हमारा संविधान प्रत्येक नागरिक को दैहिक स्वतंत्रता और गरिमा का मौलिक अधिकार प्रदान करता है. संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त दैहिक स्वतंत्रता के अधिकार में नागरिकों को चिकित्सा सुविधा प्राप्त करना भी शामिल है. लेकिन इस प्रावधान के बावजूद सरकारी अस्पतालों में नागरिकों, विशेषकर कोरोना पीड़ित मरीजों को ही समुचित चिकित्सा सुविधायें नहीं मिल पा रही हैं.
यह सही है कि कोरोना महामारी के दौरान मरीजों की संख्या में बेहद इजाफा हुआ है और संभव है कि केन्द्र तथा राज्य सरकारें इस वजह से अस्पतालों और चिकित्सकों तथा स्वास्थ्यकर्मियों की कमी की समस्या का सामना कर रही हों, वजह जो भी हो लेकिन नागरिकों को स्वास्थ्य सुविधायें प्रदान कराना सरकारों का कर्तव्य है और वे इससे इंकार नहीं कर सकतीं.
सरकारों को हर कीमत पर संविधान के अनुच्छेद 21 में नागरिकों को प्रदत्त दैहिक स्वतंत्रता और गरिमा के अधिकारों की रक्षा करनी होगी और उसे तर्क कुतर्को के आधार पर इलाज के अभाव में मरीजों को इधर उधर भटकने की इजाजत नहीं दी जा सकती.
संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त गरिमा के साथ दैहिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का महत्व इसी तथ्य से लगाया जा सकता है कि सर्वोच्च अदालत ने इसका दायरा बढ़ाते हुये. यहां तक कहा है कि यह मौलिक अधिकार सिर्फ जीवित व्यक्ति को ही नहीं बल्कि उसकी मृत देह को भी उपलब्ध है.
चिकित्सा सुविधा के बारे में उच्चतम न्यायालय की न्यायमूर्ति रंगनाथ मिश्रा, जो बाद में देश के प्रधान न्यायाधीश और फिर राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के अध्यक्ष बने और न्यायमूर्ति जी एल ओझा ने 28 अगस्त, 1989 को परमानंद कटारा बनाम भारत सरकार प्रकरण में कहा था कि मनुष्य की जिंदगी बचाना सरकारी अस्पतालों और निजी अस्पतालों में कार्यरत चिकित्सकों की सर्वोच्च प्राथमिकता है और इसमें कोई भी कानून या शासकीय कार्रवाई बाधक नहीं बन सकती.
न्यायपालिका बार-बार अपनी व्ययवस्था में कहा है, ‘संविधान के अनुच्छेद 21 के अनुसार जीवन का संरक्षण करना राज्य का दायित्व है. सरकारी अस्पताल में तैनात चिकित्सक को राज्य के इस दायित्व का निर्वहन करना है और इसलिए उसका यह कर्तव्य है कि वह जिंदगी बचाने के लिये चिकित्सा सहायता उपलब्ध कराये.’
न्यायालय की व्यवस्था के अनुसार सरकारी अस्पताल और दूसरे चिकित्सीय संस्थान में प्रत्येक चिकित्सक का यह पेशेगत दायित्व है कि वह जिंदगी बचाने के लिये अपनी विशेषज्ञ सेवायें प्रदान करे और कोई भी कानून या शासकीय कार्रवाई मेडिकल पेशे के सदस्यों के इस सर्वोच्च कर्तव्य के निर्वहन में हस्तक्षेप नहीं कर सकता है.
देश की सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं की जर्जर अवस्था किसी से छिपी नहीं है. इसके बावजूद उम्मीद की जा रही थी कि कोरोना संक्रमण महामारी के दौरान केन्द्र और राज्य सरकारें विपदा की इस घड़ी में देशवासियों को निराश नहीं करेंगी. लेकिन, सरकारी स्वास्थ्य सुविधाओं ने नागरिकों को एकदम बेबस बना दिया. इसमें सरकारी मशीनरी की उदासीनता का योगदान कम नहीं है.
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केन्द्र सरकार ने जब मार्च के अंतिम सप्ताह में देशव्यापी लॉकडाउन घोषित किया था तो उम्मीद थी कि इस दौरान कोरोना वैश्विक महामारी से निबटने के लिये स्वास्थ्य सेवाओं को चुस्त बनाया जायेगा. सरकारें यह सुनिश्चित करेंगी कि कोरोना संक्रमण के मरीजों को तत्परता से उचित इलाज मिल सके. लेकिन 60 दिन से ज्यादा समय के लॉकडाउन के बाद भी अस्पतालों की स्थिति में विशेष सुधार नहीं हुआ जो इस बात का सबूत है कि सरकारें संविधान के अनुच्छेद 21 में नागरिकों के चिकित्सा प्रापत करने के मौलिक अधिकार के प्रति भी गंभीर नहीं है.
