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Friday, 1 November, 2024
होममत-विमतकोविड-19 मुसलमानों को अनौपचारिक सेक्टर की नौकरियों से बाहर करने का एक बहाना, अगला चरण नस्लभेदी होगा

कोविड-19 मुसलमानों को अनौपचारिक सेक्टर की नौकरियों से बाहर करने का एक बहाना, अगला चरण नस्लभेदी होगा

मुसलमानों को आज उन्हें आर्थिक हाशिए पर डालने के सुनियोजित प्रयासों का सामना करना पड़ रहा है और इसके लिए सरासर झूठ के सहारे समुदाय को वायरस से जोड़ा जा रहा है.

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जो भी सेंटर फॉर स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज़ के एसोसिएट प्रोफेसर हिलाल अहमद को जानते हैं, उन्हें उनकी सधी हुई शैली और शब्दों के सतर्क चयन का पता होगा. लेकिन उनका यह ट्वीट उनकी इस छवि के विपरीत है. उन्होंने लिखा, ‘यदि कोरोनावायरस संबंधी सांप्रदायिक दुष्प्रचार इसी तरह जारी रहा तो हमें जल्दी ही हर रेलवे स्टेशन पर हिंदू जल और मुस्लिम जल की अलग-अलग दुकानें देखने को मिल सकती हैं!’

भले ही ये बात बढ़ा-चढ़ाकर कही गई लगे, पर आप इस बात से इनकार नहीं कर सकते कि मुसलमानों के खिलाफ टीवी और सोशल मीडिया पर दुष्प्रचार जहरीले स्तर पर पहुंच चुका है. इस पूर्वाग्रह की कोरोनावायरस वाली नई खेप का असर हमें दिखने भी लगा है.

हलद्वानी में कुछ लोगों ने मुस्लिम फल विक्रेताओं की दुकानें बंद करा दी, जबकि हिंदू दुकानदारों को नहीं छेड़ा गया. सोशल मीडिया पर जारी एक वीडियो में किसी रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन के लोगों को अपनी सोसायटी में मुस्लिम वेंडरों को नहीं आने देने पर सहमत होते दिखाया गया है. मैंगलोर के गांव में इस संदेश वाले पोस्टर लगे दिखे:

‘कोरोनावायरस के पूरी तरह खत्म होने तक गांव में मुस्लिम विक्रेताओं के आने की अनुमति नहीं है. हस्ताक्षरित: समस्त हिंदू, कोल्या’. अरुणाचल प्रदेश में भीड़ द्वारा कई मुस्लिम ट्रक ड्राइवरों को पीटा गया है. मुसलमानों के खिलाफ़ जारी दुष्प्रचारों में से एक उनसे कैश स्वीकार नहीं करने के बारे में है.

भेदभाव की क्रोनोलॉजी

ये सब पिछले कुछ दिनों में सामने आई घटनाओं के नमूने मात्र हैं. कामगार वर्ग के मुसलमानों के साथ भेदभाव की घटनाएं तो शायद खबरों के लायक भी नहीं है, और सोशल मीडिया तक भी उनकी पहुंच सीमित होने के कारण ऐसे तमाम मामले सामने नहीं आ पाते हैं. यदि आप ‘क्रोनोलॉजी’ पर गौर करें तो मुसलमानों के खिलाफ कोरोनावायरस को लेकर भेदभाव, गाय को लेकर दक्षिणपंथी समूहों की कार्रवाइयों, सीएए-एनआरसी और दिल्ली दंगों के बाद आया है.

मुसलमानों को दरअसल अब सुविचारित और सुनियोजित तरीके से आर्थिक हाशिये पर डालने के प्रयासों से जूझना पड़ रहा है. अर्थव्यवस्था के औपचारिक सेक्टर से आमतौर पर बाहर कर दिए जाने के बाद बहुत से मुसलमान आजीविका के लिए अनौपचारिक सेक्टर और स्वरोजगार पर निर्भर करते हैं.


