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Sunday, 3 November, 2024
होममत-विमत‘NEET’ को लेकर तिल का ताड़ मत खड़ा कीजिए, NTA की साख खराब करने की कोशिश की जा रही है

‘NEET’ को लेकर तिल का ताड़ मत खड़ा कीजिए, NTA की साख खराब करने की कोशिश की जा रही है

न कोई सबूत है, और न कोई संकेत तक है कि ‘सवाल हल करने वाले गिरोहों’ या ‘चीटिंग माफिया’ के साथ एनटीए की कोई साठगांठ है. राजनीतिक दलों के सार्वजनिक बयान ‘नीट’ के पक्ष या विपक्ष में तर्क के बिंदु नहीं बन सकते

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नेशनल टेस्टिंग एजेंसी (एनटीए) और उसके महानिदेशक सुबोध कुमार सिंह के बचाव में जो यह कॉलम लिखा जा रहा है उसका संदर्भ समझने के लिए कुछ पूर्व-चेतावनियों पर ध्यान देना जरूरी है.

पहली पूर्व चेतावनी यह है कि एनटीए जिस तरह हर साल 14 देशों में करीब 1.25 करोड़ उम्मीदवारों के लिए 25 परीक्षाएं और भर्तियां आयोजित कर रही थी उसकी तारीफ मैंने 30 अगस्त 2022 को ही दर्ज करा दी थी.

एनटीए आज दुनिया में चीनी एजेंसी गाओकाओ के बाद दूसरी सबसे बड़ी टेस्टिंग एजेंसी बन गई है. लेकिन अगले कुछ वर्षों में यह प्रमुख स्थान हासिल कर लेगी क्योंकि भारतीय छात्रों की संख्या जल्दी ही चीनी छात्रों से बड़ी हो जाएगी.

दूसरे, 1995 से 2001 के बीच जब मैं लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी (एलबीएसएनएए) का उपनिदेशक था तब मुझे सुबोध कुमार सिंह को 1997 बैच के आइएएस अधिकारी के रूप में प्रशिक्षित करने का सौभाग्य मिला था. मैं उनकी व्यक्तिगत और पेशेगत ईमानदारी के साथ इस बात का दावा कर सकता हूं कि उन्होंने ‘नीट 2024’ का आयोजन अच्छी मंशा से किया, हालांकि इसको लेकर जो विवाद मचा है वह शांत होने का नाम नहीं ले रहा है. तमाम टीवी एंकर, यूट्यूबर, कोचिंग इन्स्टीट्यूटों के मालिक उसी परीक्षा की बढ़-चढ़कर आलोचना कर रहे है, जो उन्हें ख़ासी कमाई कराती है.

तीसरे, किसी विशाल सार्वजनिक व्यवस्था को हम केवल सफ़ेद-स्याह दिखाने वाले चश्मे से नहीं देख सकते, ‘प्रतिक्रिया के अनुपात’ पर भी गौर करना ज़रूरी है. गलतियां हुईं हैं और उन्हें कबूल भी किया गया है, और उन्हें सुधारने की जरूरत है. लेकिन बेहद छोटी विसंगतियों से कोई घोटाला नहीं बन जाता, क्योंकि किसी भी घोटाले में एक केंद्र होता है जो उसके पंजों को नियंत्रित करता है.

न कोई सबूत है, और न कोई संकेत तक है कि ‘सवाल हल करने वाले गिरोहों’ या ‘चीटिंग माफिया’ के साथ एनटीए की कोई साठगांठ है. सबसे बुरी बात तो यह है कि उस पर ‘नीट’ के आयोजन के इंतज़ामों में और परीक्षा शुरू करने में हुई देरी के एवज में ‘ग्रेस मार्क्स’ देने की कसौटी तय करने में अकुशलता बरतने का आरोप लगाया गया है.

सरकारी सेवा में 36 साल बिताने, और पश्चिम बंगाल में वाममोर्चे से लेकर टीएमसी तक; दार्जिलिंग में गोरखालैंड क्षेत्रीय प्रशासन में जीएनएलएफ; उत्तराखंड में भाजपा से लेकर काँग्रेस तक; और केंद्र में एनडीए से लेकर यूपीए तक तमाम तरह की राजनीतिक सत्ता के तहत काम करके मैं जान गया हूं कि राजनीतिक दल सत्ता में रहने और उससे बाहर रहने पर किस तरह रंग बदलते हैं.

इसलिए, दलों के सार्वजनिक बयान ‘नीट’ के पक्ष या विपक्ष में तर्क के बिंदु नहीं बन सकते.

