिक्रिया
सुशांत सिंह राजपूत की मौत की कवरेज के दौरान कुछ टूट गया था. भारत का #MeToo आंदोलन डेढ़ साल पहले शुरू हुआ था, एक कोशिश के रूप में — भले ही अधूरी — ताकतवर पुरुषों को जवाबदेह ठहराने के लिए. लेकिन 2020 तक यह सिर्फ एक मज़ाक बनकर रह गया था. सत्ता फिर से वहीं लौट आई थी, जहां वह हमेशा रहती आई थी, और इसका पलटवार बेहद क्रूर था. महिलाओं को सज़ा दी जा रही थी — ज़्यादा मांगने के लिए, और बहुत ज़ोर से मांगने के लिए.
कुछ महीनों बाद, जब देश दिल्ली दंगों, सीएए-एनआरसी विरोध प्रदर्शनों और संसद में ज़बरदस्ती पास किए जा रहे कृषि कानूनों से जूझ रहा था, तभी महामारी ने दस्तक दी. कोविड-19 ने लगभग हर व्यक्ति को डरा दिया और असहाय बना दिया. इसने हमारे स्वास्थ्य, आजीविका और आवागमन पर से नियंत्रण छीन लिया. प्रवासी मज़दूर सड़कों पर मर रहे थे, अर्थव्यवस्था गिर रही थी.
हमारी यह बेकाबू नाराज़गी किसी दिशा की तलाश में थी — और रिया चक्रवर्ती हमारे सामने पेश कर दी गईं. युवा, महिला, और सफलता के कगार पर खड़ी. एक स्वतंत्र महिला, जो अपने साथी के साथ अपनी शर्तों पर रहती थी — ऐसी स्वतंत्रता असहनीय थी. वह आदर्श बलि का बकरा थीं, जबकि भारत का बाक़ी हिस्सा मशालें लिए इंतज़ार कर रहा था.
जब चक्रवर्ती को टीवी पर लगातार बदनाम किया जा रहा था, तब यह पागलपन बहुत फायदे का सौदा साबित हो रहा था — आर्थिक रूप से भी और राजनीतिक रूप से भी. राजपूत की मौत के एक हफ्ते के भीतर, “आत्महत्या” शब्द का इस्तेमाल अचानक घट गया और उसकी जगह “हत्या” ने ले ली. मिशिगन यूनिवर्सिटी की एक स्टडी ने उस समय के 7,000 यूट्यूब वीडियो और 1,00,000 ट्वीट्स का विश्लेषण किया और साफ़ पैटर्न पाए. भाजपा के नेताओं ने सुनियोजित तरीके से ‘मर्डर नैरेटिव’ को आगे बढ़ाया. जुलाई 2020 के मध्य तक उन्होंने सीबीआई जांच की मांग शुरू कर दी, जिससे मुंबई पुलिस की जांच को कमजोर करने की कोशिश की गई — जबकि उस समय मुंबई में शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस की गठबंधन सरकार थी, जो भाजपा की पूर्व सहयोगी थी.
बिहार के मुख्यमंत्री ने व्यक्तिगत रूप से हस्तक्षेप कर पटना में एफआईआर दर्ज करवाई — जो अभिनेता का गृह नगर था — और इस तरह अधिकार क्षेत्र को लेकर एक तमाशा शुरू हो गया. संभवतः यह महज़ संयोग था कि उस समय राज्य में चुनाव होने वाले थे. बिहार में “ना भूले हैं, ना भूलेंगे” जैसे पोस्टर और स्टीकर लगाए गए, जिससे एक युवा अभिनेता की मौत को चुनावी नारे में बदल दिया गया. राजपूत — जिनकी फिल्म केदारनाथ को पहले इसी राजनीतिक तंत्र ने निशाना बनाया था — मृत्यु के बाद राजनीतिक रूप से बहुत उपयोगी साबित हुए.
