सेना जूनियर कमीशंड अफसर (जेसीओ) के पद पर सीधे कमीशन देने के एक प्रस्ताव पर विचार कर रही है. सेना के ही अधिकारियों से गुप्त रूप से प्राप्त जानकारी के अनुसार इस प्रस्ताव का मकसद सेना में 7,399 अफसरों की कमी को एक निश्चित प्रतिशत में जेसीओ को सीधे प्रवेश देकर दूर करना है. इन अफसरों को चयन के आधार पर बाद में कर्नल के पद तक प्रोमोशन दिया जा सकता है. यह प्रविष्टि जेसीओ को प्राधिकृत की जाने की संख्या के अलावा होगी और यह ऑफसेट अधिकारियों की वैकेंसियों के इतर होगी इसलिए नॉन कमीशंड अफसरों (एनसीओ) के प्रोमोशन को प्रभावित नहीं करेगी.
वैसे तो लगता है कि यह प्रस्ताव जेसीओ की कमी और उसके स्तर को सुधारने में बड़ा योगदान देगा लेकिन इसकी गहरी जांच करने पर पता चलता है कि यह सेना की सबसे बड़ी कमजोरी को दूर करने में विफल रहेगा. सेना में सबसे बड़ी कमजोरी है अफसरों की कमी, सैनिकों और जूनियर कमांडरों की अक्षमता.
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जेसीओ: औपनिवेशिक विरासत
भारतीय सेना में जो ब्रिटिश अफसर थे वे क्षेत्र/धर्म/जाति पर आधारित भारतीय सैनिकों की भाषाओं, सामाजिक-आर्थिक स्थितियों, जाति, धर्म, स्थानीय रीति-रिवाजों और जीवनशैली से परिचित नहीं थे. इस खाई को भरने के लिए ब्रिटिश काल की भारतीय सेना ने देसी सैनिकों की पृष्ठभूमि से आए जूनियर अफसरों की जरूरत महसूस की.
नीतिगत लिहाज से भारतीयों को अफसर बनने के काबिल नहीं माना गया. दूसरे, सिपाही विद्रोह ने भी एक और वजह जुटा दी. इस तरह, सैनिकों को संभालने के लिए जूनियर साहिब— वाइसराय कमीशन अफसर (वीसीओ) का एक दर्जा बनाया गया. ब्रिटिश अफसरों की संख्या कभी पर्याप्त नहीं होती थी और वीसीओ इस कमी को पूरा करते थे.
बाद में वीसीओ का नाम बदलकर जेसीओ कर दिया गया. वे नीचे के पद से इस पद पर आते थे. ब्रिटिश राज के प्रति वफादारी इस प्रोमोशन के लिए सबसे बड़ी कसौटी थी. उन्हें गज़टेड अफसर क्लास 2 बनाया जाता था और उनकी हैसियत बढ़ाने के लिए ऊंचा वेतन तथा अलग मेस जैसी विशेष सुविधाएं दी गईं. सभी सैनिक इस पद पर आने की ख़्वाहिश रखते थे. 1922 के बाद भारतीयों को भी अफसर के पदों पर धीरे-धीरे कमीशन किया जाने लगा- पहले सैंडहर्स्ट रॉयल मिलिटरी कॉलेज के जरिए और बाद में इंडियन मिलिटरी अकादमी के जरिए.
आज़ादी के बाद भी जेसीओ का पद कायम रखा गया क्योंकि तब तक यह सिस्टम का एक अहम पुर्जा और सेना की परंपरा का हिस्सा बन गया था.
लेकिन इतने वर्षों में, ट्रेनिंग के पुराने तरीकों और उम्र संबंधी कारणों से जेसीओ का स्तर गिरा है. युद्ध में सैनिकों का प्रभावी नेतृत्व करने के लिए जूनियर कमांडरों की उम्र 40 साल से कम होनी चाहिए. सभी रैंकों के लिए उम्र सीमा बढ़ाने से और ठहराव के कारण अधिकतर जेसीओ आज 40 से 50 की उम्र के बीच में हैं.
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क्यों कम पड़ रहे हैं अधिकारी
पिछले चार दशकों में अफसरों की कमी एक बड़ी समस्या बन गई है, जिससे सेना का संचालन कौशल प्रभावित हुआ है. स्थिति इतनी गंभीर हो गई कि सर्विसेज के लिए कमीशन किए गए युवा अफसरों को ऑपरेशन/बगावत वाले क्षेत्र में थल सेना/ राष्ट्रीय राफल्स की टुकड़ियों में एक से तीन साल (अब एक से दो साल) के लिए तैनात करना जरूरी कर दिया गया.
यह कमी इन वजहों से आई है- 1962 के बाद सेना का तेजी से विस्तार, मिलिटरी अकादमियों की सीमित क्षमता, सर्विसेज सेलेक्शन बोर्डों के सामने कमजोर किस्म के उम्मीदवारों का आना, जूनियर अफसरों के अधिकारों में कमी की भरपाई के लिए यूनिटों में अफसरों का बेहिसाब ऑथराइजेशन और खराब प्रबंधन वाला अनाकर्षक शॉर्ट सर्विस कमीशन.
