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Friday, 22 November, 2024
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90-घंटे के भारत-पाकिस्तान युद्ध में उठा सबसे बचकाना सवाल, कितने आदमी थे?

समझाने-बुझाने और खौफ पैदा करने की रणनीति ही सबसे अच्छी और अनिवार्य है. लेकिन इसके लिए आपमें दंड देने की वह क्षमता होनी चाहिए जिससे पाकिस्तान डरे और कोई दुस्साहस करने से बाज आए

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कितने आदमी थे? ‘शोले’ फिल्म के मशहूर विलेन गब्बर सिंह के इस प्रसिद्ध डायलॉग को आप भूले नहीं होंगे. भारत-पाकिस्तान के बीच पिछले हफ्ते 90 घंटे तक जो युद्ध चला, उसे देखते हुए मुझे यह डायलॉग बरबस याद आ गया. 27 फरवरी के बाद से हमारा राजनीतिक-रणनीतिक विमर्श जिस दिमागी दिवालियापन में उलझ गया है, उसका जो ‘गब्बरीकरण’ हो गया है उस पर मजा लेने के लिए मुझे यही डायलॉग फिट लगता है.

ऐसा लगता है कि हमारे लिए अब तीन ही सवाल रह गए हैं- हमारे बमों/ मिसाइलों ने जैश-ए-मोहम्मद के ठिकाने को निशाना बनाया या नहीं? अगर निशाना बनाया तो कितनों को मार गिराया (यानी कितने आदमी थे?), और तीसरा सवाल यह कि हमारे विमान ने पाकिस्तानी एफ-16 विमान को मार गिराया या नहीं? विडम्बना यह है कि ये तीनों सवाल असली मुद्दे को छूते भी नहीं हैं.

दो सप्ताह पहले हम लिख चुके हैं कि बदला लेना एक नासमझी वाली रणनीतिक पहल है. बदला मूर्ख लोग लेते हैं, समझदार लोग तो डराने-धमकाने, समझाने-बुझाने का रास्ता चुनते हैं. उपरोक्त तीन सवाल बदले की मानसिकता को जाहिर करते हैं, जो कि हमारे जैसे विशाल, ताकतवर और अभिमानी देश के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है. इसीलिए हम इसे ‘गब्बरीकरण’ कहते हैं.


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तालियां बजाती भीड़ के सामने प्रधानमंत्री जिस तरह अपना सीना ठोक कर यह दावा करते रहे हैं कि उनकी फितरत ऐसी है कि वे बदला लेने के लिए ज्यादा इंतज़ार नहीं कर सकते, उससे इसी मानसिकता को बढ़ावा मिलता है. यह रणनीति का एक खतरनाक राजनीतिकरण है.

सेना यह कतई नहीं चाहती कि दुश्मन को खेल का पहले ही अंदाज़ा लग जाए, वह तो उसे चकमा देने की रणनीति चाहती है. और दूसरी बात- इससे यह उजागर हो जाता है कि आप खुद ही मान रहे हैं कि आप इतना कुछ नहीं कर पाए, जो पाकिस्तान को बाज आने पर मजबूर कर दे. इस अभियान को लेकर जो बयानबाजियां चल रही हैं, उनकी व्याख्या करने में हो सकता है कि मैं अति कर रहा होऊं, लेकिन लफ़्फ़ाजियां आपके रणनीतिक विकल्पों को कम कर देती हैं.

दूसरी ओर, अगर प्रधानमंत्री को लगता है कि इन दुस्साहसिक बमबारियों ने दुश्मन में दहशत नहीं पैदा किया है, तो इस उपमहाद्वीप को जिस सीमा तक जाने के लिए तैयार होने की जरूरत है वह उस सीमा से अलग है जो भारत के लिए सर्वश्रेष्ठ है. ‘आतंक-उसका प्रतिकार-उसमें वृद्धि- उसमें कमी’ का जो चक्र है वह नियंत्रण रेखा पर जारी बिलकुल बेमानी खूनखराबे से दो डिग्री ऊपर है, उससे अलग नहीं.

फर्क सिर्फ इतना है कि छोटे हथियारों, गोलों, स्नाइपर राइफलों और कमांडो चाकुओं की जगह लड़ाकू विमानों और आधुनिक बमों का इस्तेमाल किया जाता है. यह सिर्फ सैन्य सोच रखने वालों और किशोरों के लिए जोशीला हो सकता है. लेकिन दुर्भाग्य से यह अगर पराजय नहीं, तो रणनीतिक समझौता ही है, जैसा कि ले.जनरल (रिटा.) एच.एस. पनाग ने अपने ताज़ा विवेकपूर्ण तथा साहसिक लेख में लिखा है.