NTA ने फौरन कार्रवाई की

हम ठोस तथ्यों पर विचार करें और उन्हें अप्रामाणिक तथ्यों के बरअक्स देखें और मसले को परिप्रेक्ष्य में रखने के लिए संभावना और अनुमान के बीच के संबंध की जांच करें.

मेडिकल प्रवेश परीक्षा 5 मई को 4750 केंद्रों पर आयोजित की गई और करीब 24 लाख उम्मीदवारों ने यह परीक्षा दी. हर एक केंद्र पर कई कमरों में परीक्षा ली गई. हर एक कमरे में सीसीटीवी कैमरे लगे थे और उनमें प्रत्यक्ष निगरानी भी रखी जा रही थी.

परीक्षा अच्छी तरह हो इसके लिए 2,10,105 निरीक्षक और 7,500 ऑब्जर्वर तैनात किए गए. 40 फर्जी उम्मीदवारों को पकड़ा गया, 50 चीटिंग (नकल) माफिया’ का पता चला, और 15 जून तक 14 एफआईआर दर्ज किए गए. इसलिए यह दावा गलत है कि एनटीए ने ‘व्यवस्था से खिलवाड़’ करने की कोशिश करने वालों के खिलाफ फौरन कार्रवाई नहीं की.

यह भी गौरतलब है कि इस साल नीट का सिलेबस पिछले सालों के सिलेबसों से 25 फीसदी छोटा था. जैसा कि टाइम्स ऑफ इंडिया, इंडियन एक्सप्रेस, हिंदू और मनी कंट्रोल समेत तमाम अखबारों ने 5-6 मई को अपनी खबरों में कहा, यह सिलेबस तुलनात्मक रूप से आसान था.

ज़ाहिर है, पर्चा आसान हो तो मार्क्स ऊंचे आते हैं. कई यूट्यूबरों ने भी ‘मार्क्स की इस वृद्धि’ पर टिप्पणी की. लेकिन ऊंचे मार्क्स और ऊंचा कट-ऑफ अपेक्षित अनुपात में ही था, खासकर इसलिए कि ज्यादा-से-ज्यादा छात्र प्रोफेशनल कोचिंग लेने लगे हैं.


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आरोपों का जवाब

आइए, नीट परीक्षा को लेकर लगाए गए आरोपों और विवादों पर गौर करें. इनमें सबसे पहला जो है वह ऊपर से सच्चा लगता है. कहा गया है कि घोटाले की लीपापोती करने के लिए नीट के रिजल्ट 14 जून की बजाय 4 जून को घोषित किए गए क्योंकि उस दिन पूरे देश का ध्यान लोकसभा चुनाव के नतीजों पर केंद्रित था. लेकिन यह पहली बार नहीं है जब एनटीए ने अपेक्षित तारीख से पहले नतीजे घोषित किए.

दूसरा सवाल फिजिक्स के पर्चे में पूछे गए एक सवाल से है, जिसके बारे में एनसीईआरटी के पिछले और चालू संस्करणों में अलग-अलग व्याख्याएं दी गई हैं. एनटीए ने जब सवाल का जवाब जारी किया तब 13,373 ज्ञापन दायर किए गए. एनटीए की शिकायत निवारण कमिटी ने दोनों जवाबों को मान्य करने का फैसला किया.

तीसरा आरोप उन केंद्रों पर परीक्षा शुरू करने में खोए गए समय की क्षतिपूर्ति से संबंधित है, जहां पर्चे के वितरण के कारण परीक्षा देर से शुरू हुई. कुछ छात्रों को हिंदी की जगह अंग्रेजी वाले पर्चे दिए गए तो कुछ को इससे उलट पर्चे दिए गए थे. इनमें से कई केंद्रों पर परीक्षा का समय बढ़ाकर क्षतिपूर्ति की गई, लेकिन जहां यह संभाव नहीं था वहां के परीक्षार्थियों को मुआवजे के तौर पर मार्क्स बढ़ाए गए और यह ‘कॉमन लॉ एडमिशन टेस्ट’ (सीएलएटी) के एक पुराने मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुताबिक किया गया.

यह सच है कि सीएलएटी की ऑनलाइन परीक्षा और नीट की ओएमआर आधारित ऑफलाइन परीक्षा में फर्क है. सीएलएटी में छात्रों की संख्या हजारों में होती है जबकि नीट में इससे करीब 25 गुना ज्यादा होती है.

लेकिन यह अप्रामाणिक तथ्य फैलाया जा रहा है कि जस्टिस यू.यू. ललित और जस्टिस दीपक गुप्ता ने अपने उक्त फैसले के सिद्धांत को खास तौर से मेडिकल और इंजीनियरिंग की परीक्षाओं पर लागू करने से मना किया था. यह फैसला सबके लिए उपलब्ध है.

