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Saturday, 21 December, 2024
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सरकार चुनावी मोड से बाहर आकर धीरे-धीरे लॉकडाउन खोले, चिकित्सा व्यवस्था दुरुस्त करे

इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइज़ेशन ने कहा था कि कोरोना वायरस सिर्फ़ एक वैश्विक स्वास्थ्य संकट नहीं रहा, बल्कि ये एक बड़ा लेबर मार्केट और आर्थिक संकट भी बन गया है जो लोगों को बड़े पैमाने पर प्रभावित करेगा.

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कोरोनावायरस एक ऐसी महामारी का नाम है, जिससे आज पूरी दुनिया खौफ खा रही है. दुनिया भर के तमाम डॉक्टर्स और चिकित्सा विज्ञान से जुड़े वैज्ञानिक इसकी दावा के लिए शोध में लगे हुए हैं. सभी जानते हैं कि यह बीमारी मूल रूप से व्यक्तियों के संपर्क से फैलती है और इसके रोकथाम का एक मात्र रास्ता यही है कि सोशल डिस्टेंसिंग का पालन किया जाए. भारत 130 करोड़ लोगों की आबादी वाला देश है, यहां सोशल डिस्टेंसिंग का पालन बहुत दुष्कर काम है. इसलिए दुनिया के दूसरे कई देशों की तरह यहां डिस्टेंसिंग के लिए लॉकडाउन किया गया.

लेकिन, जिस तरह से आनन-फानन में सरकार ने 21 दिनों कि लॉकडाउन घोषणा कर दी उससे सरकार की कार्य शैली पर कई प्रश्नचिन्ह लग गए हैं. इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि लॉकडाउन बहुत जरुरी है, पर क्या बिना किसी तैयारी के यह करना उचित था. लॉकडाउन की घोषणा के बाद जिस तरह से देशभर में अफरा-तफरी मच गयी, उससे तो यही लगता है एक सही फ़ैसला ‘गलत तरीके’ से लिया गया. ये फ़ैसला भी नोटबंदी के तरह बिना सोचे विचारे थोपा गया फ़ैसला था. जानकार मानते हैं कि लॉकडाउन से पहले जनता को थोड़ा समय दिया जाना था.

अगर लॉकडाउन के लिए थोड़ा समय दिया गया होता, तो किसानों को फसल कटाई का समय मिल जाता. जो फसल नहीं कटवा पाते वो कृषि मजदूरों के लिए ठहरने की समुचित व्यवस्था करके उनको रोक भी सकते थे. लॉकडाउन की अचानक घोषणा से अफरा-तफरी मच गयी और कृषि मजदूर जैसे तैसे अपने घरों की तरफ निकल गए. इसका नुकसान किसानों और कृषि मजदूरों दोनों पर पड़ा है सरकार ने राहत पैकेज में किसानों के लिए अलग से घोषणा की है. सरकार अप्रैल से तीन महीने तक किसानों के खातों में हर महीने 2000 रुपये डालेगी. दो हज़ार रुपये की मदद पर्याप्त नहीं है क्योंकि निर्यात ठप हो चुका है, शहरी क्षेत्रों में कीमतें बढ़ेंगी क्योंकि मांग बढ़ रही है और ग्रामीण क्षेत्र में कीमतें गिरेंगी क्योंकि किसान अपनी फसल बेच नहीं पाएंगे. भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती होगी कि इस स्थिति में गांवों से खाने-पीने की ये चीज़ें शहरों और दुनिया के किसी भी देश तक कैसे पहुंचेंगी. अगर सप्लाई शुरू नहीं हुई तो खाना बर्बाद हो जाएगा और भारतीय किसानों को भारी नुकसान झेलना पड़ेगा.