इसी तरह, मृत देह के गरिमा के अधिकार के बारे में न्यायिक व्यवस्था के बावजूद अक्सर ही मृत देह का अनादर करने की घटनायें सामने आ रहीं हैं. अस्पतालों में स्वास्थ्यकर्मी और शवगृहों में व्यवस्था देखने वाले कर्मचारी संवेदनहीनता का परिचय देने के साथ ही मृतक देह कह गरिमा के बारे में अनुच्छेद 21 में प्रदत्त मौलिक अधिकार की धज्जियां उड़ा रहे हैं.
स्थित यह है कि कोरोना संक्रमण से ग्रस्त मरीजों को सरकारी अस्पतालों में भर्ती कराने के लिए परिजन दर-दर भटक रहे हैं और निजी अस्पतालों में इलाज का खर्च आसमान छू रहा है. सरकारी अस्पतालों में अगर मरीज को बिस्तर मिल गया तो पता चलता है कि वार्ड में मरीज और इलाज के दौरान (या अभाव में) दम तोड़ चुके अन्य मरीज का शव अगल बगल बिस्तर पर है.
अस्पताल में अगर मरीज का निधन हो गया तो इसकी जानकारी भी उसके परिजनों को समय से नहीं मिल रही है. यहां तक कि अस्पतालों के शवगृहों में शवों का अनादर हो रहा है और परिजनों को उनके प्रियजन का शव सौंपने की प्रकिया मे लाशों की अदला बदली तक हो रही है.
सरकारी अस्पतालों के इस गैर जिम्मेदाराना रवैया पर उच्च न्यायालयों से लेकर उच्चतम न्यायालय तक ने कड़ा रूख अपनाया है. न्यायालय ने जब सरकारों को तलब किया तो केन्द्र और राज्य सरकारें हरकत में आयी हैं. दिल्ली के लोक नायक जयप्रकाश अस्पताल जैसे सरकारी अस्पतालों के कोरोना वार्ड में सीसीटीवी लगाने के आदेश केन्द्र ने दिये हैं. यह काम लॉकडाउन के दौरान भी हो सकता था. लेकिन नहीं हुआ. अब तो ऐसा लगता है कि बहुत देर हो चुकी है.
ऐसी स्थिति में सवाल यह है कि जब संविधान में प्रदत्त दैहिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार, जिसमें नागरिकों को समय से चिकित्सा सुविधा प्राप्त करना भी शामिल है, को सरकारें लगातार ठेंगा दिखाने का प्रयास क्यों करती रही है? नागरिकों को समय से चिकित्सा सुविधा से वंचित करके निश्चित ही सरकार उनके दैहिक स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार का ही उल्लंघन कर रही है.
उच्चतम न्यायालय ने जनवरी, 1995 में एक फैसले में टिप्पणी की थी कि संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त गरिमा और सम्मान का अधिकार सिर्फ जीवित व्यक्ति को ही नहीं बल्कि उसकी मृतकाया को भी उपलब्ध है. शीर्ष अदालत ने 2002 में भी अनुच्छेद 21 में प्रदत्त गरिमा के अधिकार के बारे में एक अन्य फैसले में कहा था कि बेघर मृतकों को भी उनकी धार्मिक आस्था के अनुसार सम्मानपूर्वक तरीके से अंतिम संस्कार का अधिकार है और यह सुनिश्चित करना शासन का दायित्व है.
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दैहिक स्वतंत्रता की गरिमा के अधिकार के बारे में स्पष्ट न्यायिक व्यवस्थाओं के बावजूद सरकारी अस्पतालों में कोरोना मरीजों को भर्ती कराने में आ रही दिक्कतें और अगर बीमार की मृत्यु हो गयी हो तो परिजनों के लिये सम्मान के साथ मृतक का शव प्राप्त करना बहुत बड़ी चुनौती बन गया है.
उच्चतम न्यायालय ने हाल ही दिल्ली में कोविड-19 के लिये निर्दिष्ट लोकनायक जयप्रकाश अस्पताल में कोरोनावायरस के मरीजों के बगल में शव रखे होने के ‘लोमहर्षक’ दृश्यों पर टिप्पणी की थी कि ये सरकारी अस्पतालों की दयनीय हालत बयां कर रहे हैं.
न्यायालय ने कोरोना मरीजों की स्थित का स्वत: संज्ञान लेते हुये तल्ख लहजे में कहा था कि दिल्ली के अलावा इन राज्यों के अस्पतालों में भी कोरोनावायरस से संक्रमित मरीजों के उपचार और शवों के मामले में स्थिति बहुत ही शोचनीय है.
मौजूदा हालात में सरकारी अस्पतालों और प्रशासन को अपना दृष्टिकोण बदलना होगा और संविधान के अनुच्छेद 21 में प्रदत्त दैहिक स्वतंत्रता और उसके गरिमा के अधिकार का हर स्थिति में सम्मान करना होगा.
हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि अस्पतालों में मरीज का इलाज करने में आनाकानी या फिर मृत देह का अनादर करने की घटनायें मानवता को कलंकित करती हैं. सरकारों से उम्मीद की जाती है कि वे न सिर्फ मरीजों के इलाज के प्रति बल्कि जान गंवाने वाले मरीजों के मृत शरीरों के प्रति भी संवेदनशीलता का परिचय दें.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं.)