बहरहाल, 1,563 छात्रों को क्षतिपूर्ति के रूप में दिए गए मार्क्स वापस ले लिए गए हैं और मसले को सुलझा लिया गया है. इन छात्रों को दो विकल्प दिए गए हैं, वे या तो बिना ग्रेस मार्क्स के अपने नतीजे को कबूल करें या 23 जून को फिर से परीक्षा दें.

चौथा आरोप पटना में पर्चे के संभावित ‘लीक’ का है. हालांकि एनटीए ने इसका खंडन किया है लेकिन बिहार पुलिस की आर्थिक अपराध यूनिट इस मामले की जांच कर रही है.

‘लीक’ की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता लेकिन बड़ी संभावना यह भी है कि ‘सवाल हल करने वाले गिरोह’ और ‘नकल माफिया’ ने वास्तविक पर्चे की जगह ठीक वैसे ही ‘गेस पेपर/पेपर’ बांटे और छात्रों तथा अभिभावकों को मूर्ख बनाया.

इस धंधे में ‘चोरों के बीच वाली आपसी ईमानदारी’ बरतने का कोई नियम नहीं है. जो भी हो, एफआईआर में जिस उम्मीदवार का नाम है उसका प्रदर्शन टॉप करने वाले उम्मीदवारों के प्रदर्शन के आसपास तक नहीं था.

पांचवां आरोप यह है कि खासकर गोधरा केंद्र के उम्मीदवारों से यह कहा गया कि वे जिन सवालों के बारे में आश्वस्त नहीं हैं उन्हें छोड़ दें क्योंकि निरीक्षक उसे टिक कर देंगे. लेकिन पर्चों को खोलने से लेकर ओएमआर शीट्स को सील किए जाने तक पूरी प्रक्रिया जिस तरह सीसीटीवी कैमरे के आगे की जाती है उसके कारण यह बिलकुल नामुमकिन लगता है.

छठा मामला एक यूट्यूब वीडियो का है जिसमें लखनऊ की एक पीड़ित लड़की को दिखाया गया है, जिसे एनटीए से ई-मेल मिला था कि उसके ओएमआर शीट की जांच नहीं की जा रही है क्योंकि वह फटी हुई है. मैं इसके लिए लड़की को जिम्मेदार नहीं ठहरा सकता लेकिन इस संभावना से भी इनकार नहीं कर सकता कि कुछ निहित स्वार्थी तत्व एनटीए की विश्वसनीयता को खराब करना चाहते हैं.

सातवां आरोप 67 टॉपरों से संबंधित है. एनटीए ने स्पष्ट किया है कि उनमें से 44 को पूरे अंक ‘आन्सर की (Answer Key)’ में अंतर की वजह से आए, जबकि छह उम्मीदवारों को ‘ग्रेस मार्क्स (Grace Marks)’ मिलने के कारण आए.

इसका अर्थ यह हुआ कि शुद्ध टॉपरों की संख्या 17 है, जो बड़ी संख्या है लेकिन धरती हिला देने वाली नहीं है. इससे जुड़ा एक सवाल 718 और 719 अंक लाने की संभावना के बारे में है, लेकिन एनटीए ने स्पष्ट कर दिया है कि यह ‘ग्रेस मार्क्स के कारण’ आया है.

नौवां विवाद हरियाणा के एक ही केंद्र, बहादुरगढ़ के हरदयाल पब्लिक स्कूल से छह टॉपर निकलने को लेकर है, जिसका कुछ ‘उपहास’ भी उड़ाया गया. क्या ऐसी टिप्पणियां तब की जातीं जब मामला कोलकाता के लॉ मार्टिनियर या दिल्ली के मॉडर्न स्कूल का होता?

हरियाणा के उक्त स्कूल के प्रिंसिपल ने टीवी पर आकर अपने स्कूल के कुल 21 कमरों में उम्मीदवारों के बैठने की व्यवस्था का ब्योरा दिया. किसी एक कमरे से दो टॉपर नहीं निकले. इसलिए परीक्षा केंद्र और निरीक्षकों की साठगांठ से एक साथ नकल करने की संभावना खारिज हो जाती है.

सबक क्या हैं

पूरे मामले पर दूरदर्शिता वाली दृष्टि डालना बेहतर है, और इससे उभरे सुझावों को अगली नीट परीक्षा में लागू किया जा सकता है. लेकिन चिंता के कुछ मसले जरूर हैं.

