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Sunday, 17 November, 2024
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क्रिकेट, क्लब और देश— खेल के मैदान पर राष्ट्रवाद की होड़ क्यों नरम पड़ रही है

पिछले कुछ दशकों से क्लब स्पोर्ट और पेशेवर नजरिए ने सख्त राष्ट्रवादी भावनाओं को नरम किया है, फुटबॉल से शुरू हुआ यह चलन क्रिकेट में भी आ पहुंचा है, जिसका सबूत इस वर्ल्ड कप में दिख रहा है.

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भारत में जबकि क्रिकेट वर्ल्ड कप चल रहा है, इस कॉलम को क्रिकेट के नाम कर देने का इससे बढ़िया मौका क्या हो सकता है. वरना कप जीतने या हार जाने के बाद तो 1.43 अरब विश्लेषण सामने आ जाएंगे और असली ‘ज्ञानी’ अपना ज्ञान बघारने लगेंगे. वैसे, इस सप्ताह मैं क्रिकेट और कबड्डी के बारे में भी बात करूंगा, और बीच-बीच में कुछ सजावट फुटबॉल की भी होगी.

वैसे, ज़्यादातर मैं सीधे क्रिकेट की नहीं बल्कि उससे जुड़े मुद्दों की बात करूंगा जैसे राष्ट्रवाद, राजनीति, भावनाओं की. बाकी आप सोच लीजिए. मैं इन तीनों की बात करूंगा.

क्रिकेट वर्ल्ड कप में अब ‘नॉकआउट’ मैचों से पहले कुछ ही मैच बाकी हैं, और हम कई उथलपुथल, कुछ बेहद कांटे की टक्कर देख चुके हैं, लेकिन क्या आपने गौर किया है कि मैचों में माहौल कितना खुशनुमा और दोस्ताना रहा है? खिलाड़ियों के बीच शब्दों का नहीं बल्कि केवल मुस्कराहटों का आदान-प्रदान होता रहा है.

कंधे उचकाने, नाराजगी जताने, अंपायरों से नाखुश होने, फील्डर की चूकों पर चीखने आदि की इक्का-दुक्का घटनाएं होती रही हैं लेकिन खिलाड़ियों के बीच खेल भावना, हंसी-मज़ाक का ही प्रदर्शन होता रहा है. बेशक कुछ विवाद भी हुए हैं, जिनमें सबसे प्रमुख है अहमदाबाद के नरेंद्र मोदी स्टेडियम में भारत-पाकिस्तान मैच के दौरान दर्शकों का व्यवहार. महत्वपूर्ण बात यह है कि खिलाड़ी इस सबसे अलग रहे हैं.

पाकिस्तानियों ने अलग से कुछ मनोरंजन भी किया है, कुछ मजाकिया, तो कुछ उतने मजाकिया नहीं. लेकिन इस सबका उनकी अपनी टीम पर ही असर पड़ा है. इस वर्ल्ड कप में अगर सबसे अच्छे ‘मीम’ और सबसे आनंददायी मनोरंजन करने के लिए अलग से मेडल रखे गए होते तो उनसे कोई मुक़ाबला नहीं कर सकता था. अगर कोई आलोचना हो भी तो वह उनके क्रिकेट बोर्ड की ही होगी, और दुर्भाग्य से उनके कुछ खिलाड़ियों की होगी.

अब हम छह सप्ताह तक चले इस महान आयोजन के उन तीन पहलुओं पर विचार करेंगे जिन्हें हमने इस सप्ताह के लिए चुना है— राष्ट्रवाद, राजनीति, भावनाएं.  इस टूर्नामेंट का माहौल इतना खुशनुमा क्यों रहा है? इसमें बड़ी जीत, बड़ी निराशाएं, बड़ी उलटफेर, बड़ी चूकें, अंपायरों से शिकायतें होती रही हैं लेकिन खिलाड़ियों के बीच आपस में इतनी शांति की अपेक्षा आप इतनी तीखी प्रतिस्पर्द्धा वाले किसी अंतरराष्ट्रीय आयोजन में नहीं रख सकते.

वास्तव में, अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट कुछ समय से ऐसी चलन चल पड़ी है. यह परिवर्तन लाने में भारत ने शुद्ध खेल भावना का पालन किया है. स्टीव वॉ ने जिस सर्व-विजयी ऑस्ट्रेलियाई दौर की शुरुआत की थी उसे सौरभ गांगुली के जांबाजों ने तोड़ा और इस खेल में और ‘स्लेजिंग’ (गाली-गलौज) के मामले में एक सत्ता संतुलन कायम किया. उसके बाद से ऑस्ट्रेलियाइयों का रवैया वैसा नहीं रहा और क्रिकेट के मैदान पर शांति कायम हुई.

