पिछले सप्ताह अयोध्या पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भारतीय टिप्पणीकारों के बीच प्रबल दृष्टिकोण ये था: मतदाताओं को इसकी परवाह नहीं है, और हम सबको इस मुद्दे को पीछे छोड़ देना चाहिए.
राजनीतिक टिप्पणीकार जनता को बताना चाहते हैं कि भारतीय मतदाता वास्तव में धर्म की परवाह नहीं करते हैं. इन विश्लेषकों की मानें तो मतदाताओं को सिर्फ-और-सिर्फ ‘विकास’ की चिंता है, और उन्हें ‘मंदिर-मस्जिद मुद्दे’ की फिक्र नहीं है. मतदाता निश्चय ही इस धारणा को बल देते हैं. 2019 का लोकसभा चुनाव संपन्न होने पर मतदान बाद के एक सर्वे में मतदाताओं ने माना कि वोटिंग के समय विकास और बेरोजगारी उनके लिए शीर्ष मुद्दे थे. उनका कहना था कि वे गोहत्या और अयोध्या में राम मंदिर जैसे ‘हिंदुत्व’ के प्रमुख मुद्दों की नहीं सोच रहे थे.
लेकिन इन प्रतिक्रियाओं के आधार पर कोई राय बनाना नादानी होगी. अधिक संभावना इस बात की है कि वोटरों को अपनी सुख-सुविधाओं में वृद्धि की फिक्र तो है, पर वे पार्टियों के लिए मतदान करते वक्त विचारधारा का कहीं अधिक ध्यान रख रहे हैं. आखिरकार भारत के अधिकांश राजनीतिक दल विकास का वादा करते हैं; जैसे जहां तक रोजगार की बात है तो कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूपीए ने अपने पहले कार्यकाल में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा की तुलना में बेहतर काम किया था. ‘सब एक जैसे हैं’ की आम धारणा के बावजूद भारत के प्रमुख राजनीतिक दल विचारधारा के स्तर पर, खास कर धर्म के मामले में समान नहीं हैं.
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राजनीति विज्ञानी प्रदीप छिब्बर और राहुल वर्मा ने 2018 में प्रकाशित अपनी किताब ‘आइडियोलॉजी एंड आइडेंटिटी: द चैंजिंग पार्टी सिस्टम्स ऑफ इंडिया’ में सिद्ध किया है कि भारतीय राजनीतिक दल और मतदाता सतत और प्रबल रूप से विचारधारा से प्रेरित रहे हैं. परिमाणात्मक विश्लेषण के लिए पुस्तक में उन्होंने ‘पहचान की राजनीति’ का एक सूचकांक दिया है. इसमें सेंटर फॉर स्टडी एंड डेवलपिंग सोसायटीज़ (सीएसडीएस) के लोकनीति कार्यक्रम के तहत चुनावोपरांत कराए गए राष्ट्रीय चुनाव अध्ययनों में पहचान से जुड़े मुद्दों पर मतदाताओं की राय प्रस्तुत की गई है.
इन सर्वेक्षणों में मतदाताओं से अन्य सवालों के साथ ही गोहत्या और धर्मांतरण पर रोक तथा ‘हिंदुत्व’ के अन्य प्रमुख मुद्दों पर उनके विचार पूछे गए थे. छिब्बर और वर्मा ने इन पर मिली प्रतिक्रियाओं के आधार पर ये निर्धारित करने की कोशिश की है कि क्या कांग्रेस और भाजपा के मतदाता वैचारिक रूप से भिन्न हैं.
इस अध्ययन के परिणाम बिल्कुल स्पष्ट हैं: भाजपा के मतदाताओं ने हिंदुत्व के प्रमुख मुद्दों का बाकायदा समर्थन किया, जबकि कांग्रेस के मतदाताओं ने व्यवस्थित रूप से उनका विरोध किया (हालांकि उनका विरोध वाम समर्थकों की तुलना में बेहद कमजोर था).