क्या कुछ निहित स्वार्थ इस आंदोलन को जिंदा रखना चाहते हैं? केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र यादव छात्रों और अभिभावकों को आश्वासन दे चुके हैं कि हर एक आरोप की जांच की जाएगी और जो भी दोषी पाया जाएगा उसके खिलाफ उपयुक्त कार्रवाई जरूर की जाएगी. सुप्रीम कोर्ट इस मामले पर विचार कर रहा है. ‘ग्रेस मार्क्स’ वापस ले लिये गए हैं दोबारा परीक्षा कराने के आदेश दिए जा चुके हैं. जांच एजेंसियां हर एक पहलू की जांच कर रही हैं– पर्चे कब और कैसे लीक हुए? क्या परीक्षा में शामिल किसी निरीक्षक ने अवैध लाभ लेकर परीक्षा की व्यवस्था में घालमेल किया?

सवाल यह है कि एनटीए की विश्वसनीयता को क्यों चोट पहुंचाई जाए? इससे किसका स्वार्थ सधेगा? फिर से परीक्षा कराने का जो समाधान है वह युवा छात्रों के लिए उतना ही तकलीफदेह है. हम 2015 को न भूलें, जब पीएमटी (जिसकी जगह अब नीट यूजी लाई गई है) परीक्षा फिर से कराने का आदेश दिया गया था और दूसरी परीक्षा में कुल 8 लाख में से 50 फीसदी छात्र ही बैठे थे.

धर्मेंद्र प्रधान ने ठीक सवाल उठाया है कि कोचिंग सेंटरों के मालिक, जो शिक्षक न होकर 60,000 करोड़ का उद्योग खड़ा करने वाले व्यवसायी हैं, इतने परेशान क्यों हैं जबकि मामला अदालतों के विचाराधीन है?

यह तो बेशक स्पष्ट है कि मेडिकल, डेंटल और आयुष कोर्सों में मांग-आपूर्ति के बीच अंतर है. इस मसले को पारदर्शी नीति के जरिए सुलझाया जा सकता है. केंद्र, राज्य, कॉर्पोरेट, नॉन-प्रॉफ़िट शिक्षा संस्थाओं के साथ-साथ ज़िला परिषदों, बड़े अस्पताल चलाने वाली पालिकाओं को नए शिक्षण संस्थान बनाने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है. उत्तर प्रदेश ने हर ज़िले में एक मेडिकल कॉलेज बनाने की पहल करके अग्रणी भूमिका निभाई है. इनमें से कई कॉलेज सफल भी हुए.

विदेश में डॉक्टरी की पढ़ाई करने वाले भारतीय छात्रों की संख्या बढ़ती जा रही है. इस मामले में चीन और रूस सबसे लोकप्रिय गंतव्य बनकर उभरे हैं. इसका यह भी अर्थ है कि इसकी ‘मार्केट डिमांड’ है जिसे देश के अंदर पूरा करने की जरूरत है. भारत को भी दुनिया भर के मेडिकल छात्रों के लिए एक पसंदीदा केंद्र बनाया जा सकता है.

ऑनलाइन टेस्ट (बेतरतीब पर्चों के साथ) का स्वरूप तय करने में ज्यादा पारदर्शिता लाना बेहद महत्वपूर्ण है, और इसे एआइ के मामले में भारत की क्षमता के बूते हासिल किया जा सकता है. ये टेस्ट साल में दो-तीन बार लिए जा सकते हैं, जिसमें यह विकल्प हो कि किसी विशेष साल के काउंसिलिंग सेशन के लिए निश्चित कट-ऑफ तारीख तक आप अपना स्कोर बेहतर कर सकते हैं. इसलिए, किसी साल में कट-ऑफ तारीख अगर 1 जून है तो तब तक हुए सभी टेस्टों में हासिल किए गए स्कोर पर उस शैक्षिक वर्ष में काउंसिलिंग के लिए विचार किया जा सकता है.

इसलिए आइए, हम जाने-पहचाने इन कहावतों को भी जरूर ध्यान में रखें कि तिल का ताड़ मत बनाइए और कूड़े के साथ हीरे को भी मत फेंक दीजिए.

और सबसे महत्वपूर्ण यह कि बहस ठोस तथ्यों के आधार पर कीजिए, न कि अप्रामाणिक तथ्यों के आधार पर.

(संजीव चोपड़ा पूर्व आइएएस अधिकारी हैं और वैली ऑफ वर्ड्स के फेस्टिवल डाइरेक्टर रहे हैं. हाल तक वे लालबहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी के निदेशक थे. उनका एक्स हैंडल @ChopraSanjeev हैं. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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