तो सबसे पहले हम सकारात्मक बातों की गिनती करें. पंजाब में 1981 से और कश्मीर में 1989 से आतंकवाद व उग्रवाद का जो पाकिस्तान नियंत्रित दुष्चक्र शुरू हुआ उसके बाद भारत ने अब जाकर पहली बार अपनी सहनशीलता की रेखा खींची. बीते दिनों में पुलवामा से भी गंभीर उकसावे हुए (मसलन संसद पर हमला और 26/11 वाला कांड) लेकिन उनका जवाब नहीं दिया गया. ऐसी चुनौतियों पर भारत की प्रतिक्रिया क्या होगी, यह पूरी दुनिया को समझ में आ गया था और वह इससे ऊब चुकी थी.

सो, सीधा जवाब ही एक विकल्प रह गया था. इसलिए, पाकिस्तान ने बालाकोट से तीन महत्वपूर्ण संदेश दिए हैं.

1. एक सीमा के बाद भारत पाकिस्तान में घुसकर हमला करेगा, चाहे इससे हालात बिगड़ते क्यों न हों. नब्बे के दशक के बाद से पाकिस्तान का जो एटमी फरेब है उसकी पोल इस तरह से खोल दी गई है. यह अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुआ है लेकिन उसे अब नई हकीकत से रू-ब-रू होना पड़ेगा.

2. भारत ऐसी जवाबी कार्रवाई करने, और पूरी गोपनीयता बनाए रखकर यह करने में सक्षम है.

3. दुनिया की प्रमुख ताक़तें जवाबी कार्रवाई करने के भारत के अधिकार को कबूल करती हैं. इसका अर्थ यह है कि भारत से अपेक्षा की जाती है कि भविष्य में वह ज़िम्मेदारी भरा व्यवहार करेगा और, अपनी मंशा जता चुकने के बाद, जवाबी कार्रवाई के दुष्चक्र में फंसने से बचेगा.

इस बार तो यह खेल इस तरह चला, लेकिन हमें नकारात्मक बातों की भी गिनती करनी चाहिए. इसमें भी तीन उदाहरण दिए जा सकते हैं—

1. हमले, जवाबी हमले और भारतीय जवाब ने पारंपरिक युद्ध के मामले में भारत और पाकिस्तान के बीच की असमानता को उजागर कर दिया है. अगर युद्ध भारी पैमाने पर हुआ तो टेक्नोलॉजी, हथियारों और क्षमता के मामलों में दोनों पक्ष लगभग बराबरी पर हैं. लंबी तनातनी की स्थिति में भारत पाकिस्तान पर भारी पड़ेगा. यानी पारंपरिक युद्ध के मामले में भारत पाकिस्तान को अंततः पछाड़ देगा लेकिन उसे दंडित करने वाला वर्चस्व उसके पास नहीं है.

2. हालात जब तेजी से बदल रहे हों तब अपनी आवाम, मीडिया और पूरी दुनिया से संवाद बनाने की कुशल योजना जरूरी हो जाती है. इस मामले में मोदी सरकार कमजोर साबित हुई है.

3. जैसा कि कंधार प्रकरण के दौरान हुआ था, इस बार भी भारतीय जनमत कमजोर कड़ी साबित हुई. आरपार की निर्णायक लड़ाई के लिए गला फाड़ने वाली जनता पाकिस्तान के हाथ एक ही भारतीय सैनिक के बंदी हो जाने पर अपने होश गंवा बैठी. सुबह में ‘पाकिस्तान को कुचल डालो’ के नारे शाम होते-होते ‘अभिनंदन को वापस लाओ’ के नारे में बदल गए. ‘उरी’ जैसी फिल्मों से जोश में आई भारतीय जनता भूल गई कि जब असली युद्ध छिड़ता है तब दोनों पक्षों को नुकसान उठाने पड़ते है, नाकामियां झेलनी पड़ती हैं.

संक्षेप में, इस संकट ने भारत को सिखाया है कि आतंकवाद के लिए पाकिस्तान के प्रति नया, असहनशील, सबक सिखाने वाला तरीका अपनाना है तो इसके लिए उसे सैन्य तैयारी और मानसिकता के मामले में अभी बहुत कुछ करने के जरूरत है. भारत के नेताओं को सैन्य तैयारी के लिए अभी और पैसे खर्च करने होंगे, और मानसिकता को बदलने के लिए नई भावना जगानी होगी. पिछले सप्ताह जो चक्र चला वह एक या ज्यादा से ज्यादा दो बार चल सकता है. तब इतिहास सोने नहीं चला जाएगा और पाकिस्तान आसानी से सुधरने वाला नहीं है.


