प्रिय मुख्य न्यायाधीश चंद्रचूड़,
कुछ ही हफ्तों में भारत में चुनाव होंगे. आप एक अत्यंत शिक्षित व्यक्ति हैं, हर तरह से एक सभ्य और दुनियादारी समझने वाले नागरिक हैं, और आप इस बात से अनजान नहीं हो सकते कि आम चुनाव होने वाले हैं. उनके नतीजे हमारे गणतंत्र का भाग्य निर्धारित करेंगे. निःसंदेह आप यह भी जानते हैं कि अगर वोटर्स को तथ्यात्मक जानकारी नहीं होगी तो वे बेहतर विकल्प नहीं चुन पाएंगे. और इस समय शायद इससे अधिक सार्वजनिक हित की कोई जानकारी नहीं है जिसे भारतीय स्टेट बैंक ने रोक रखा है.
उस कुटिलता पर विचार करें जिस राजनीतिक मैदान पर आगामी चुनाव लड़े जाने हैं. एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स के अनुसार, वर्तमान में सत्ता में मौजूद पार्टी की संपत्ति – कथित तौर पर 6060 करोड़ रुपये से अधिक है, जो इसे दुनिया में नहीं तो भारत में सबसे अमीर बनाती है. यहां तक कि 2021 और 2022 के बीच इसमें 1050 करोड़ रुपये की आश्चर्यजनक वृद्धि हुई. इसकी तुलना में प्रमुख राष्ट्रीय प्रतिद्वंद्वी के पास महज़ 805 करोड़ रुपये थे. गुमनाम डोनेशन के माध्यम से प्राप्त धन में यह असंतुलन बताता है कि भारत एक बहुदलीय लोकतंत्र से वास्तव में एक-दलीय राज्य के रूप में विकृत होने के बहुत गंभीर खतरे में है.
एक अकेले राजनीतिक दल ने इतने कम समय में इतनी संपत्ति कैसे जुटा ली?
ऐसे सवालों को धता बताने के लिए अज्ञात चुनावी बांड तैयार किए गए थे. सबसे बेईमान किसी दूसरे देश के बैंकर भी इससे अधिक निर्लज्ज गुप्त डिवाइस की कल्पना नहीं कर पाता. चुनावी बांड की संकल्पना जो लोग सत्ता में नहीं हैं उनके प्रति औपनिवेशिक स्तर की अवमानना के साथ की गई थी, जिन्हें प्रभावी ढंग से बताया गया था कि उनके शासकों ने खुद को कैसे वित्तपोषित किया, नागरिकों के रूप में इसकी जानकारी पाना उनसे ऊपर की बात है. पिछले महीने आपके हस्तक्षेप की वजह से इस अशोभनीय अलोकतांत्रिक नाटक पर रोग लग सकी.
गुमनाम चुनावी बांड के खरीददारों और प्राप्तकर्ताओं के विवरण का खुलासा करके जवाबदेही और पारदर्शिता बहाल करने के आपके निर्देश का सम्मान करने में एसबीआई की विफलता वास्तव में भारत की संस्थागत गिरावट की एक परेशान करने वाली बात है. आपके निर्देश का पालन करने के लिए अतिरिक्त समय की मांग करते हुए एसबीआई ने अपनी याचिका में जो कारण बताए हैं, वे स्पष्ट रूप से भारत की सर्वोच्च अदालत और इसकी आम जनता की बुद्धिमत्ता का अपमान हैं.
आपको-और हमें-इस हास्यास्पद बात से सहमत होने के लिए आमंत्रित किया जा रहा है कि भारत का सबसे बड़ा बैंक, जिसमें लगभग ढाई लाख लोग काम करते हैं, उसे 45,000 से भी कम आधारभूत रिकॉर्ड को जुटाने के लिए चार और महीने चाहिए; यानि कि चुनाव के बाद.
लेकिन जो बात वास्तव में दिलचस्प है वह है एसबीआई द्वारा अपने कर्तव्य में लापरवाही को अच्छे व्यवहार के रूप में दिखाने की कोशिश. बैंक का दावा है कि 2018 की चुनावी बॉन्ड योजना के खंड 7(4) के अनुसार “डोनर्स की गुमनामी” को बनाए रखने के लिए हाल ही में लागू किए गए “कड़े उपायों” के कारण वह अब तेजी से कार्य करने में असमर्थ है. लेकिन उसी अधिसूचना में उसी खंड में स्पष्ट रूप से एसबीआई को “सक्षम अदालत द्वारा मांगे जाने पर” नामों का खुलासा करने का भी आदेश दिया गया है. इसे 2019 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा और भी मजबूत किया गया जब उसने एसबीआई को अपने चुनावी बांड रिकॉर्ड बनाए रखने का निर्देश दिया.
आदेश दिए जाने पर जानकारी प्रस्तुत करने में बैंक की विफलता से सबसे आसान निष्कर्ष यह निकाला जा सकता है कि उसने एक दायित्व – डोनर्स की पहचान को संरक्षित करना – के ऊपर दूसरे दायित्व – रिकॉर्ड को ऐसे रूप में रखना जो कि कानून की अदालत द्वारा निर्देश दिए जाने पर साझा किए जाने योग्य हो – को प्राथमिकता दी.
सुप्रीम कोर्ट के अधिकार के प्रति उदासीनता इससे ज्यादा क्या हो सकती है कि एसबीआई को 15 फरवरी को चुनावी बांड से संबंधित जानकारी 6 मार्च तक सार्वजनिक करने का निर्देश दिया गया था, लेकिन तय समय सीमा से ठीक दो दिन पहले अदालत में और ज्यादा समय की मांग करना पूरा एक पखवाड़ा बर्बाद करने जैसा था. बिना बताए क्लास न अटेंड करने वाले स्कूली बच्चे भी भारत के सबसे प्रमुख वित्तीय संस्थान की तुलना में अधिक जिम्मेदारीपूर्ण व्यवहार करते हैं.
यह सब देखते हुए, क्या लोगों का यह निष्कर्ष निकालना अनुचित है कि एसबीआई उम्मीद कर रहा था कि गुमनाम चुनावी बांड से जुड़े नाम लंबी प्रक्रिया के चक्कर में गुमनाम होकर रह जाएंगे?
सुप्रीम कोर्ट द्वारा एसबीआई की समय सीमा को 30 जून तक बढ़ाने की झूठी अपील को मंजूरी देने का मतलब लोकसभा चुनाव से ठीक पहले मतदाताओं को वह जानकारी पाने से रोकने जैसा होगा जो उसके निर्णय को आकार दे सकती है. यह अपनी प्रक्रिया को निभाते हुए भी लोकतंत्र की भावना को पैरों तले रौंदने जैसा होगा.
जब आप और आपके प्रतिष्ठित सहकर्मी आज एसबीआई की दलीलें सुनने के लिए बैठेंगे, तो आप प्रक्रियात्मक विचार-विमर्श से कहीं अधिक किसी चीज़ में लगे होंगे. आप यह तय कर रहे होंगे कि क्या कानून के शासन पर आधारित लोकतंत्र में भारत का महान प्रयोग, इसे नष्ट करने के सबसे नंगे प्रयास का सामना कर सकता है.
(कपिल कोमिरेड्डी ‘मेलवोलेंट रिपब्लिक: ए शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ द न्यू इंडिया’ के लेखक हैं. उन्हें टेलीग्राम और ट्विटर पर फॉलो करें. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)
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