लंच ब्रेक पर निकले स्कूली बच्चों के शोरगुल के बीच 17 वर्षीय जेसी वाशिंगटन को एक पेड़ से लटका दिया गया, और उसके कान, अंगुलियां और जननांग काट दिए गए. 1916 में यह त्रासद घटना कवर करते हुए वाको टाइम्स-हेराल्ड ने लिखा कि भीड़ खुश होकर शोर मचा रही थी और हंस रही थी कि एक अफ्रीकी-अमेरिकी किशोर को तेल में डुबोने के बाद लटकाकर आग लगा दी गई थी, जिससे उसकी जान धीरे-धीरे निकले. वहीं, एक संभ्रांत महिला इस बात से काफी संतुष्ट थी कि ‘रास्ता छोड़ दिया गया था ताकि वह एक अश्वेत के छटपटाकर मरने की इस वीभत्स घटना को ठीक से देख सके.’
आमतौर पर शादियों और परेड आदि में बुलाए जाने वाले एक स्थानीय फोटोग्राफर फ्रेड गिल्डर्सलीव ने लिंचिंग की इस घटना को अपने कैमरे में कैद किया, और फिर इन तस्वीरों को 10 सेंट के पोस्टकार्ड के रूप में बेचा. वाशिंगटन को जलाए जाने के बाद उसके जो दांत सड़क पर पड़े मिले उनमें से प्रत्येक को 5 डॉलर की कीमत पर बेचा गया.
आज भारत के बड़े हिस्से में हत्या का जश्न मनाने की यही संस्कृति—जिसे सेलफोन पर रिकॉर्ड किया जाता है और सोशल मीडिया के माध्यम से सर्कुलेट किया जाता है—खतरनाक ढंग से हावी होती जा रही है. छोटे शहरों और गांवों के गली-कूचों की सत्ता वास्तव में विचाराधारा के आधार पर काम करने वाले गैंगस्टर चला रहे हैं, न कि राज्य की संस्थाएं.
अमेरिका की तरह, यहां पर भी बात यह नहीं है कि किसी निशक्त अल्पसंख्यक को प्रताड़ित किया जा रहा है, बल्कि यह सब खून के बलबूते पर बहुसंख्यकों को एक नए वैचारिक बंधन में बांध रहा है.
आम बात होती जा रहीं दहशतगर्दी की घटनाएं
झारखंड के कोडरमा जिले में रामनवमी के मौके पर शोभायात्रा में तमाम उत्साही युवक मौज-मस्ती करते, नाचते-गाते सड़कों पर चल रहे थे और पुलिस उन पर नजर रखे थी, भजन-संगीत के बीच वे ‘मुसलमान मा****द’ हैं जैसे शब्दों का भी इस्तेमाल करते जा रहे थे. इस तरह की भाषा के इस्तेमाल का कारण सोच से परे है. जाने-माने एयरलाइन एग्जीक्यूटिव से आश्रम प्रमुख बने अनुपम मिश्रा, जो बजरंग मुनि के नाम से चर्चित हैं, जब मुस्लिम महिलाओं से रेप की धमकी देते हैं तो उनके समर्थक जयकारे लगाते हैं. वहीं साध्वी सरस्वती हिंदुओं से हथियार जुटाने और गोमांस खाने वालों को सरेआम फांसी पर लटकाने का आह्वान करती है, और दीपेंद्र सिंह उर्फ यति नरसिंहानंद नरसंहार के पक्षधर नजर आते हैं.
पिछले हफ्ते, रामनवमी के मौके पर आठ राज्यों में दंगों ने पूरे भारत में नफरत की राजनीति के तेजी से जड़ें जमाने की आशंकाओं को रेखांकित किया है. हालांकि, कहा जा सकता है कि इस बात के सबूत कम ही हैं कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के कार्यकाल के दौरान दंगों में तेजी आई है. सांप्रदायिक दंगों में हिंसा का स्तर, और इसके परिणामस्वरूप होने वाली मौतों में 2008 से 2011 के बीच कमी आई थी, इसके बाद 2016 तक इनमें फिर तेजी दिखी. 2017 से 2020, जिस आखिरी साल तक के आंकड़े उपलब्ध हैं, के बीच दंगों की संख्या 2008 के स्तर के करीब पहुंच गई.
