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Sunday, 22 December, 2024
होममत-विमतदिल्ली का प्रोफेसर जिसने मकबरों और मस्जिदों को सिर्फ ‘मुस्लिम’ नहीं, बल्कि ‘भारतीय मुस्लिम’ करार दिया था

दिल्ली का प्रोफेसर जिसने मकबरों और मस्जिदों को सिर्फ ‘मुस्लिम’ नहीं, बल्कि ‘भारतीय मुस्लिम’ करार दिया था

भारतीय वास्तुशिल्प को हिंदू, बौद्ध, ब्रितानी शाही और इस्लामी घोषित करने के चक्कर में इमारतों की चकित करने और चौंकाने की क्षमता का ह्रास हुआ है.

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1950 और 60 के दशक में दिल्ली के क़ुतुब मीनार आने वाले पर्यटकों को अक्सर कुर्ता-पायजामा और गांधी टोपी पहने एक कृशकाय व्यक्ति के पीछे स्कूली बच्चों का हुजूम दिख जाता था, जो उन्हें कला के इतिहास का पहला पाठ पढ़ा रहा होता था. ये थे मोहम्मद मुजीब, जो उन अनूठे प्रोफेसरों में से थे जो स्कूली बच्चों के साथ भी उतनी ही सहजता से संवाद कर सकते थे जितने कि कॉलेज के छात्रों और अपने सहयोगियों के साथ. उन्होंने उनमें ऐतिहासिक शहरों के प्रति लगाव पैदा करने और जगहों को कलाकृति के रूप में देखने की दृष्टि विकसित करने का काम किया था.

उन दिनों, दिल्ली में जिधर भी नज़र जाती आपको प्राचीन स्मारक दिख जाते थे. बहुत से परिवारों के लिए ये भूदृश्य रविवार की पिकनिक के पर्याय थे. कला के इतिहासकारों के बीच ये स्थल बेहद लोकप्रिय थे और वास्तुकला को लेकर 1970 के दशक में इन पर कई शोध किए गए थे.


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पर आम पाठक भारतीय स्थापत्य के सर्वेक्षणों से अधिक परिचित थे. इनमें पर्सी ब्राउन की किताब सर्वाधिक लोकप्रिय थी. उनकी 1942 में प्रकाशित पुस्तकों इंडियन आर्किटेक्चर (बुद्धिस्ट एंड हिंदू) और इंडियन आर्किटेक्चर (द इस्लामिक पीरियड) जानकारियों से भरी पड़ी हैं. लेकिन चूंकि उन्होंने अपने विषय को द्विआधारी दृष्टि से बांटा है, वह 14वीं से 17वीं सदी के दौर के विशेष गुण – स्थापत्य कला की वैश्विक विविधता – को उजागर नहीं कर पाए, जब धनी और शक्तिशाली शासकों ने खूबसूरत सार्वजनिक स्थलों के निर्माण के लिए पूरे दक्षिण और पश्चिम एशिया के कुशल कारीगरों और वास्तुकारों की सेवाएं ली थीं.

विभिन्न स्थापत्य कलाओं का मिलन

वैश्वीकरण के उस दौर में वास्तुशिल्प की जानकारियों के आदान-प्रदान के लिए कारीगर परस्पर मिलते थे और प्रश्रय देने वाले शासकों के भरोसे वे दूर देश की यात्राएं करते थे. यॉर्कमिंस्टर के विशाल स्तंभों के निर्माण के लिए मध्य पूर्व के शिल्पियों को लगाया गया था, जबकि भारत के संगतराशों ने उज़्बेक वास्तुशिल्पियों से संरचनात्मक अभियांत्रिकी के गुर सीखे थे. आगरा स्थित मकबरे चीनी का रौज़ा का नाम चीनी पोर्सिलेन से मिला है. इटली गए ब्रितानी यात्री अपनी हवेलियों में प्रदर्शित करने के लिए वहां से रोमन कलाकृतियां लेकर आए थे, जबकि फिरोज़शाह तुगलक ने अपनी मस्जिद और रिज स्थित अपने महल को अलंकृत करने के लिए मेरठ और टोपरा (हरियाणा) से दो अशोक स्तंभ (हालांकि कोई इस खासियत को नहीं जानता था) दिल्ली मंगवाए थे.