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शहरी क्षेत्रों में, स्वरोजगार के क्षेत्र में मुसलमानों की हिस्सेदारी 50 प्रतिशत है, जो कि एनएसएसओ (2009-19) की रिपोर्ट के अनुसार हिंदुओं के मामले में मात्र 33 प्रतिशत है. सोसायटियों के गेट पर रोके जाने वाले वेंडर और कामगार तथा भीड़ द्वारा तंग किए जाने वाले ट्रक चालक और फल विक्रेता मुसलमानों के इसी वर्ग से हैं. हिंदुओं के 43 प्रतिशत और ईसाइयों के 45 प्रतिशत के मुक़ाबले 27 प्रतिशत मुसलमान ही वेतनभोगी हैं या नियमित पगार वाली नौकरियों में हैं. शहरी क्षेत्रों में मात्र 30 प्रतिशत मुस्लिम कामगार ही स्कूली शिक्षा या आगे की पढ़ाई पूरी किए हुए हैं. ईसाइयों और सिखों के मामले में ये आंकड़ा 58 प्रतिशत, जबकि हिंदुओं के लिए 56 प्रतिशत का है.

व्यवस्थित रूप से पक्षपात का निशाना बनाए जाने के इतिहास के कारण हाशिए पर डाल दिए गए मुसलमानों के लिए अल्पावधि या पार्ट-टाइम रोजगार वाली गिग अर्थव्यवस्था ही एकमात्र आसरा रह जाती है. सच्चर कमेटी की 2006 में प्रकाशित रिपोर्ट के अनुसार आईपीएस अधिकारियों में मुसलमान 4 प्रतिशत, आईएएस अधिकारियों में 3 प्रतिशत और आईएफएस अधिकारियों में 2 प्रतिशत से भी कम हैं.

यूपीएससी के ज़रिए सरकारी नौकरियों में प्रवेश करने वाले मुसलमान अधिकारियों का प्रतिशत 4-5 प्रतिशत के स्तर पर बना हुआ है, जो आबादी में उसकी 14 प्रतिशत हिस्सेदारी के मुकाबले बहुत ही कम है. कम ही संभावना है कि रिपोर्ट आने के एक दशक से अधिक का समय बीत जाने के बाद भी स्थिति में कोई बड़ा बदलाव आया होगा.

अन्य सरकारी नौकरियों में भी मुसलमान बहुत पीछे हैं. भारत की 2011 की जनगणना के अनुसार देश के सबसे बड़े नियोक्ता रेलवे के कुल कर्मचारियों में मुसलमानों का हिस्सा मात्र 4.5 प्रतिशत है, जिनमें से 98.7 प्रतिशत छोटे स्तर के पदों पर हैं. कॉरपोरेट सेक्टर की शीर्ष नौकरियों में मुसलमानों की हिस्सेदारी मात्र 3 फीसदी है.

कमज़ोर सामाजिक गतिशीलता

इससे भी बुरी बात ये है कि तमाम समुदायों में सामाजिक गतिशीलता के लिहाज से मुस्लिम वर्ग सबसे पीछे है. हाल के दशकों में जहां दलितों और आदिवासियों की ऊपर की ओर सामाजिक गतिशीलता बढ़ी है पर मुसलमानों के मामले में इसमें गिरावट आई है.

यदि पहले से ही आर्थिक सुस्ती का खामियाजा भुगत रहे कामगार वर्ग के मुसलमानों के खिलाफ भेदभाव समाज में जड़ पकड़ता और फैलता है, तो उसके भयावह परिणाम होंगे. शहरी क्षेत्रों में हिंदू और मुसलमान अक्सर एक-दूसरे से अलग हिस्सों में बंटकर रहते हैं, लेकिन विभिन्न आर्थिक गतिविधियों के ज़रिए वे परस्पर जुड़े हुए हैं. यदि ये स्थिति खत्म होती है, तो हम देश में रंगभेद के ठिकानों का उभार देख रहे होंगे.

यह खतरनाक लग सकता है लेकिन मुस्लिमों और हिंदुओं का मनोवैज्ञानिक संसार पहले ही बंट चुका है. एक सामान्य हिंदू की सोच, उसका विचार और उसकी भावनाएं एक सामान्य मुस्लिम की तुलना में बिल्कुल अलग है. ये सोचना नादानी होगी कि ये मनोवैज्ञानिक दूरी जल्द ही सामाजिक और आर्थिक दूरी में तब्दील नहीं होगी. उल्लेखनीय है कि नस्लभेद भौतिक बाधाओं पर उतना आधारित नहीं था जितना कि विचारधारा पर.