यही नहीं, कुछ नया भी घट रहा है: धार्मिक प्रचारकों या स्थानीय नेताओं के इर्द-गिर्द सिमटे कुछ संगठनों से जुड़े सड़क-छाप गैंग आम तौर पर छोटी-मोटी और निम्न स्तर की हिंसात्मक घटनाओं के साथ एक राष्ट्रवादी हिंदू राष्ट्र के निर्माण की कोशिश में जुटे हैं. ये गैंग हमारे खान-पान, हमारे पहनावे, हमारे रिश्तों, हमारी बातचीत पर नियंत्रण की कोशिश कर रहे हैं.
एक हिंदू महिला के साथ यात्रा करने पर एक मुस्लिम पुरुष की पिटाई; मुस्लिम रेहड़ी-पटरी वालों पर हमले; मंदिर परिसर में मुस्लिम दुकानदारों के व्यापार पर प्रतिबंध, इस सप्ताह दिल्ली में गोहत्या के आरोपी एक हिंदू व्यक्ति को मार डाले जाने की घटना आदि इसके कुछ उदाहरण हैं, सरकार के पास भले ही पिटाई, लिंचिंग और धमकियों से जुड़े आंकड़े ना हों, लेकिन निराशाजनक ढंग से इस तरह की घटनाएं लगातार हो रही हैं.
एक नए तरह का राष्ट्रवाद
एडवर्ड एंडरसन का तर्क है कि ये हिंसक समूह उस प्रणाली का हिस्सा हैं जिसे वह नव-हिंदुत्व करार देते हैं: ‘हिंदू राष्ट्रवाद की गैर-जिम्मेदाराना अभिव्यक्ति, जो संघ परिवार के संस्थागत और वैचारिक ढांचे के बाहर काम करती है.’ पूरे उत्तर भारत में फैले गौ रक्षा समूह, हिंदू युवा वाहिनी, हिंदू जनजागृति समिति, श्री राम सेने और अन्य कट्टरपंथी समूह सड़कों पर उतरकर हिंदुत्व राष्ट्र के निर्माण में जुटे हैं.
मानवजाति पर अध्ययन करने वाले विज्ञानी सतेंद्र कुमार के फील्डवर्क से पता चलता है कि ऐसे समूह बेरोजगार या कुछ छोटा-मोटा काम करने वाले युवाओं के एक बड़े वर्ग की वजह से फलते-फूलते हैं, जो धार्मिकता के जरिये अपना कोई मुकाम बनाने या प्रतिष्ठा हासिल करने की कोशिश में रहते हैं. कांवड़ यात्रा या स्थानीय धार्मिक जागरण जैसे कार्यक्रम गौ रक्षा समूहों और अन्य हिंदुत्व सतर्कता संगठनों की गतिविधियों को बढ़ावा देने में अहम भूमिका निभाते हैं.
सतेंद्र कुमार यह बात रेखांकित करते हैं कि इस दुनिया में युवाओं की मर्दानगी दिखाने की चाहत, छोटे-मोटे अपराधों में संलिप्तता और आर्थिक असुरक्षा को आडंबरपूर्ण धार्मिकता से एक ढाल मिल जाती है. इन सबसे मिलकर बना तथाकथिक बौद्धिक वातावरण हरियाणा के गायक उपेंद्र राणा के गानों की तरह पॉप-हिन्दुत्व के इर्द-गिर्द केंद्रित होता है, न कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक सिंह (आरएसएस) वाली कठोर संस्कृति से.
विद्वान माटेओ मिलन के मुताबिक, फांसीवादी इटली को जमीनी स्तर पर मजबूती स्क्वाड्रिस्टी एक्शन-ग्रुप्स के जरिये मिली थी जो अल-ड्यूस बेनिटो मुसोलिनी के प्रति वफादार थे, और उनके नाम पर ही ये समूह ‘पूरे ग्रामीण इलाकों में दहशत का माहौल बनाते थे.’ भारत के विभिन्न हिस्सों में सत्ता का दुरुपयोग करने वाले नव-हिंदुत्व समूहों से बहुत अलग नहीं रहे ये स्क्वाड्रिस्ट ‘स्वेच्छाचारी और हिंसक थे, लेकिन फासीवाद और ड्यूस के लिए काम करने की वजह से अपरिहार्य बन गए थे.’
नव-हिंदुत्व गिरोह के सदस्यों के लिए हिंसा अंत का साधन नहीं है. बल्कि यह अपने आप में एक अंत है. हर किसी को अच्छी लिंचिंग पसंद होती है.
