कोरोनावायरस ने कई तरह के ‘मीम’ को जन्म दे दिया है, जो सोशल मीडिया पर खूब वायरल हो रहे हैं. मेरा पसंदीदा ‘मीम’ वह है जिसमें एक मरीज डॉक्टर से पूछता है कि आपके ख्याल से यह महामारी कब तक खत्म होगी? डॉक्टर जवाब देता है, ‘मैं नहीं जानता, मैं कोई पत्रकार नहीं हूं.’
इसी विनम्र भावना से मैं फिल्म अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत की मौत की कहानी को समझने और यह बताने कि हिम्मत कर रहा हूं कि उनकी मौत हमें बॉलीवुड के बारे में क्या कुछ बताती है. वैसे, उपरोक्त ‘मीम’ की तर्ज़ पर आप पलट कर मुझसे यह सवाल कर सकते हैं कि आप पत्रकार हैं तो क्या आप फिल्मी दुनिया के बारे में भी लिख सकते हैं?
मैं अपने अनुभव से लिखता हूं. अपने काम से मुझे इसलिए प्यार है कि इसने मुझे तमाम तरह के लोगों से बात करने, तमाम तरह के अनुभव हासिल करने के मौके दिए हैं.
मैंने सामाजिक समीकरणों को लेकर बनाई गई उल्लेखनीय फिल्मों ‘दिल चाहता है’ (2001) और ‘लगान’ (2001) के सिवाय किसी फिल्म के बारे में शायद ही कभी कुछ लिखा है. लेकिन 2000-13 के बीच जब मैं इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप का सीईओ और एडिटर-इन-चीफ था, तब इस ग्रुप के प्रतिष्ठित फिल्म अवार्ड्स (स्क्रीन अवार्ड्स) से जुड़े होने के कारण मुझे इस तिलिस्मी दुनिया के अनुभव हासिल करने का मौका मिला था.
तिलिस्मी इसलिए कि एक ओर तो यह इतनी सार्वजनिक, फिल्मों के टिकट खरीदने वाले करोड़ों दर्शकों या इसके अंदर के लोगों की भाषा में ‘कुर्सियों पर बैठे घटिया लोगों’ पर निर्भर है, तो दूसरी ओर इसका सारा कारोबार इतना अपारदर्शी है जितना और कोई शायद ही होगा. किसी भी ‘बाहर वाले’ के लिए यह बेहद हताश करने की हद तक अभेद्य साबित हो सकता है, जैसा कि सुशांत जैसे कामयाब शख्स के लिए भी शायद साबित हुआ. इसमें सब कुछ है- ग्लैमर, नाम-दाम, जोश, गुटबाज़ियां, घराने, सब कुछ. यह आम तौर पर प्रतिभाशालियों की ही दुनिया है. आखिर धर्मेंद्र घराने के चार बच्चों-हेमा मलिनी से हुए दो समेत- में से केवल एक को सनी देओल को औसत कामयाबी मिल पाई, भले ही इस घराने को भाजपा की ओर से संसद में तीन सीटें भी मिलीं. अभिषेक बच्चन ‘स्ट्रगल’ ही कर रहे हैं जबकि वे लोकप्रिय और प्रभावशाली माता-पिता की संतान, ऐसी ही पत्नी के पति हैं, टैलेंट भी रखते हैं और वह शालीन छवि भी रखते हैं जो फिल्मी दुनिया में कम ही पाई जाती है.
बॉलीवुड में इतना कुछ है, तो फिर कमी क्या है? सुशांत जैसा प्रतिभाशाली और कामयाब ‘बाहरी’ यहां टूट क्यों जाता है? इसका जवाब एक ही शब्द में है-इज्ज़त.
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हालांकि, इसे बड़ी शान से एक ‘इंडस्ट्री’ कहा जाता है. लेकिन इस दुनिया का कोई गुरुत्वाकर्षण केंद्र नहीं है, हो भी नहीं सकता क्योंकि वहां कोई भी न तो किसी व्यक्ति की इज्ज़त करता है, न किसी संस्था-संगठन की, न सरकार की, न मीडिया की, किसी की भी नहीं. हर कोई या तो प्रतिद्वंद्वी है या फिर दोस्त है. वहां हर किसी को खरीदा जा सकता है या उसकी बांह मरोड़ी जा सकती है (मीडिया और फिल्म समीक्षक) या उसकी (कोई नेता) चापलूसी की जा सकती है. मैंने देखा है, वह बेहद अकेलेपन की सबसे स्वार्थी दुनिया है. मैं चार दशकों से भारतीय राजनीति पर लिखकर जिंदगी चलाता रहा हूं.