राजपूत की मौत और चक्रवर्ती के उत्पीड़न ने कई राजनीतिक करियर बना दिए. सबसे ऊंची आवाज़ में बोलने वाली कंगना रनौत, जिन्होंने महीनों तक चक्रवर्ती को हत्यारा कहा और बॉलीवुड पर हमला किया, अब भाजपा की सांसद हैं. पत्रकार प्रदीप भंडारी, जिन्होंने साजिश की थ्योरियां फैलाईं, अब बीजेपी के प्रवक्ता हैं. बिहार के पूर्व डीजीपी गुप्तेश्वर पांडे, जिन्होंने इस केस पर नाटकीय प्रेस कॉन्फ्रेंस की थीं, थोड़े समय बाद जनता दल यूनाइटेड में शामिल हो गए.
काम पर वापसी?
लेकिन इस भयावह तमाशे की ज़िम्मेदारी हम सबको लेनी चाहिए. हम ही वो टीआरपी, व्यूअरशिप और एंगेजमेंट मेट्रिक्स थे, जिन्होंने इस पूरे खेल को इतना कीमती बना दिया. हम बस कुछ “काम के मूर्ख” थे, जिनकी लगातार देखी जा रही खबरों ने इस अलाव को जलाए रखा. कुछ महीनों तक हमने बॉलीवुड के खिलाफ खूब गुस्सा निकाला. अब सब कुछ माफ़ और भुला दिया गया है, और हम फिर से उन्हीं तथाकथित “ड्रग्स में डूबे नेपो बेबीज़” का बचाव कर रहे हैं, जिनकी 600 करोड़ रुपये की बॉक्स ऑफिस कमाई में हम खुशी-खुशी योगदान दे रहे हैं.
सबके लिए ज़िंदगी वापस सामान्य हो गई है — सिवाय रिया चक्रवर्ती के, जिनका करियर और जीवन अब भी रुका हुआ है. लेकिन उनकी सबसे बड़ी ताकत यही है कि उन्होंने टूटने से इनकार कर दिया. इस साल की शुरुआत में दिए गए एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया कि जेल में रहते हुए उनके सोचने का तरीका बदल गया. उन्होंने अपने भीतर की शक्ति को पहचाना और खुद को पीड़ित की तरह देखने से इनकार कर दिया. उन्होंने अपने भाई के साथ मिलकर “चैप्टर 2” नाम से एक पॉडकास्ट और कपड़ों का ब्रांड शुरू किया है. उन्होंने मज़ाक में कहा कि इसका नाम लगभग “चुड़ैल का बदला” रखने वाली थीं.
लेकिन उनकी इस मज़बूती के पीछे गहरा दुख भी है. चक्रवर्ती मानती हैं कि वे फिल्मों में बहुत बड़ी स्टार नहीं थीं, और वह दरवाज़ा शायद हमेशा के लिए बंद हो चुका है. उनका भाई, जिसने 98 पर्सेंटाइल हासिल किया था और जिसे आईआईएम में दाख़िला मिलने वाला था, उसे भी गिरफ्तार किया गया, जबकि उसका इस केस से कोई लेना-देना नहीं था. उन्होंने बताया कि उन्होंने अपने कपड़ों का ब्रांड इसलिए शुरू किया ताकि अपने कानूनी खर्चों का भुगतान कर सकें.
चक्रवर्ती की हिम्मत सच्ची है, लेकिन उनका टूट चुका जीवन भी उतना ही सच्चा है. शायद उन्होंने इस दर्द से समझौता कर लिया है, लेकिन उनकी ज़िंदगी उनसे छीन ली गई. और उनके पास इसके सिवा कोई और रास्ता भी नहीं था.
तो अब सवाल यह है कि हम रिया चक्रवर्ती के प्रति क्या कर्ज़दार हैं? चैनल्स को उन्हें प्रसारण समय और माफ़ी देनी चाहिए, और उनके किए पर हल्की डांट नहीं बल्कि जवाबदेही तय होनी चाहिए. वे राजनेता, जिन्होंने उनके उत्पीड़न पर अपने करियर खड़े किए, उन्हें जवाब देना चाहिए.
लेकिन असली जिम्मेदारी हमारी है. रिया चक्रवर्ती अब भी यहां हैं, अब भी मज़बूती से खड़ी हैं. लेकिन हम तो आगे बढ़ चुके हैं — अगले तमाशे की ओर, जैसे हम हमेशा करते हैं.
करनजीत कौर पत्रकार हैं. वे TWO Design में पार्टनर हैं. उनका एक्स हैंडल @Kaju_Katri है. व्यक्त विचार निजी हैं.
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