19वीं सदी के मध्य में आकर जेम्स फ़र्ग्यूसन ने भारत की बेशुमार इमारतों का वर्गीकरण करने की कोशिश की थी. उसे ‘शैली’ के आधार पर वर्गीकरण करना आसान लगा. ये माना गया कि इमारतों का आकार-प्रकार उनके कार्यों से निर्धारित होता है और इसलिए उन्हें ‘बौद्ध’, ‘हिंदू’ और ‘इस्लामी’ में बांट दिया गया. मिश्रित प्रकार को ‘इंडो-सारासेनिक’ नाम दिया गया, इसमें ब्रितानी शाही शैली भी शामिल थी जिसमें जानबूझ कर सजावटी भारतीय तत्वों को रखा गया था.


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मस्जिदों और मकबरों दोनों ही में स्थानीय परिस्थितियों का ध्यान रखा जाता था, इसीलिए मुजीब इसे ‘मुस्लिम’ के बजाय ‘भारतीय मुस्लिम’ शैली कहे जाने पर ज़ोर देते थे. इन इमारतों और अन्य सार्वजनिक स्थलों – गलियों और दीवारों से घिरे बागों – को शहरों की खूबसूरती के लिहाज से निर्मित किया जाता था और उनमें भरोसे और भाईचारे की झलक दिखती थी. ऊंची मेहराबें और मीनारें धरती से आसमान को, जन्नत को जोड़ती थीं. (मुजीब इतने तर्कवादी थे कि ऐतिहासिक इमारतों में लोगों की कामनाओं को पूरा करने वाले जिन्नों के वास की बात कभी उनके गले नहीं उतर सकती थी.)

सामूहिक प्रथाओं का उपासना स्थलों की बनावट पर असर होता है – और एक सार्वजनिक मस्जिद (भेदरहित सुंदरता) और मंदिर की बनावट में अंतर होता है, क्योंकि मंदिर में भक्त और भगवान के बीच एक रहस्यपूर्ण संवाद होता है. जहां तक मकबरे की बात है, तो मुजीब ने इंडियन मुस्लिम्स (1967) में लिखा था: ‘यह जन्म, मृत्यु और शाश्वतता के एकीकरण का प्रतीक था; राजशाही से जुड़ी आदिम मान्यताओं के कारण शाही मकबरे की एक रहस्यपूर्ण महत्ता थी…किसी शासक के मकबरे में उसके व्यक्तित्व की, और उस बल की अभिव्यक्ति होती थी जोकि संघर्षों से भरी दुनिया में आत्मविश्वास बनाए रखने के वास्ते समाज के लिए ज़रूरी था.’ हुमायूं के मकबरे का वर्णन करते हुए वह चुटकी लेने से बाज नहीं आए: ‘हुमायूं के बारे में हमारे पास ऐसी कोई भी जानकारी नहीं है जोकि उसे एक विशिष्ट व्यक्ति माने जाने को उचित ठहराए; उसका मकबरा उसके मुकाबले कहीं अधिक महान है.’

आरंभिक आधुनिक भारत की शहरी वास्तुकला में ईरान या तुर्की के शहरों से लिए गए कुछ तत्व दिखते हैं, पर इसकी सर्वाधिक समानता मुगलों के समकालीन रहे राजपूत राज्यों से है. दोनों ही में स्थानीय जलवायु और स्थलाकृति का ध्यान रखा गया है; दोनों ही राजमिस्त्रियों के बजाय कुशल संगतराशों द्वारा निर्मित हैं और दोनों में ही जानबूझ कर भारतीय सजावटी प्रतीकों का इस्तेमाल हुआ है.


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भारतीय-मुस्लिम वास्तुकार ‘नई शुरुआत की बाध्यता से, भय और घृणा से, नियमों और परंपराओं से तथा आदर्शों और हितों के टकराव से मुक्त होने में आनंद का अनुभव करते थे. उन पर अपने कौशल और साधनों, तथा निर्माण सामग्रियों की प्रकृति और उपलब्धता के अलावा कोई और बंधन नहीं था.’ उन्होंने ऐसा वास्तुशिल्प तैयार किया जिसमें ठहरा हुआ संगीत ही नहीं, बल्कि ठहरी हुई कविता भी है. आरंभिक आधुनिक काल में भारत के शहरों को भव्यतम बनाने में उर्दू की शायरी और हमारे वास्तुशिल्प की कविता दोनों का योगदान रहा है.

(यह लेख भारतीय कला, संस्कृति और विरासत के मुक्त ऑनलाइन संसाधन www.sahapedia.org के सहयोग से आठ भागों की श्रृंखला ‘रीडिंग ए सिटी’ की सातवीं कड़ी है.)

(डॉ. नारायणी गुप्ता विशेषकर दिल्ली के नगरीय इतिहास पर लिखती हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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