नफरत फैलने के खतरनाक नतीजे
सच तो यह है कि नफरत-भरी बातों या हत्याओं में कुछ नया नहीं है: निराशाजनक रूप से सांप्रदायिक दंगे भारत के राजनीतिक और सामाजिक जीवन का एक जाना-पहचाना हिस्सा रहे हैं. वायलेट ग्रेफ और जूलियट गैलोनियर जैसे विद्वानों का श्रमसाध्य अध्ययन हमें याद दिलाता है कि 1961 के बाद से भारत में नियमित तौर पर सांप्रदायिक हिंसा की घटनाएं होती रही हैं और इसमें सैकड़ों लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी है. विभाजन के बाद भी हर दंगे में महिलाओं को यौन हिंसा का शिकार बनते देखा गया है.
अजय वर्गीज और रॉबर्टो फोआ ने दर्शाया है कि हिंदू-मुस्लिमों के बीच नृशंस संघर्ष तो पूर्व-औपनिवेशिक काल में भी होता रहा है, गंगा-जमुनी तहजीब में अंतर्निहित सांस्कृतिक चिंताओं और जख्मों को भुलाकर जिनसे आसानी से बाहर आया जा सकता था और राजनीतिक लामबंदी में इस्तेमाल किया जा सकता था
1980 के दशक से प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी—जिनकी वैधता पर आपातकाल और मरणासन्न अर्थव्यवस्था के कारण सवाल उठे—ने पूरी सफलता के साथ एक संस्थागत दंगा प्रणाली विकसित की. 1980 में मुरादाबाद में बड़े पैमाने पर सांप्रदायिक हिंसा शुरू हुई, जो तीन महीने से अधिक समय तक चली और आधिकारिक रिकॉर्ड के मुताबिक, पुलिस की अगुवाई वाले एक नरसंहार में लगभग 400 लोग मारे गए.
उत्तर प्रदेश पुलिस पर नकेल कसने के बजाये, प्रधानमंत्री गांधी ने जोर देकर कहा कि हिंदू ‘धर्म और परंपराओं’ पर हमला हो रहा है.
1983 तक, अलीगढ़, इलाहाबाद, गोधरा, बिहारशरीफ, नालंदा, हैदराबाद, वडोदरा, पुणे और मेरठ में जमकर कत्लेआम हुए, और असम के नेल्ली में बड़े पैमाने पर नरसंहार के साथ हिंसा अपने चरम पर पहुंच गई. इस दौरान कांग्रेस हिंदुओं की रक्षक बनकर उभरी.
भारतीय जनता पार्टी के नेता परवेश वर्मा ने जब हिंदुओं से यह कहा कि शाहीन बाग के प्रदर्शनकारी ‘आपके घरों में घुसने, आपकी बेटियों और बहनों का बलात्कार करने, और उन्हें मार डालने’ की साजिश रच रहे थे, तो भारतीय समाज में इन आशंकाओं को एक सच के तौर पर आत्मसात कर लिया. अब, नव-हिंदुत्व ने उन्हें अपनी जंग के लिए एक हथियार बना लिया है.
यह भी पढ़ें: यूक्रेन पर भारत की नीति को अनैतिक कहना पश्चिमी देशों का दोगलापन है, उन्हें अपने गिरेबान में झांकना चाहिए
दहशत की ताकत
हिंदुत्ववादी नेता बी.एल. शर्मा ‘प्रेम’ ने काफी निराशा के साथ कहा था, ‘मैंने 26 जनवरी पर करीब तीन लाख पत्र भेजे और अखंड भारत के करीब 20,000 नक्शे बांटे, लेकिन इन ब्राह्मणों और बनियों ने कभी कुछ नहीं किया और न ही कभी कुछ करेंगे.’ और उनका निष्कर्ष था, ‘ऐसा नहीं है कि शारीरिक ताकत के बलबूते पर ही कोई बदलाव आता हो, यह कदम लोगों को मानसिक तौर पर जागृत करेगा. मेरा मानना है कि आपको समाज को बदलना है तो कम से कम एक चिंगारी उठनी तो जरूरी है.’