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कई विद्वानों ने रंगभेद के निहित विश्वासों को नस्लवाद के संरचनात्मक सिद्धांत के सहारे समझने की कोशिश की, जिसके अनुसार नस्लवादी पूर्वाग्रह नस्लवादी संरचनाओं का परिणाम और कारण दोनों ही है. नस्लवाद के वर्चस्व को बनाए रखने और उसे सही ठहराने के लिए पूर्वाग्रह को लगातार हवा देने की ज़रूरत पड़ती है.

राजनीतिक हाशिए पर

हिंदुत्व का स्पष्ट लक्ष्य हमेशा से मुसलमानों को राजनीतिक हाशिए पर डालने का रहा है. लेकिन हिंदू दक्षिणपंथ के कई नेताओं ने बार-बार जोर दिया है कि अन्य सामाजिक और आर्थिक आयामों में वे मुसलमानों की बेहतरी चाहते हैं.

मोदी ने 2014 में खुद को एक हिंदू राष्ट्रवादी माना, मुसलमानों को मात्र प्रतीकात्मक सीटें दी, पर उनसे आर्थिक समृद्धि का वादा किया था. उम्मत बिज़नेस सम्मेलन में अपने संबोधन में उन्होंने बताया था कि कैसे गुजरात में उनके शासन के दौरान मुस्लिम वर्चस्व वाले कतिपय छोटे व्यवसायों को फायदा पहुंचा.

मोदी ने सबकी सुरक्षा, भागीदारी और समृद्धि को अपनी परिकल्पना बताया. उन्होंने कहा, ‘रिसर्च और कच्चे माल की उपलब्धता के कारण गुजरात में पतंग का धंधा फल-फूलकर एक दशक पहले के 30-35 करोड़ के स्तर से ऊपर उठकर आज 700 करोड़ के टर्नओवर वाला हो गया है.’ उन्होंने साथ में ये भी जोड़ा कि इसकी मुस्लिम समुदाय की व्यापक समृद्धि में भूमिका रही है.

अपने दूसरे कार्यकाल में भी मोदी ने तीन तलाक़, कश्मीर और सीएए की तिकड़ी लगाने से पहले, शायद सोच-समझकर, बहुत प्रचार के साथ मुस्लिम छात्रों के लिए छात्रवृत्ति शुरू की थी. इसमें संदेह नहीं कि सरकार आर्थिक भेदभाव के मामलों से भी अपना पल्ला झाड़ लेगी, जैसा कि उसने लिंचिंग के मामलों में किया है, भले ही दोनों घटनाक्रम उनकी राजनीति के तार्किक परिणाम हैं.

और इससे ये वास्तविकता जाहिर होती है कि मुसलमानों को राजनीतिक रूप से हाशिए पर डालते हुए आप उनके सामाजिक-आर्थिक सशक्तिकरण का दावा नहीं कर सकते क्योंकि दोनों ही बातें हमेशा परस्पर संबद्ध रही हैं. शिक्षित मुसलमानों में असदुद्दीन ओवैसी की व्यापक अपील का कारण है सामाजिक-आर्थिक सशक्तिकरण के अनिवार्य साधन के रूप में उनका मुख्यत: राजनीतिक ताकत पर ज़ोर देना.


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हमारे देश में पूर्वाग्रह के आधार पर व्यापक आर्थिक भेदभाव की कल्पना करना कठिन नहीं है. आखिरकार, जाति व्यवस्था में हमें इसका हज़ार वर्षों का अनुभव है.

लेकिन हिंदू दक्षिणपंथ जहां दलितों को हिंदू समाज में एकीकृत करने की अथक कोशिश कर रहा है और इसकी प्रतिक्रिया में दलित बढ़-चढ़कर उन्हें वोट भी दे रहे हैं, वहीं अब मुसलमानों को अलग-थलग करने की कोशिश हो रही है, न केवल साझा राष्ट्रीयता से बल्कि साझा समाज से भी उन्हें काटने की कोशिश.

यदि हम उस स्थिति में पहुंचते हैं तो हम अंततः एक-दूसरे की समझ से दूर और परस्पर अविश्वास के माहौल में, दो अलग राष्ट्र बन जाएंगे और यह जिन्ना की बात को सच साबित करेगी.