बाहर वालों के लिए बॉलीवुड अगर इतना बेरहम है, तो यह सिर्फ घरानों या गुटों की वजह से नहीं है. असली बात यह है कि वहां जारी क्रूर प्रतियोगिता के खेल में न कोई अंपायर है, न कोई चेतावनी की सीटी बजाने वाला है, न कोई बीच-बचाव करके सुलह कराने वाला है.
स्क्रीन अवार्ड्स के मामले में मेरी प्रारंभिक ज़िम्मेदारी यह होती थी ‘स्क्रीन’ की संपादक भावना सोमैया और बाद में प्रियंका सिन्हा झा के साथ मिलकर हर साल एक जूरी का गठन करूं और उसे स्वतंत्र होकर काम करने दूं. यहां तक तो हम सफल थे. एक्सप्रेस ग्रुप के प्रबन्धकों या इसके मालिकों अथवा उनके परिवार की ओर से हमें कभी कोई ‘सुझाव’ देने वाला फोन नहीं आया. लेकिन पुरस्कार पाने वालों की लिस्ट सामने आते ही दबाव पड़ने लगता. इसके बाद हर जनवरी में मुंबई में अवार्ड नाइट होने तक के दिन हमारे लिए बुरे सपने जैसे बीतते. भारत में फिल्म अवार्ड्स ऑस्कर अवार्ड्स की तरह केवल पुरस्कार देने और बयान देने तक सीमित नहीं होते. यहां ये कई घंटे चलने वाले टीवी शो भी होते हैं, जिनके लिए होस्ट चैनल भुगतान करता है और फिर स्पॉन्सरों से वसूली करता है. यह रेटिंग का खेल है. यह रेटिंग दो तरह से बढ़ाई जाती है- एक तो मंच पर टॉप फिल्मी सितारों को बुलाकर उनसे उस साल के हिट गाने पर डांस करवा के, दूसरे, दर्शकों के बीच सबसे चहेते चेहरों को दिखा कर. पहला उपाय आसान है, भले ही काफी महंगा है लेकिन दूसरा उपाय मुश्किल वाला है.
उस आयोजन में कोई फिल्म स्टार मौजूद होगा या नहीं, यह इस पर निर्भर होगा कि उसे कोई पुरस्कार मिल रहा है या नहीं. अगर हम अवार्ड की व्यवस्था नहीं करते (जो हम कभी नहीं कर पाते थे या करते थे), तो केवल वह स्टार ही नहीं बल्कि उसका पूरा गुट या घराना बायकॉट कर देता था. मुझे तारीख ठीक से याद नहीं है और फिल्मों के अपने कमजोर ‘जीके’ के लिए माफी मांगते हुए मैं कहूंगा कि इसका पहला अनुभव हमें शायद 2004 में मिला, जब ऐसे ही एक असंतोष के कारण बच्चन घराने ने बायकॉट किया था.
इस तरह की घटना हर साल होती रही. यहां मैं ऐसी कुछ घटनाओं का जिक्र करूंगा. ताकि यह बता सकूं कि घराने से लेकर गुट और एक अकेले स्टार तक का कितना दबदबा है. 2011 के पुरस्कार (2010 में रिलीज़ हुई फिल्मों के लिए) समारोह में, जाहिर था कि ‘माइ नेम इज़ खान’ सबसे हिट फिल्म थी. इसे किसी केटेगरी के लिए नामजद नहीं किया गया. हम नहीं कह सकते थे कि यह सही था या गलत, यह जूरी का फैसला था. जूरी के अध्यक्ष सर्व-प्रतिष्ठित और जाने-माने कलाकार अमोल पालेकर थे. शाहरुख खान को करार के तहत मंच पर प्रेजेंटर की भूमिका निभानी थी.