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वास्तव में, अगर यही सामान्य स्थिति बन गई तो पाकिस्तान और अंतरराष्ट्रीय समुदाय इसका आदी हो जाएगा. मैंने हमला किया, तुमने जवाब दिया; फिर मैंने जवाबी हमला किया, और कभी-न-कभी हम दोनों अपने-अपने घर लौट गए. इसके बाद हम दोनों अपनी-अपनी जनता के सामने अपनी जीत के दावे करने लगे, और दोनों तरफ की जनता अपनी-अपनी सेना को इतना प्यार करती है कि वह इन दावों को झूठ नहीं मानेगी.

भारत को पहले तो अपनी जनता को यह समझाना पड़ेगा कि युद्ध क्या होता है. अमेरिकी हवाई या ड्रोन हमलों (जिनमें अमेरिका का पूरे आसमान पर पूरा नियंत्रण होता है) के फुटेज, या मूर्खतापूर्ण फिल्में देखकर कई लोगों का दिमाग खराब हो चुका है. जोश पैदा करने वाली इन फिल्मों में ‘विजय जासूस’ टाइप की जासूसी कहानियों से प्रेरणा लेकर उछलकूद दिखाई जाती है या फिर ‘उरी’ फिल्म में आविष्कृत ‘गरुड़’ जैसे गेजेट दिखाए जाते हैं. असली लड़ाई खिलौने की किसी दुकान की सैर जैसी नहीं होती.

आपके सैनिक सनी देओल और विक्की कौशल जरूर होंगे मगर पाकिस्तानी कोई जॉनी वाकर नहीं हैं. वे भी इसी मिट्टी की औलाद हैं और वे भी लड़ाके फौजी हैं. भारत के पेशेवर सैनिक उन्हें कतई हल्के में नहीं लेते. इसीलिए वे असली लड़ाई में जीतते रहते हैं. यह नेताओं की जिम्मेदारी है कि वे लोगों के जेहन में ऐसी बातें डालें. लेकिन अगर वे अपनी लफ्फाजी भरी राजनीति के लिए सेना का इस्तेमाल करने, उनकी वर्दी पहनकर सेना का मखौल बनाने में ही लगे रहेंगे तो यह बहुत अविवेकपूर्ण होगा.

अंततः, समझने-बुझाने और खौफ पैदा करने की रणनीति ही सबसे अच्छी और अनिवार्य है. लेकिन इसके लिए आपमें दंड देने की वह क्षमता होनी चाहिए जिससे पाकिस्तान डरे और कोई दुस्साहस करने से बाज आए. अन्यथा आप इस बात के लिए तैयार रहें कि दोनों पक्ष एक-दूसरे को खौफजदा करने का नया तरीका अपनाएंगे, जो कि एटमी प्रतिकार की दहशत सरीखा होगा. भारत पाकिस्तान से कहता है कि तनातनी की लड़ाई में तुम हमसे जीत नहीं पाओगे, पाकिस्तान कहता है कि फौजी हिसाब से शायद यह मुमकिन हो लेकिन आर्थिक मोर्चे पर तुम्हारे दांव कहीं ऊंचे हैं.

तो, एक रास्ता है. अपना रक्षा बजट बढ़ाकर जीडीपी के 2 प्रतिशत पर फिक्स कर दीजिए. इससे रक्षा पर हम आज के खर्च के मुक़ाबले 25 प्रतिशत ज्यादा खर्च करने लगेंगे. सेनाओं में सुधार कीजिए. जनरल बिपिन रावत के पास इसकी बड़ी भारी योजना है. सेना को पारंपरिक युद्ध और निर्णायक प्रतिकार के लिए तैयार कीजिए. पाकिस्तान को होड़ लेने की चुनौती दीजिए. वह शांत हो जाएगा, या होड़ लेने के चक्कर में खुद को दरिद्र बना लेगा. जब वह आइएमएफ से 12 अरब डॉलर की राहत का हिसाब करने बैठेगा तब उसका दिमाग सचमुच ठिकाने लग जाएगा. याद रहे कि सर्वश्रेष्ठ सेना वह होती है जो इतनी ताकतवर और प्रभावशाली होती है कि उसका इस्तेमाल करने की जरूरत ही नहीं पड़ती. भारत ऐसी सेना बनाने में सक्षम है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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