भारत के लिए 31 टेस्ट मैच खेले. रणजी ट्रॉफी में 12,000 से अधिक रन— दलीप ट्रॉफी और ईरानी कप में सर्वाधिक रन बनाए हैं. किंग्स इलेवन पंजाब के बैटिंग कोच रहे. बांग्लादेश क्रिकेट टीम के बैटिंग कोच रहे. उनके भाई कलीम मुंबई में क्रिकेट कोच हैं. उनका भतीजा अरमान 2016 विश्व कप के दौरान अंडर-19 टीम में भारत के लिए खेल चुका है. उनकी भतीजी फातिमा मुंबई और भारत ‘ए’ के लिए खेल चुकी है. लेकिन 2021 में आज वसीम जाफ़र के जीवन और करियर का सफर महज धार्मिक पहचान से जुड़कर रह गया है— यानि एक मुस्लिम. अब इसी से उनकी पहचान शुरू होती है और इसी पर खत्म होती है.
अगर आप सोचते थे कि क्रिकेट और सशस्त्र बल धर्म से अछूते दो संस्थान हैं, तो आपको गहरा झटका लगा होगा. कांग्रेस के राहुल गांधी के शब्दों में अब क्रिकेट नफरत की चपेट में है.
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एक क्रिकेटर को बदनाम किया जाना
वसीम जाफ़र पर उत्तराखंड टीम, जिसके वो कुछ समय पूर्व तक कोच थे, के लिए खिलाड़ियों को धर्म के आधार पर चुनने का आरोप लगाया गया है. जाफ़र ने कोच के पद से इसलिए इस्तीफा दे दिया क्योंकि उन्हें खिलाड़ियों के चयन संबंधी फैसलों से रोका जा रहा था और उन पर पक्षपात का आरोप लगाया गया था.
उत्तराखंड टीम के मैनेजर नवनीत मिश्रा ने जाफ़र पर माहौल को सांप्रदायिक बनाने और मुस्लिम खिलाड़ियों को चुनने का आरोप लगाया है. लेकिन वास्तव में शुक्रवार की नमाज़ के लिए मौलवी को बुलाने वाले खिलाड़ी इक़बाल अब्दुल्ला ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि मौलवी को आने की अनुमति जाफ़र ने नहीं बल्कि खुद टीम के मैनेजर नवनीत मिश्रा ने दी थी.
टीम के खिलाड़ियों को ‘राम भक्त हनुमान की जय ‘ का उद्घोष नहीं करने देने जैसे अन्य झूठे आरोप भी सामने आए हैं. टीम के खिलाड़ी आमतौर पर ‘रानी माता सच्चे दरबार की जय ‘ का उद्घोष करते थे, लेकिन कोच के रूप में वसीम जाफ़र ने सुझाव दिया था कि वे अपने राज्य के लिए ‘गो उत्तराखंड ’ जैसा कुछ कहें क्योंकि खिलाड़ी राज्य का प्रतिनिधित्व करते हैं.
लेकिन इन सबकी चर्चा बेमतलब है क्योंकि कोई इरादों का पता कैसे लगा सकता है? तभी तो आज अपराधी ‘देशभक्त ‘ करार दिए जा सकते हैं, जबकि पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं आदि को ‘राष्ट्रविरोधी’ कहा जा सकता है. इस समय वसीम जाफ़र को ‘सांप्रदायिकता’ का ठप्पा लगाकर बदनाम किया जा रहा है.
जिस देश में एक हिंदू संत को मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार किया जा सकता है और जहां सरकार राम मंदिर का निर्माण कर सकती है, प्रधानमंत्री उसके भूमि पूजन में बैठ सकते हैं और राष्ट्रपति इसके निर्माण के लिए दान दे सकते हैं, वहां क्रिकेटरों का शुक्रवार की नमाज़ में शामिल होना ‘सांप्रदायिक’ हो जाता है.
इन घटिया आरोपों के संदर्भ में असल बात ये है कि जाफ़र उनकी सलाह लिए बिना चयनकर्ता द्वारा खिलाड़ियों के चयन को लेकर नाखुश थे. मुख्य चयनकर्ता रिज़वान शमशाद स्वयं एक मुस्लिम हैं, जिन पर जाफ़र ने चयन मामलों में उनकी राय नहीं लिए जाने का आरोप लगाया था. जाफ़र चाहते थे कि एक स्थानीय क्रिकेटर होने के नाते दीक्षांशु नेगी उत्तराखंड टीम के कप्तान बनें.
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एकजुट भारत?
क्रिकेट एसोसिएशन ऑफ उत्तराखंड की ओछी आंतरिक राजनीति के इस खेल में किसी की व्यक्तिगत निष्ठा पर लांछन लगाने के लिए सांप्रदायिकता का सहजता से इस्तेमाल किया जा रहा है. क्यों? क्योंकि मौजूदा माहौल इतना दुखद है कि ये तरकीब काम कर जाती है. क्रिकेट जगत कानाफूसी के स्तर पर इसकी चर्चा कर रहा है, हालांकि अनिल कुंबले, मनोज तिवारी, डोड्डा गणेश, इरफान पठान और मोहम्मद कैफ जैसे कुछ खिलाड़ियों ने वसीम जाफ़र के पक्ष में आवाज़ उठाई है.