(लेखक दिल्ली स्थिति सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च में रिसर्च एसोसिएट हैं. व्यक्त विचार उनके निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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5 टिप्पणी

  1. श्री मान आसिम अली जी आपने बहुत लंबा लेख लिख कर फालतू मेहनत की.. बिना अपने गिरेबाँ में झांके किसी के ऊपर कीचड़ उछालने वाले लोग ऐसे ही होते हैं.. और कुछ होते हैं आप जैसे जो पहले से ही अपने आप में किसी वस्तु विशेष के लिए पूर्व निर्धारित घ्रणित विचार रखते हैं.. पहले जाकर देख लीजिये कि आप जिनके लिए इतना परेशान हैं.. वो इस देश भर में कैसी कैसी हरकतें कर रहे हैं.. कहीं नर्सो के साथ अशल्लिलता, नंगे होकर वार्ड में घूमना , पुलिस पर पथराव करना, नोट पर थूंक कर उसे अल्लाह का अजाब कहकर सबको बाँटना, सब्जियों एवं फलों को चाटकर उसे बेचने के लिए रखना, सबके दरवाजों पर जाकर थूकना.. ये बस अभी तक में प्राप्त हुई पुख्ता जानकारी है.. अभी आगे पता नहीं क्या क्या छुपकर हो रहा होगा.. जाकर देखिये फिर ज्ञान पेलिये.. और हाँ दुनिया में सभी लोग अनपढ़ नही है.. कुछ लोगों ने पढाई आपसे ज्यादा भी करी होती है.. समझ आये तो जवाब जरूर देना..

  2. Musalmano ke sabse base dusman bo khud hai….Tim ko apne girevan me jhankana ana chiye…is desh me tmko kitana much Diya ..iske bad b tum…hinduo ko Gali do .unko maro…or jab tmhara Sach samne aay to bhole ban jao..jaise tmne kuch kiya hi nhi na ho….shame on u…tumko parsi…Sikh ..jain community se sikhana chiye…..kaise sab ke sath milnkar raho। In logo se sikho yah b minority hai lekin tum jaise lichad nahi hai। Apne dam PR jite hai hamesha DusRon ko dosh nahi dete think and grow rich

  3. मैंने आसिम अली जी का लेख पढ़ा ये भी की महोदय रिसर्च एसोसिएट हैं। आसिम अली जी आपका डेटा भ्रामक और उत्तेजक है आप नफरत फैलाने की कोसिस कर रहे हैं। देखते हैं कैसे।
    आप ने जो डेटा दिया है वो सम्पूर्ण जनसंख्या के प्रतिशत के रूप में दिया है जबकि मुसलमानों की जनसंख्या 2011 के आंकड़ों के अनुसार 14.23% है जो कि 121 करोड़ की जनसंख्या में मात्र 17. 22% है। अब आते हैं एजुकेसन पर भारत मे 2011 के आंकड़ों के अनुसार साक्षरता दर है 74% लेकिन मुसलमानों में है 60% कभी सोंचा है क्यों। क्योंकि अधिकांश मुसलमान अपने बच्चों को खासकर लड़कियों को स्कूल ही नही भेजते क्या कभी किसी सरकारी स्कूल ने मुसलमानों के बच्चों को एडमिशन करने से मना किया है, अगर किया है तो प्रमाणिक रिपोर्ट दीजिये।
    भारत में 17 साल के उम्र के सभी बच्चों का जिन्होंने हाई स्कूल की परीक्षा पास की है उनकी प्रतिसतता 2011 में ही 26% है लेकिन मुसलमानों की सिर्फ 17% क्या आपने सोंचा है कि ये प्रतिसतता कम क्यों है क्योंकि ज्यादातर मुसलमान मदरसों में अपने बच्चो को पढाते है और उनकी नजर में अक्षर ज्ञान ही पढ़ाई है और फिर लगा देते हैं धंधे में।
    अब आते हैं उच्च शिक्षा में 2017 -18 में उच्च शिक्षा में मुसलमान बच्चों का प्रवेश प्रतिसतता उनकी आबादी की तुलना में मात्र 4.9-5% थी इसका मतलब की 100 मुसलमान नवजवानों में मात्र 5 बच्चे ही उच्च शिक्षा में एड्मिसन लिये थे क्या 95% बच्चों को उच्च शिक्षा में एडमिशन लेने से किसी सरकार या संस्थान जो कि सरकार के धन से या प्रबंधन से चल रहा है, मना किया गया है अगर ऐसा है तो प्रमाणिक रिपोर्ट दीजिये।