लेकिन ऐसा नहीं है कि भावनाओं या असहमति का प्रदर्शन नहीं होता, खूब होता है और गेंद से छेड़छाड़ भी खूब होती है. लेकिन प्रतिद्वंद्वी खिलाड़ियों के आपसी रिश्ते सुधरे हैं. उदाहरण के लिए, भारत-पाकिस्तान मैच से पहले शाहीन शाह अफरीदी ने जसप्रीत बुमराह को पिता बनने पर बधाई दी. यह एक टॉप पेसर द्वारा दूसरे टॉप पेसर को बधाई थी.

विराट कोहली ने सबके सामने और कैमरे के आगे भारतीय टीम की शर्ट पर दस्तखत करके पाकिस्तानी कैप्टन बाबर आजम को सौंपी उनके भतीजे की खातिर. दरअसल माहौल में इतनी शांति पुराने लोगों को पच नहीं रही. आज एक स्टार कमेंटेटर बन गए पाकिस्तान के पूर्व महान क्रिकेटर वसीम अकरम ने कहा की बाबर को अपने भतीजे के लिए शर्ट चाहिए थी तो वे ड्रेसिंग रूम में ले सकते थे, सबके सामने क्यों ली? मैच हारने से दुखी अकरम को लगा होगा कि इस तरह की खुशमिजाजी से टीम में खेल का जज्बा कमजोर पड़ता है. वे यह नहीं समझ पाए कि उनके जमाने से आज क्रिकेट में प्रतिद्वंद्विता का स्वरूप कितना बदल गया है.

इस बदलाव को अच्छी तरह समझने के लिए मैं आपको क्रिकेट से कबड्डी की ओर ले जा रहा हूं. आमिर हुसेन बस्तामी, मोहम्मदरज़ा काबौद्रहांगी, मिलाद जब्बारी, और वाहिद रेज़ामेहर जैसे नामों के बारे में आपका क्या ख्याल है? जाहिर है, इनमें से कोई भी क्रिकेटर नहीं है. ये नाम ईरानी लोगों के लगते हैं, जहां क्रिकेट नहीं खेला जाता, कम-से-कम उसका कोई मुक़ाबला नहीं होता. ये सब ईरान के कबड्डी स्टार हैं.


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क्रिकेट वर्ल्ड कप की चर्चा के बीच इन सितारों के नामों को मैंने क्यों खींच लिया है, यह समझाने के लिए मैं आपको करीब महीने भर पहले हांगझाउ एशियाई खेलों में भारत-ईरान कबड्डी मुक़ाबले के फाइनल (गोल्ड और सिल्वर मेडल के लिए) में ले जा रहा हूं. आपने वह चमत्कारी मुकाबला नहीं देखा होगा, अब देख लीजिएगा. आपको समझ में आ जाएगा कि खेल और राष्ट्रवाद, राजनीति और जज़्बे के बारे में हम क्या कहना चाह रहे हैं.

मुक़ाबले के महज डेढ़ मिनट बाकी रह गए थे, दोनों टीम 28-28 अंक के साथ बराबरी पर थी. भारतीय कैप्टन पवन सेहरावत ने करो या मरो के जज्बे के साथ धावा बोल दिया था. दुनिया में आज वे कबड्डी के महानतम सुपरस्टार हैं. उन्होंने ईरान के एक खिलाड़ी को मैदान से बाहर कर दिया था और एक अंक जीत गए थे. लेकिन अपने पाले में वापस लौटते हुए वे डिफेंडरों की भीड़ में फंस गए.

अंपायर समझ नहीं पाए कि क्या करें. अगर वे अटैकर और पांचों डिफेंडरों को सजा देते हैं तो 5-1 हो जाएगा और भारत के पक्ष में स्कोर 33-29 का हो जाएगा. अगर 1-1 अंक देते हैं तो स्कोर 29-29 हो जाएगा. पेंच यह था कि गैर-पेशेवर मुकाबलों के नियम के अनुसार भारत को 5-1 की बढ़त मिलती. लेकिन पेशेवर कबड्डी लीग (यह खेल आइपीएल मुक़ाबले के बराबर है, जिसे भारत भी मानता है) के नये नियमों के अनुसार स्कोर 1-1 ही होता. इस विवाद के कारण गोल्ड मेडल के लिए मुक़ाबला एक घंटे तक स्थगित रहा.

इराक़ी रेफरी ने ईरान के पक्ष में फैसला देते हुए घोषणा की कि “यह नियम मैं अपने बच्चों को ज़िंदगी भर से सिखाता रहा हूं”. एशियाई कबड्डी फेडरेशन के पाकिस्तानी महासचिव ने उनका समर्थन किया. भारतीय कैप्टन और कोच ही नहीं कुछ ईरानी भी आग्रह करते रहे, बिलकुल सभ्य तरीके से.