जैसा कि होता रहा है, तीन दिन पहले बायकॉट की धमकी उभरी, हालांकि सच कहूं तो मैंने शाहरुख से समारोह के पहले या उसके दौरान या बाद कभी इस तरह की कोई बात नहीं सुनी. लेकिन ‘उस फिल्म से जुड़े’ लोगों से ऐसी बातें आईं. घबराहट फैल गई, मुझे करन जौहर से फोन पर देर-देर तक शिकायत सुननी पड़ी, वे यह मानने को तैयार नहीं थे कि जूरी को वह फिल्म किसी अवार्ड के काबिल नहीं लगी. मुझे इस तरह के तर्क दिए गए कि पालेकर को ‘साल की हिट फिल्में’ देने वालों किस तरह नापसंद हैं. उन्होंने अनुराग कश्यप की ‘मामूली-सी फिल्म’ ‘उड़ान’ को चुनने की हिम्मत कैसे की. खैर, हमने धैर्य रखा और हमारी सांस में सांस तब आई जब व्युअर्स च्वाइस अवार्ड की घोषणा हुई, जो हमारे होस्ट टीवी चैनल के इंटरनेट पॉल पर आधारित था और उसी फिल्म के पक्ष में था. हमें संतोष हुआ की हमारी प्रक्रिया साफ-सुथरी है.
स्क्रीन अवार्ड्स के साथ मेरी अंतिम अग्निपरीक्षा 2012 में खत्म हुई. उस साल बेस्ट फिल्म का अवार्ड विद्या बालन स्टारर ‘डर्टी पिक्चर’ और मल्टी-स्टारर ‘ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा’ को संयुक्त रूप से दिया गया. यहां तक तो ठीक था. लेकिन अपने विवेक से जूरी ने सर्वश्रेष्ठ निर्देशक का अवार्ड ‘ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा’ की जोया अख्तर के बदले ‘डर्टी पिक्चर’ के मिलन लूथरा को घोषित कर दिया. अवार्ड देने वाले दिन प्रियंका ने घबराहट में फोन किया कि ‘ज़िंदगी न मिलेगी दोबारा’ के कास्ट और क्रू ने बायकॉट करने की घोषणा की है. अब ‘बेस्ट फिल्म’ का अवार्ड लेने के लिए कोई मंच पर आएगा नहीं, तो आप कोई अवार्ड नाईट कैसे आयोजित कर सकते हैं. हमने फिर कूटनीति अपनाई लेकिन यह कारगर नहीं हुई. उस फिल्म का कोई आदमी तो नहीं ही आ रहा था, उन लोगों ने अपने दोस्तों को भी आने से रोक दिया.
उस शाम हताशा में मैंने जावेद अख्तर तक को गुजारिश करने के लिए फोन कर दिया. उधर से फरहान ने जवाब दिया. वे आए मगर रूठे-रूठे मूड में, काले कपड़े में. उन्होंने कहा कि वे आदर (जूरी के लिए नहीं) जताने के लिए आ गए हैं मगर मंच पर आकर अवार्ड नहीं ग्रहण करेंगे. वे कुछ मिनट बाद ही चले गए.
आगे की कुर्सियों में बैठी कृशिका लुल्ला मुझे दिखीं, जिनकी एरॉस कंपनी के पास इस फिल्म के वर्ल्ड राइट्स थे. मैंने उनसे अनुरोध किया कि वे मंच पर आकर अपने फिल्म का अवार्ड ग्रहण करें. उन पर तो मानो घड़ों पानी गिर गया. वे हतप्रभ रह गईं, कोई निर्माता तमाम घरानों, स्टारों, और गुटों के कोप का एक साथ कैसे सामना कर सकता था! आखिर हमें अपने एक कर्मचारी को फिल्म की ओर से अवार्ड लेने के लिए भेजना पड़ा.
कई और भी बातें हैं, जिन्हें आप कभी मेरे संस्मरणों में पढ़ सकेंगे. बहरहाल, 2007 की बात बताऊं जब ह्रितिक रोशन को ‘कृष’ फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का अवार्ड देने का फैसला किया गया था. उनसे मंच पर कार्यक्रम देने का भी करार किया गया था. समारोह से एक घंटे पहले उनका फोन आया कि वे आकर मंच पर कार्यक्रम तो पेश करेंगे मगर अवार्ड नहीं लेंगे.