    अब आते हैं जनसंख्या वृद्धि दर में मुसलमानों का योगदान पर. भारत का राष्ट्रीय जनसंख्या वृद्धि का औसत दर है 18% लेकिन मुसलमानों का 24% है कभी सोंचा है आपने की ये वृद्धि दर इतनी अधिक क्यों है, क्योंकि ज्यादातर मुसलमान कहते हैं कि ये तो ख़ुदा की नेमत है और बच्चे पर बच्चे पैदा करते जाते हैं कि ज्यादातर मस्जिदों में सिखाया जाता है कि अगर इस देश को इश्लामिक देश बनाना है तो अपनी जनसंख्या बढ़ानी पड़ेगी।
    अब ऐसे हालात में जब मुसलमान बच्चे पर बच्चे पैदा करते जाते हैं उनको बढ़िया शिक्षा देने में असफल रहते हैं तो वो IAS/IPS या अन्य उच्च नौकरी या प्राइवेट संस्थाओं में कैसे नौकरी कर पाएंगे जब उनके पास उस लायक शिक्षा ही नही है। अगर आपके पास कोई प्रमाण हो तो बताइए कि की सरकार कभी किसी व्यक्ति के धर्म और जाति के आधार पर नौकरी नहीँ देती है। अन्यथा आप संविधान का अपमान कर रहे हैं।

    अब आगे देखिए सच्चर कमेटी के अनुसार आर्म्ड फोर्सेज में मात्र 29000 जवान मुस्लिम कंम्यूनिटी से थे (रिपोर्ट पीरियड का डेटा) कभी आपने सोंचा है कि करोड़ों की मुश्लिम आबादी में मात्र इतने ही जवान क्यों। आप भेदभाव का आरोप नही लगा सकते है क्योंकि इसी भारतीय सेना में अब तक 8 मेजर जनरल एक वायु सेना प्रमुख इंडियन मिलिट्री अकेडमी में 1 और इंडियन डिफेंस अकेडमी में 2 प्रमुख अभी तक मुश्लिम रह चुके हैं। क्या आपको लगता है कि भारतीय सेना में धर्म के आधार पर भेदभाव होता है और अगर हां तो बताइए कि इतने महत्वपूर्ण पदों पर मुश्लिम कैसे पहुंचे और अगर भेदभाव नहीँ होता है तो भी अपने रिसर्च से बताइये की आर्म्ड फोर्स्ड में मुसलमानों की भागिरदारी इतनी कम क्यों है।
    रिसर्च से ये भी पता करिए कि आयकर देने वालों में से कितने % मुसलमान हैं।
    अब आते हैं योजनाओं पर नई रोशनी, नया सबेरा, उस्ताद जैसी एक दर्जन से ज्यादा कल्याणकारी योजनाएं अकेले भारत सरकार द्वारा चलाई जा रहीं हैं सिविल सेवा के लिए मुम्फ कोचिंग, क्षत्रावृति और सभी प्रदेश सरकार की योजनाओं को देखा जाए तो 100 से ज्यादा योजनाएं अल्पसंख्यकों के उत्थान और विकास के लिए चलाई जा रहीं हैं जिनके लगभग सभी लाभार्थी मुसलमान हैं । बाकी सारी योजनाएं समस्त देश वाशियों ले लिए हैं और उनमें भी मुसलमान हैं क्योंकि वो भी देश के नागरिक हैं। आप ऐसी किसी योजना का प्रमाण दीजिये जिसमे किसी मुसलमान के साथ भेदभाव हुआ है।