बाकी खिलाड़ी पिच पर इस तरह शांति से बैठे रहे जिसकी उम्मीद आप आला प्रतिद्वंद्वियों से शायद ही करेंगे, वह भी तब जबकि गोल्ड मेडल दांव पर लगा हो. जूरी की बैठक चल रही थी और वे इंतजार कर रहे थे. जूरी की केन्याई अध्यक्ष लैवेंटर ओगुटा ने भारत के पक्ष में फैसला सुनाया. किसी ने कोई विरोध नहीं किया, कोई अपशब्द नहीं कहा गया, चीजों को इधर-उधर फेंकने की कोई घटना नहीं हुई. ‘स्पोर्ट्सस्टार’ पत्रिका में यह रिपोर्ट (जिससे मैंने यह विवरण लिया है) लिखने वाली लावण्या लक्ष्मी नारायणन के अनुसार, ईरानी खिलाड़ियों ने बेशक सिल्वर मेडल को अपने गले में सलीब की तरह लटका लिया था.

अब मेरे साथ उन ईरानी नामों को देखें, जिनका जिक्र ऊपर किया जा चुका है. ये 13 ईरानी स्टारों में से केवल चार ही हैं जो पिछले प्रो कबड्डी लीग में अलग-अलग भारतीय टीमों (पुनेरी पलटन, तमिल थलेवा, तेलुगु टाइटन्स, यू मुंबा, यूपी योद्धाज़, आदि) की ओर से खेलने आए थे. भारतीय और ईरानी, दोनों खिलाड़ी अब अपने-अपने देश की शान के लिए खेल रहे थे. लेकिन क्लब वाली कबड्डी में वे टीम के साथी थे. उनमें इतनी जान-पहचान और दोस्ताना था कि कोई बुरी बात हो नहीं सकती थी.

इसे अच्छी तरह समझने के लिए मैं कुछ आंकड़े रखूंगा. प्रो कबड्डी लीग में 13 ईरानियों के अलावा केन्या, ताइवान, इंग्लैंड, श्रीलंका, पोलैंड, इराक़, नेपाल और बांग्लादेश के खिलाड़ी भी थे.

जब से आइपीएल शुरू हुआ है तब से 15 वर्षों से यही चीज क्रिकेट में भी हुई है. पाकिस्तान समेत कई दूसरे देशों में भी इस तरह लीग शुरू हो गई है. अपनी राष्ट्रीय टीम के लिए खेलने वाले अक्सर लीग वाली टीमों में साथी होते हैं. साथ-साथ काफी यात्राएं और बाकी चीजों का आदान-प्रदान होता है. समय के साथ दोस्ती बनती है. ये रिश्ते भावनाओं को काफी नरम करते हैं, बेशक वे अपने-अपने देश के बीच राष्ट्रवाद और राजनीतिक मतभेदों की सीमाओं को नहीं पार कर सकते.

भारत और पाकिस्तान के खिलाड़ी एक-दूसरे की लीगों में बेशक नहीं खेलते मगर दूसरों को देखिए. ऑस्ट्रेलिया और इंग्लैंड के 13 मौजूदा खिलाड़ी आइपीएल के लिए आते हैं. इनमें न्यूजीलैंड के 12, दक्षिण अफ्रीका के 7, अफगानिस्तान के 7, श्रीलंका के 4, बांग्लादेश के 3 और नीदरलैंड का भी 1 खिलाड़ी आता है. उनमें से कई ऐसे हैं जो दूसरी लीगों में भी खेलते हैं. जब आप एक-दूसरे के साथ इतना समय बिताएंगे, वह भी टीम के साथी के रूप में, तो इससे भावनाएं तो नरम पड़ेंगी.

यह हमने कई दशकों से फुटबॉल में होते देखा है. क्लब के प्रति वफादारी और पेशेवराना नजरिया सख्त राष्ट्रवाद को नरम करता है. जून 2000 में यूरो 2000 देखने के बाद इस कॉलम में यह मुद्दा मैं उठा चुका हूं. अब यह क्रिकेट में भी काफी कुछ लागू हो रहा है.

मैंने कबड्डी की बात इसलिए जोड़ी, क्योंकि जो बदलाव आया है उसे बेहतर तरीके से बताया जा सके. शारीरिक टकराव वाले खेलों में अगर भावनाओं को इस तरह नरम बनाया जा सकता है, तो क्रिकेट में ऐसा क्यों नहीं हो सकता? इससे फर्क नहीं पड़ता कि भारत इन दोनों खेलों में टॉप लीग का मैदान है.

(संपादनः ऋषभ राज)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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