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क्यों? क्योंकि वे उस ‘जूरी को कैसे इज्ज़त बख्श सकते हैं जिसने उनके पिता की ऊंची काबिलियत को मान्यता नहीं दी?” उनके पिता राकेश रोशन उस फिल्म के निदेशक थे. बहरहाल, ह्रितिक अंततः मान गए लेकिन अवार्ड के उपलक्ष्य में दी गई पार्टी का उन्होंने बायकॉट कर दिया.
इसी तरह, 2012 में कैटरीना कैफ ने मंच पर कार्यक्रम पेश करने का करार और पूरा भुगतान पहले ही ले लेने के बाद शो से कुछ मिनट पहले ही बखेड़ा खड़ा कर दिया क्योंकि उन्हें अवार्ड नहीं दिया गया था. मुझे उनके वैन में ले जाया गया ताकि उन्हें मना सकूं. वे शो देने के लिए पूरी तरह सजधज कर बैठी थीं. वे अचानक फट पड़ीं, मुझे हमेशा क्यों बुला लिया जाता है और कोई अवार्ड नहीं दिया जाता? मैंने उन्हें समझाया कि ऐसा कोई करार नहीं हुआ था, आपको केवल शो करना है. तब तक उनकी आंखों से आंसू बह चले थे और उनका मेकअप धुलने लगा था. आखिर हमने ‘पॉपुलर च्वाइस’ नाम का एक अवार्ड ईजाद किया.
सबको मालूम है कि आमिर खान किसी अवार्ड समारोह में नहीं जाते क्योंकि उनका मानना है कि यह सब ‘फिक्स’ होता है. हर साल मैं उन्हें फोन करता कि क्या वे मुझ पर भी विश्वास नहीं करते कि हम अपने अवार्ड को साफ-सुथरा रखते हैं? वे मुझसे यही कहते कि आप इस पचड़े से अलग ही रहिए, आप इसे संभाल नहीं पाएंगे कि यहां अवार्ड की बिलकुल निष्पक्ष प्रक्रिया नामुमकिन है. मैं उनसे कहता, हमारे जूरी के अवार्ड तो साफ-सुथरे है, ‘पॉपुलर च्वाइस’ वाले से हमारा कोई लेना-देना नहीं है. इसलिए हम 90 फीसदी तो साफ-सुथरे हैं. उनका जवाब होता- मैंने कहा था न!
आज मैं यह सब इसलिए बता रहा हूं कि आपको अंदाजा मिल सके कि बिलकुल बाहर का कोई आदमी वहां के माहौल में कितना अकेला और तनावग्रस्त महसूस कर सकता है. हमारे स्टार तो बड़े अखबारों में जगह पाने के लिए पैसे खर्च करते ही हैं. किसी फिल्म को ताकतवर मीडिया (अपवादों को छोड़) में समीक्षा की रेटिंग में कितने ‘सितारे’ मिलेंगे यह भी मोलभाव करके खरीदे जाते हैं. प्रायः अवार्ड स्थापित स्टारों, घरानों, गुटों की ताकत के बूते तय किए जाते हैं. चेतावनी की घंटी बजाने वाला कोई नहीं है. कोई बड़ा नेता नहीं है, संघ या अकादमी जैसी कोई संस्था नहीं है, कुछ पत्रकार हैं जो विश्वसनीयता और गंभीरता के साथ काम कर रहे हैं मगर कोई ‘व्हिसल ब्लोवर’ नहीं है. किसी भी बाहरी शख्स के लिए यह बहुत बहुत दुखदायी जगह है, क्योंकि पूरी सिस्टम आपके खिलाफ जा सकती है. एक्सप्रेस जैसे बड़े अखबार समूह को भी बख्शा नहीं जाता.
(पुनश्च: मैं पुराने रंग-ढंग का हूं, इसलिए मैंने एक्सप्रेस समूह के चेयरमैन विवेक गोयनका को फोन करके बता दिया था कि मैं यह सब लिखने जा रहा हूं. उन्हें कोई आपत्ति नहीं थी.)
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Very apt information.
Bitter truth.
Insan aakhir chahta kiya hi kyon karta hi ye sab kisiko dukh dekar kise khus rah sakta hi bhagbaan kare ye paap ki duniya ka ant ho jaaye
Has Katrina translated this article into Hindi?
There is a lot of pain and politics behind the glamour of Bollywood.