अगर चीजों को केवल सांप्रदायिकता की संकीर्ण दृष्टि से ही देखा जाए, तो क्या विराट कोहली द्वारा भारत और न्यूजीलैंड के बीच 2019 के वर्ल्ड कप सेमीफाइनल के लिए मोहम्मद शमी को नहीं चुने जाने को सांप्रदायिक पूर्वाग्रह के रूप में देखा जाएगा? बहुतों ने ऐसा माना भी था, लेकिन धरती को सपाट मानने वाले भी तो बहुत से लोग हैं. लेकिन क्या जाफ़र पर खिलाड़ियों के चयन में सांप्रदायिक पूर्वाग्रह का आरोप इसलिए लगाया गया कि वो एक मुस्लिम हैं, जबकि विराट कोहली को मुस्लिम खिलाड़ी को मैच नहीं खिलाने पर सांप्रदायिकता का आरोप नहीं लगता क्योंकि वह हिंदू है? यदि लोग खेल को खिलाड़ियों की प्रतिभा के बजाय ’नाम ’ और ‘पहचान ’ के चश्मे से देखने लगें, तो समझ लीजिए कि हम हमारी टीम पर मुट्ठी भर कट्टरपंथियों के कब्ज़े वाली स्थिति की ओर अग्रसर हैं.
प्रतिद्वंदी टीम के गेंदबाजों के लिए पिच पर मौजूद जाफ़र को आउट करना एक मुश्किल काम होता था. लेकिन आज के भारत में मुंबई के इस पूर्व बल्लेबाज को ‘पैकिंग’ पर मजबूर करने के लिए एक सांप्रदायिक स्पिन ही काफी था. पूर्व सलामी बल्लेबाज ने 90 के दशक के मध्य में जब भारत के लिए खेलना शुरू किया था, जो आज के मुकाबले वो बिल्कुल अलग दौर था.
दुख की बात ये है कि जाफ़र के साथ खेल चुके सचिन तेंदुलकर जैसे प्रसिद्ध खिलाड़ी विदेशी हस्तियों की ‘फॉरेन डिस्ट्रक्टिव आइडियोलॉजी’ के खिलाफ तो बोल सकते हैं, लेकिन उन्हें अपने ही देश में खिलाड़ियों की उनकी अपनी ही बिरादरी में फैलाई जा रही विध्वंसक विचारधारा की कोई परवाह नहीं.
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नाम में क्या है
हालांकि, ये कोई संयोग नहीं है कि भेदभाव के इस खेल में हारने वाला हमेशा अल्पसंख्यक समुदाय से होता है. मिसाल के तौर पर पाकिस्तान क्रिकेट टीम के दानिश कनेरिया को ही लीजिए. जब शोएब अख्तर ने खुलासा किया कि हिंदू होने के कारण पाकिस्तान क्रिकेट टीम में दानिश, देश के लिए खेलने वाले मात्र दूसरे हिंदू खिलाड़ी, के साथ भेदभाव किया जाता था, तो उसके बाद ही दानिश खुल कर कह सके कि उन्होंने हमेशा ही भेदभाव महसूस किया. इसी तरह ऑस्ट्रेलिया के ऑलराउंडर और विराजूरी जनजाति के सदस्य डैन क्रिश्चियन ने भी अपने देश के लिए खेलते हुए नस्लवाद और दुर्व्यवहार का सामना करने की बात कही है.
2019 में, गुड़गांव के धमसपुर गांव में क्रिकेट खेल रहे मुस्लिम लड़कों पर गूजर समुदाय के कुछ लोगों ने हमला किया था और उन्हें ‘पाकिस्तान जाकर खेलने’ के लिए कहा था क्योंकि उन्हें उनके खुले में खेलने पर आपत्ति थी. ग्रामीणों के अनुसार मामला सांप्रदायिक नहीं था, फिर भी वहां पर इस्तेमाल किया गया जुमला दर्शाता है कि आम आदमी की सोच किस कदर बदल गई है.
वो दौर बीत चुका है जब भारत के युवा मंसूर अली खान पटौदी या देश के महानतम विकेटकीपरों में से एक सैयद किरमानी, की तरह बनना चाहते थे. या, जब हम इतने खुले विचारों वाले थे कि हम भारत में पाकिस्तानी मुस्लिम क्रिकेटरों द्वारा विज्ञापित उत्पाद खरीदते थे. तब पूर्व क्रिकेटर और पाकिस्तान के मौजूदा प्रधानमंत्री इमरान खान सिंथोल, थम्सअप, ब्रुक बॉन्ड और पेप्सी के भारतीय विज्ञापनों में दिखा करते थे!
यदि भारत के लिए खेलने वाले खिलाड़ियों को एक विविधतापूर्ण राष्ट्र का प्रतिनिधित्व करने वाले खिलाड़ियों के बजाय सांप्रदायिक नज़रिए से देखा जा रहा हो, तो निश्चय ही हम एक और भयावह मानवीय त्रासदी की ओर अग्रसर हैं. वैसी ही त्रासदी जिसे कि हम 1947 में भोग चुके हैं.
(लेखिका एक राजनीतिक प्रेक्षक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)
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