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Sunday, 22 December, 2024
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दोषी अंततः दलित-पिछड़े ही होंगे

अधिकतर सवर्णों को ही वोट दलित व पिछड़े देते हैं, फिर भी इन्हीं को जिम्मेदार ठहराया जाता है कि राजनीति में जातिवाद इन्हीं की वजह से फैला है.

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हाल में ही चुनाव हुए हैं और किसने कहां वोट दिया, का विश्लेषण किया गया. वैसे चुनाव के पहले और इसके दौरान भी जांच-पड़ताल मीडिया एवं तथाकथित प्रबुद्ध करते ही रहते हैं. चर्चा यही होती है कि दलित-पिछड़े किस पार्टी को वोट देने जा रहे हैं या दिए. हर जाति, जैसे – जाटव, यादव, कुर्मी, मौर्य, पासी, खटीक, धोबी, कोरी, कोली, महार, माला-मादिगा, सतनामी, मेघवाल, बैरवा, रमदसिया, मजहबी, बाल्मीकि आदि किस पार्टी को वोट दिए.

भले बहुमत में वोट किसी एक जाति ने पिछड़े या दलित आधारित दल को न दिया हो, फिर भी मोहर लगा दी जाती है कि किस जाति का वोट किस दलित या पिछड़े नेतृत्व वाले दल को गया है, अर्थात् यह जातिवाद है. पूर्वाग्रह एवं भेदभाव इतना है कि आजादी के बाद से ही सवर्ण अपनी ही जाति के नेतृत्व को वोट देते रहे हैं, वही आरोप दलित-पिछड़ी जातियों पर लगा रहे हैं, क्योंकि ये अब उनकी जाति के नेताओं को वोट देना कम कर दिए हैं. दलित-पिछड़ी जातियां जागृति आने के पहले जातिवादी नहीं थीं, क्योंकि सवर्ण नेतृत्व को ही अपना वोट देते रहे हैं. अगर अभी भी दें तो ये जातिवादी नहीं कहलाएंगें. इसी तरीके से प्रत्येक क्षेत्र में जब भी दलित-पिछड़े भागीदारी की चेष्टा करते हैं तो यह आरोप बड़ी आसानी से लगा दिया जाता है.

सवर्ण जातियों के वोट देने के व्यवहार पर पत्र-पत्रिकाओं में लेख एवं टिप्पणी कहीं देखने को नहीं मिलती. मीडिया गला फाड़कर कभी नहीं कहती कि ब्राह्मण, बनिया, ठाकुर अपनी ही जाति के नेतृत्व को कहां-कहां वोट दे रहे हैं और क्यों ? इसका मतलब कि सवर्ण समाज का मूल्यांकन करना मना है. सेमिनार, गोष्ठी और शोध भी दलित, पिछड़ी जातियों के वोट के व्यवहार पर ही किए जाते हैं. शोध और लेखन सबके बारे में बराबर किया जाना चाहिए, लेकिन इसमें भी जातिवाद घुस गया है. बुद्धिजीवी, शिक्षाविद, लेखक, पत्रकार, शत्प्रतिशत् सवर्ण समाज से ही हैं, इसलिए अपने समाज का मूल्यांकन नहीं करते.


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उत्तर प्रदेश में हाल में हुए लोक सभा के चुनावों में जातिवार वोट देने के व्यवहार का अध्ययन किया गया, जिसमें यह पता लगाया गया कि कौन सी जाति किस पार्टी को कितनी मात्रा में वोट दिया है. ठाकुर जाति ने भारतीय जनता पार्टी को 89 प्रतिशत्, ब्राह्मण 82 प्रतिशत्, बनिया 70 प्रतिशत वोट दिया है लेकिन कहीं पर भी जातिवाद का ठप्पा इन पर नहीं लगा. पहले कभी कांग्रेस में भी यही हुआ करता था, तो वह भी जांच-पड़ताल की परिधि के बाहर रहा. जांच-पड़ताल दलित और पिछड़ी जातियों के नेतृत्व वाली पार्टी जैसे – राजद, सपा, बसपा, आरपीआई, की ही होती है. दलित, पिछड़ी जातियां जो अपने नेतृत्व वाले दल का समर्थन और वोट दें तो उन्हें जातिवादी कहेगें और जब वही कार्य सवर्ण करें तो राष्ट्रवादी और ‘सबका साथ, सबका विकास’ वाली कहेगें.