सांप्रदायिक हिंसा पहले भी होती रही है, उसकी वजह से हिंदुओं और मुसलमानों के बीच द्वेष बढ़ा, नफरत की एक कभी न मिटने वाली खाई बन गई, पिछड़ेपन ने भी जड़ें जमा लीं और जैसे-जैसे दशक बीतते गए, घातक जिहादियों का उदय होने लगा. हालांकि, वे समाज पर राज्य के नियंत्रण या उसकी संस्थाओं की सर्वोच्चता को कमजोर नहीं कर पाए. लेकिन अब, नव-हिंदुत्व एक नए तरह समाज के निर्माण की इच्छुक है, जिसमें यह पहले से ही तय होगा कि हमें कैसे रहना है या हमें किससे प्यार करना है.
हिंदुत्व राष्ट्र निर्माण में नाकामी और अधिक हिंसा को जन्म दे सकती है—इसमें कमी के आसार नहीं हैं. 2007 के समझौता एक्सप्रेस बम धमाके मामले में यद्यपि अभियोजन पक्ष संदिग्ध हिंदू राष्ट्रवादी आरोपियों को दोषी साबित कराने में असमर्थ रहा है—खासकर शुरुआती जांच में की गई लापरवाही के कारण—लेकिन यह मामला नव-हिंदुत्व समूहों की घातक क्षमता को दर्शाता है.
बम बनाने वाले रामचंद्र कलसांगरा, संदीप डांगे और रमेश वेंकटराव महलकर, जिन पर कथित तौर पर बम धमाके का आरोप है, अभी भी फरार हैं. नेटवर्क में दो दोषी करार आतंकवादी थे जिन्होंने अजमेर शरीफ दरगाह में धमाका किया, इससे इस समूह और समझौता एक्सप्रेस हमले के बीच कड़ी साफ नजर आती है.
2003 के बाद आरएसएस से मोहभंग होने पर कट्टरपंथियों ने लोकतांत्रिक राजनीति की धारा छोड़कर बम वाली एक नई संस्कृति की ओर कदम बढ़ा दिए. अगस्त 2004 में महाराष्ट्र के पूर्णा और जालना में मस्जिदों में बम धमाकों में 18 लोग घायल हुए थे. 2006 की गर्मियों में नांदेड़ में बम बनाते समय बजरंग दल के सदस्य नरेश कोंडवार और हिमांशु फांसे की मौत हो गई थी. जून 2008 में ठाणे स्थित गडकरी रंगायतन थिएटर पर बमबारी के लिए हिंदू जनजागृति समिति के कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया था. इसके बाद, अक्टूबर में बजरंग दल से जुड़े राजीव मिश्रा और भूपिंदर सिंह कानपुर में बम बनाते समय मारे गए.
महाराष्ट्र के पूर्व पुलिस महानिदेशक केपी रघुवंशी ने एक साक्षात्कार में कहा था कि नांदेड़ की घटना के ‘नतीजे भयावह’ हो सकते हैं.
धुर नस्लवादी रहे अमेरिकी राष्ट्रपति लिंडन बी. जॉनसन ने ही आखिरकार अमेरिकी रंगभेद को समाप्त किया था, और यह कार्य उन्होंने इसलिए किया क्योंकि वह विभाजित और क्रोधित राष्ट्र के खतरों को समझते थे. सिंगापुर ने आवास एकीकरण को लागू करके सामुदायिक संघर्षों पर काबू पाया. भले ही इन देशों में तमाम समस्याओं ने गहराई से जड़े जमा रखी हों, फिर राष्ट्र के स्तर पर ठोस कार्रवाई से बड़े पैमाने पर जातीय संघर्ष की संभावनाएं घटी ही हैं.
भारत के विभिन्न क्षेत्रों में जाति के आधार पर होने वाले अत्याचारों ने शासन की ऐसी आधुनिक संरचनाओं का अभाव उत्पन्न कर दिया है जो कानूनों का पूरी तरह पालन सुनिश्चित कर सकें. बिहार के साथ-साथ उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के कुछ हिस्सों का पिछड़ापन, सरकार के हावी होने के बजाये गैंगस्टरों का बोलबाला रहने का ही नतीजा है. अब, हमारे सामने खतरा यह है कि राष्ट्र के स्थान पर एक हिंदू-राष्ट्रवादी व्यवस्था का उत्थान हो रहा है.
लेकिन हमने आगे आने वाले संकट की आहट सुनने के बजाये जानबूझकर अपनी आंखें बंद कर रखी हैं.
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)
यह भी पढ़ें: कर्नाटक के सामने एक समस्या है: BJP की विभाजनकारी राजनीति बेंगलुरु की यूनिकॉर्न पार्टी को बर्बाद क्यों कर सकती है