यह प्रवृत्ति समय के साथ नहीं बदली है. इसलिए ये दलील सही नहीं होगी कि भारत के मतदाता ज्वलंत धार्मिक मुद्दों की परवाह नहीं करते हैं, खास कर इस बात के मद्देनज़र कि इन मुद्दों पर उनकी राय निरंतर एक समान और प्रबल रही है, और पार्टी विशेष की विचारधारा से दृढ़ता से संबद्ध भी.
इन मुद्दों को भाजपा के मतदाताओं के सारे वर्गों – न के बराबर मुस्लिम समर्थकों के अतिरिक्त – का समर्थन प्राप्त था. सीएसडीएस के पास उपलब्ध नवीनतम डेटा 2014 के चुनावों का है, और तब इस विचार को भी समर्थन मिला था कि सरकार को अल्पसंख्यकों को समायोजित करने के लिए विशेष प्रावधानों की व्यवस्था नहीं करनी चाहिए.
दूसरी ओर, कांग्रेस के मतदाताओं के सभी वर्गों – उच्च जाति के समर्थकों के छोटे से समूह के अतिरिक्त – ने हिंदुत्व के इन मूल मुद्दों का विरोध किया था. इस तरह, इस विषय में कांग्रेस और भाजपा के उच्च जाति के मतदाताओं में वस्तुत: कोई अंतर नहीं था.
मोदी सरकार के पहले कार्यकाल के समय से ही जहां गोवध और धर्मांतरण पर रोक, अनुच्छेद 370 को खत्म कर बलपूर्वक कश्मीर को भारत में एकीकृत करने और अयोध्या में राम मंदिर निर्माण जैसे हिंदुत्व के पुराने मूल मुद्दों में नई जान डाली गई, वहीं भाजपा ने हिंदुत्व 2.0 के नए केंद्रीय मुद्दों को भी उभारा. इनमें प्रमुख है नागरिकता संशोधन विधेयक (16वीं लोकसभा में पारित, पर राज्यसभा में इस पर चर्चा नहीं हो पाई और इसे संसद की एक संयुक्त समिति को सौंपा गया) जिसमें गैर-मुस्लिम अवैध प्रवासियों को नागरिकता दिए जाने का प्रावधान है.
हिंदुओं के इस विधेयक के विरोध के बजाय समर्थन करने की अधिक अपेक्षा थी, जबकि मुसलमानों के विरोध करने की ज़्यादा संभावना थी. इस मुद्दे पर धार्मिक और राजनीतिक तरफदारी के बीच अंतर्संबंध साफ जाहिर है. उदाहरण के लिए असम में, जहां अवैध प्रवासियों की समस्या और धर्म से इसका अंतर्संबंध एक ज्वलंत मुद्दा है, इस विधेयक का समर्थन करने वाले हिंदुओं ने बढ़-चढ़कर भाजपा को वोट दिया.
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जैसे ये कहना सही नहीं है कि मतदाता हिंदुत्व के मूल मुद्दों से प्रभावित नहीं होते, उसी तरह टिप्पणीकारों की एक और आम धारणा समान रूप से बेबुनियाद है कि भारत के युवा इन मुद्दों पर ध्यान नहीं देते हैं.
उदाहरण के लिए, सिर्फ नई पीढ़ी (15-34 आयु वर्ग) के बीच 2017 में किए गए एक सर्वे में पाया गया कि आम हिंदू युवा भी भाजपा-समर्थक युवाओं के समान ही गोमांस के सेवन का कड़ा विरोध करते हैं.
भविष्य के मतदाता भले ही कहें कि वे सिर्फ रोजगार के मुद्दे पर नेताओं को चुन रहे हैं, पर भारतीय मतदाताओं की प्रकट प्राथमिकताएं हमेशा से स्पष्ट रही हैं.
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(लेखिका चेन्नई स्थित डेटा पत्रकार हैं. यहां व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)