मिलिटरी अकादमियों की क्षमता अधिकतम स्तर तक बढ़ा दी गई है और बीते वर्षों में अफसरों की कमी को 20 से घटाकर 15 प्रतिशत पर लाया गया है. वर्तमान क्षमता के हिसाब से इस कमी को पूरी तरह दूर करने में प्रति वर्ष 1 फीसदी की दर से 15 साल लग जाएंगे. इसके साथ ही दूसरी समस्या यह है कि अयोग्य उम्मीदवारों के कारण मिलिटरी अकादमियां क्षमता से कम पर काम कर रही हैं. शॉर्ट सर्विस कमीशन को आकर्षक बनाने की कोशिश की जा रही है ताकि शॉर्ट सर्विस और रेग्युलर अफसरों का अनुपात 55:45 हो जाए.
लेकिन, कमी की मुख्य वजह यह है कि जूनियर अफसरों को सक्षम नहीं बनाए जाने के कारण अफसरों पर निर्भरता बढ़ गई है और इस वजह को दूर नहीं किया जा रहा है. क्षमता में कमी का मसला इस स्तर के लिए सापेक्ष हो जाता है और अच्छा बहुत अच्छा नहीं होता. हमारी इनफैन्ट्री बटालियनें दूसरे विश्व युद्ध में 11 अफसरों और 24 जेसीओ के साथ लड़ी थीं. आज हमारी एक यूनिट के पास 21 अफसर और 55 जेसीओ होते हैं. यही स्थिति दूसरे आर्म्स और सर्विसेज में है.
हमारा फायर पावर पहले से कहीं ज्यादा घातक और सटीक है लेकिन आज भी जमीनी ठिकानों या दुश्मन सैनिकों को करीबी युद्ध में कब्जा करना या नष्ट करना पड़ता है और यह काम एनसीओ या जेसीओ की कमान में सेक्शन या प्लाटून करती हैं. अगर लड़ाई में हर बार अफसरों को सेक्शन या प्लाटून की कमान संभालनी पड़े, तो यह जूनियर अफसरों की क्षमता की बुरी छवि पेश करता है. यूनिटों में अफसरों को कम से कम प्राधिकृत करने की जरूरत पड़नी चाहिए और उन्हें कमजोर जूनियर अफसरों के बदले में भरपाई के लिए इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए.
जूनियर अफसरों को सक्षम बनाने का पहला कदम यह होगा कि मैट्रिक से लेकर 10+2/ ग्रेजुएशन की पढ़ाई का स्तर आनुपातिक रूप से ऊपर उठाया जाए. टेक्निकल ऑपरेशन और अत्याधुनिक तकनीक वाले हथियारों तथा सपोर्ट सिस्टम के लिए ग्रेजुएट उम्मीदवार चाहिए. चयन प्रक्रिया की समीक्षा की जाए और इसमें सर्विसेज सेलेक्शन बोर्ड की तरह इंटेलिजेंस और एप्टीट्यूड टेस्ट शामिल किया जाए.
दूसरे विश्व युद्ध में भी जर्मन सेना में कोई भी एनसीओ अकादमी से पास किए बिना सेक्शन या प्लाटून की कमान नहीं संभाल सकता था. उस युद्ध में उसने अफसर और सैनिक के 1:30 के अनुपात से शुरुआत की थी. युद्ध के अंत में मौतों के कारण यह अनुपात 1:300 का हो गया था. लेकिन जर्मन सेना ने युद्ध में अपना तालमेल कभी नहीं खोया क्योंकि जूनियर अफसर उसकी रीढ़ की हड्डी थे.
जूनियर अफसरों की ट्रेनिंग देने वाले हमारे संगठनों की क्षमता अपर्याप्त है और अधिकांश ट्रेनिंग यूनिटों में दी जाती है जिनके पास शांति काल के कारण या ऑपरेशनों आदि के कारण न तो समय होता है, न जरूरी इन्फ्रास्ट्रक्चर होता है. सिर्फ जूनियर अफसरों की ट्रेनिंग देने के लिए अकादमी बनाने की सख्त जरूरत है. किसी को ऐसे अकादमी से ट्रेनिंग लिये बिना सेक्शन या प्लाटून का कमांडर नहीं बनाया जाए.
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जेसीओ की सीधी एंट्री
इसमें शक नहीं है कि इस तरह की एंट्री के लिए ग्रेजुएट होने की शर्त जोड़ने पर अफसरों की कमी दूर होगी. इससे जूनियर अफसरों का स्तर भी ऊपर उठेगा. लेकिन उनकी छोटी संख्या के कारण बहुत कम फर्क पड़ेगा. वैसे भी यह फौरी समाधान ही है, अधिकारियों की कमी का जो मूल कारण है वो है जूनियर अफसरों की अक्षमता- उसका यह कोई इलाज नहीं करेगा.
जूनियर अफसरों की ट्रेनिंग में आमूलचूल परिवर्तन करने की जरूरत है. सेना अनुभव से मिले इस ज्ञान का सहारा ले कि कोई भी यूनिट उतनी ही अच्छी होती है जितनी उसकी सेक्शन या प्लाटून अच्छी होती है. और सेक्शन या प्लाटून की कमान जूनियर अफसरों के हाथों में होती है.
(ले.जन. एचएस पनाग, पीवीएसएम, एवीएसएम (रिटायर्ड) ने 40 वर्ष भारतीय सेना की सेवा की है. वो जीओसी-इन-सी नॉर्दर्न कमांड और सेंट्रल कमांड रहे हैं. रिटायर होने के बाद वो आर्म्ड फोर्सेज ट्रिब्यूनल के सदस्य रहे. व्यक्त विचार निजी हैं)
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