हम शिक्षा के क्षेत्र की जांच करें तो पाएंगें कि वहां भी ऐसा भेदभाव है. टाइम्स ऑफ इंडिया ने अभी एक अध्ययन किया और कोशिश किया कि आरक्षण जो अयोग्यता का प्रतीक बन गया है, उसमें कितनी सचचाई है. सरकारी मेडिकल काॅलेज में सीट 39000 और एनआरआई और कैपिटेशन फीस की सीटें 17000 हजार हैं. कुल 57000 नीट (मेडिकल प्रवेश परीक्षा) का अध्ययन किया गया और पाया गया कि सरकारी मेडिकल काॅलेज की सामान्य वर्ग की मेरिट 448, अनुसूचित जाति की 398 है.

308 प्राइवेट मेडिकल काॅलेजों में पैसा देकर और एनआरआई कोटे से प्रवेश पाने वालों की मेरिट 211 है. पैसा देकर जो डाॅक्टर बन रहे हैं, उनके बारे में कहीं हल्ला-गुल्ला सुनने को नहीं मिलता कि इनकी मेरिट नहीं है लेकिन बात केवल अनुसूचित जाति/जन जाति एवं पिछड़े वर्ग की ही की जाती है. अनुसूचित जाति की मेरिट लगभग 200 प्रतिशत होने के बावजूद भी समाज में अभी भी मानसिकता बनी हुई है कि इनसे इलाज कराने का मतलब जान जोखिम में डालना. जहां-तहां अपनी क्लीनिक चलाने की कोशिश करते हैं लेकिन कामयाबी मुश्किल से मिलती है. यहां तक कि कुछ दलित भी इनसे अपना इलाज कराने से कतराते हैं, क्योंकि माहौल ही ऐसा बना हुआ है.


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आईआईटी ने भी अध्ययन कराया है कि किन बच्चों का प्रवेश उनके यहां ज्यादा होता है. यह पाया गया है कि जिनके घर में इंजीनियर, डाॅक्टर या अधिकारी हैं, उन्हीं के बच्चे ज्यादा प्रवेश पाने में सफल होते हैं. ज्यादातर कुछ ही शहरों से होते हैं. इनको कोचिंग की सुविधा तो दी ही जाती है और साथ-साथ अन्य सहायता भी उपलब्ध करायी जाती है. घर और समाज जहां ये रहते हैं, उस वातावरण की बड़ी पूंजी का भी सहयोग रहता है. क्या यह वास्तव में मेरिट है. मेरिट है तो कोचिंग की सुविधा, सामाजिक पूंजी, अच्छा स्कूल और मां-बाप की देखभाल. इस आधार पर बड़े आराम से कह दिया जाता है कि अनुसूचित जाति दलित एवं पिछड़ों को कम अंकों पर प्रवेश दिया जा रहा है अतः ये अयोग्य हैं.

हमेशा जांच-पड़ताल दलितों एवं पिछड़ों की ही होती है. विदेश में कालाधन लेकर भागने वाले में से अभी तक तो कोई दलित, पिछड़े का नाम नहीं आया. स्विस बैंक और पनामा में काला धन रखने वालों में इन वर्गों का नाम तो अभी तक देखने को नहीं मिला. कोल आवंटन घोटाला हो या अन्य घोटाले, उसमें भी एक नाम नहीं है. अधिकतर सवर्णों को ही वोट दलित व पिछड़े देते हैं, फिर भी इन्हीं को जिम्मेदार ठहराया जाता है कि राजनीति में जातिवाद इन्हीं की वजह से फैला है. सभी उत्कृष्ट शिक्षण संस्थाओं में कुलपति एवं प्रोफेसर एवं उनके समकक्ष पदों पर सवर्ण समाज के ही लोग लगातार रहे हैं, शिक्षा का स्तर लगातार गिरा ही है और कोई नया शोध भी नहीं हुआ लेकिन क्या इस पर कभी लेखन या टीका-टिप्पणी होती है? न्याय इतना महंगा है कि मध्यम वर्ग तक सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटा नहीं सकता लेकिन वह भी समीक्षा के परे होता है. सही हो या गलत समीक्षा दलितों और पिछड़ों की ही होती है. अगर सबकी होती तो देश को आगे जाने से रोका नहीं जा सकता.

(डाॅ. उदित राज भाजपा के पूर्व सांसद और अनुसूचित जाति/जन जाति संगठनों का अखिल भारतीय परिसंघ के राष्ट्रीय चेयरमैन हैं. यह लेखक के निजी विचार हैं.)

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