    अब जहाँ रही आपकी बात की वर्तमान में किसी कंपनी से मुसलमान कर्मचारियों को निकाला जा रहा है या छोटे दुकानदार और वेंडर , रेहड़ी वालों से सामान नहीं खरीदा जा रहा है ऐसा कई जगह हो सकता है कि हुआ हो संभव है और उसे सही नहीँ कहा जा सकता है, पर वो धर्म के आधार पर भेदभाव नहीँ है बल्कि जनमानस का खुद की सुरक्षा का भाव है और तब्लीगी जमात के जाहिल और कुछ फल विक्रेता जो फलों में थूंक लगाकर फल बेंच रहे थे उनकी वजह से है। पूरे देश के लोगों ने देखा किस तरह कोरोना पॉजिटिव मुसलमान अस्पतालों में नंगे घूम रहे, स्वास्थ्यकर्मियों के साथ बदसलूकी और मार पीट कर रहे, आईसोलेसन सेंटर के बाहर मल का त्याग कर रहे है लोगों पर थूंक रहे, प्रसाशन का सहयोग नहीँ कर रहे लोगों की जान खतरे में डाल कर कोरोना जैसी महामारी को लेकर छिप रहे हैं। ऐसे हालात में लोग आसंका बोध से ग्रस्त तो होंगे ही फिर चाहे वो हिन्दू हो या मुसलमान।
    इस राष्ट्र में कई महान मुसलमानो ने जन्म लिया कौन भूल सकता है खान अब्दुल गफ्फार खां को, मौलाना आज़ाद को, वीर अब्दुल हमीद को और भारत रत्न महान वैज्ञानिक परम पूज्य डॉ. अब्दुल कलाम आजाद को जिनके महान कार्यों की वजह से भारत आज निडरता के साथ विस्व में खड़ा है। देश इनका हमेसा ऋणी रहेगा।पर आप इस सच्चाई से इनकार नही कर सकते है कि ऐसे चंद अच्छे लोगो को छोंड़कर अधिकांश मुसलमान सम्पूर्ण विश्व शांति और मानवता के लिए खतरा बन हुए हैं। क्या दुनिया मे सिर्फ इश्लाम ही एक मात्र धर्म है जी नहीँ इस दुनिया मे इसाई, यहूदी, हिन्दू, सिख, जैन,पारसी जैसे बहुत सारे धर्म हैं और इन सबसे इश्लाम की दुश्मनी है । 50 से ज्यादा मुश्लिम बहुल देश हैं दुनिया मे और लगभग सभी जगह इश्लाम राष्ट्र धर्म है पर भारत और इस जैसे 100 से ज्यादा देश जहां मुसलमान बहुसंख्यक नहीँ है वहाँ के देशों का कोई धर्म नही है। कभी सोंचा है आपने कभी रिसर्च किया है इस बात पर। पाकिस्तान , अफ़ग़ानिस्तान, ईरान, इराक, सीरिया, यमन, नाइजीरिया, सोमालिया, सूडान, लीबिया, लेबनान, जहां मुश्लिम बहुल आबादी है राष्ट्र धर्म भी इश्लाम है वहां भी कत्ले आम होता है जेनोसाइड होता है। धर्म की रक्षा के नाम पर मासूम बच्चे, बेगुनाग, पुरुष और स्त्री मार दिए जाते हैं। अस्पताल, स्कूल, ट्रैन, बस, कार, बाजार कही भी बम फोड़ दिया जाता है। जो देश मुसलमान सरणार्थियों को आश्रय देते हैं उसी देस में चाकू मार के गाड़ियां चढ़ा के गोलियां बरसा के बेगुनाहों को मारते हैं धर्म के नाम पर, कभी इस बात पर रिसर्च किया है आपने।
    इस देश के मुसलमान सबसे सुरक्षित हैं और आत्मसम्मान के साथ जी रहे हैं नही तो बाकी इश्लामिक देशों का क्या हाल है उसका तो रिसर्च किया ही होगा आपने।

    इसलिए आदरणीय रिसर्चर अपनी प्रतिभा का जायज इस्तेमाल करिए और देश मे रह कर यही पढ़कर इसी मिट्टी में बड़े होकर देस की बुराई मत करिए और जो संकाएँ पूरे विश्व मे मुसलमानों के लेकर हैं उसे मजबूती मत दीजिये। अगर संभव है तो खुद के धर्म के ठेकेदारों को सुधारिये उनको कोसिए जिनके चक्कर मे पूरी दुनिया मुसलमानों को शसंकित होकर देखती है क्योंकि इनमे से कई लोग काम ही ऐसा करते हैं जो किसी धर्म और देश के हीनही बल्कि मानवता के खिलाफ है।
    रही भारत की महानता के बारे में वो आप जैसे लोगों के समझ के बाहर है क्योंकि एक तो आप धर्म का चश्मा नही उतार पाते और दूसरा इसी वजह से आपकी इतनी योग्यत नहीं है जो ऐसे विषय का विश्लेषण कर पाएं।
    अन्त में द प्रिंट से निवेदन है कि कृपया ऐसे लेख प्रकाशित न किया करें जो देश की महिमा और एकता को खतरे में डालते हैं और न ही ऐसे लेखकों को जो बायस्ड हैं।

    साभार उमा कान्त पांडेय।?(लेखक से मेरा व्यक्तिगत परिचय और दुराव नहीं है)

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