बैंकिंग और नॉनबैंकिंग सिस्टम ध्वस्त

दो तरह की बैंकिंग व्यवस्था मुख्य रूप से भारत में काम करती है. पहली है बैंकिंग और दूसरी नॉनबैंकिंग व्यवस्था. पहले से एनपीए और नोटबंदी से तबाह बैंकिंग व्यवस्था को अचानक लॉकडाउन के फैसले ने लगभग तबाही के कगार पर पहुंचा दिया है. नॉनबैंकिंग कंपनियां बैंक से लोन लेकर अपने ग्राहकों को देती है. किर्लोस्कर कैपीटल, बजाज कैपिटल, महिंद्रा कैपिटल जैसी कंपनियां इस वक़्त भारत में काम कर रही है. अचानक लॉकडाउन से ग्राहक अपनी क़िस्त जमा नहीं कर पाए और बैंकिंग कंपनियां मुश्किल में पड़ गयी हैं. रिजर्व बैंक ने ग्राहकों को राहत देते हुए जून तक के लिए क़िस्त में छूट दी है, लेकिन यह इस सेक्टर को संभालने के लिए नाकाफी होगा.


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बेहतर स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में भी हम फिसड्डी

अमेरिका और साउथ अफ्रीका जैसे देशों की गिरती हुई अर्थव्यवस्था को संभालने के लिए वहां टैक्स बढ़ा दिया. वहीं कोरोना से निजात पाने के लिए उन देशों ने इसके रोकथाम की दिशा में ज्यादा काम किया. मसलन, पीपीई, दस्ताने और वेंटिलेटर का उत्पादन और आयात आदि बढ़ा दिया. चीन ने तो बहुत कम समय में हजारों बिस्तरों का नया अस्पताल बनाकर खड़ा कर दिया. वहीं दुनिया के और देश जहां की चिकित्सा व्यवस्था भारत से कई गुना बेहतर है,अपने अस्पतालों को और बेहतर बनाने कि दिशा में काम कर रहे हैं. चूंकि, इस बीमारी में टेस्टिंग ही एकमात्र विकल्प दिखता है ताकि पॉजिटिव लोगों को स्वस्थ लोगों से अलग कर उनका इलाज किया जा सके. टेस्टिंग करने पर काफी काम किया जा रहा है. भारत इस मामले में दुनिया के दूसरे देशों से काफी पीछे चल रहा है. भारत में अबतक लगभग सवा लाख लोगों की ही टेस्टिंग हो पायी है, जबकि जर्मनी जैसे देश जहां की आबादी बहुत कम है एक सप्ताह में ही लगभग पांच लाख लोगों कि टेस्टिंग की जा रही है.

बेरोजगारी की मार कैसे झेलेगा भारत

इस लॉकडाउन का सबसे बुरा असर रोजगार के क्षेत्र में पड़ने वाला है. इंटरनेशनल लेबर ऑर्गनाइज़ेशन ने कहा था कि कोरोनावायरस सिर्फ़ एक वैश्विक स्वास्थ्य संकट नहीं रहा, बल्कि ये एक बड़ा लेबर मार्केट और आर्थिक संकट भी बन गया है जो लोगों को बड़े पैमाने पर प्रभावित करेगा.आईएलओ के अनुसार कोरोनावायरस की वजह से दुनियाभर में ढाई करोड़ नौकरियां ख़तरे में हैं. एविएशन सेक्टर में 50 प्रतिशत वेतन कम करने की ख़बर तो पहले ही आ चुकी है. रेस्टोरेंट्स बंद हैं, लोग घूमने नहीं निकल रहे, नया सामान नहीं ख़रीद रहे. लेकिन कंपनियों को किराया, वेतन और अन्य ख़र्चों का भुगतान तो करना ही है. ये नुक़सान झेल रहीं कंपनियां ज़्यादा समय तक भार सहन नहीं कर पाएंगी और इसका सीधा असर नौकरियों पर पड़ेगा. हालांकि, सरकार ने कंपनियों से नौकरी से ना निकालने की अपील है. लेकिन इसका बहुत ज़्यादा असर नहीं होगा. रिपोर्ट्स बताती हैं कि इस दौर में बेरोजगारी तेजी से तीन गुना बढ़ गयी हैं. सेंटर फॉर मोनीटरिंग द इन्डियन इकोनोमी कि रिपोर्ट्स के अनुसार 23 मार्च से 29 मार्च तक शहरी क्षेत्र में बेरोजगारी दर 8.7 फीसदी से बढ़कर 30 फीसदी हो गयी और ग्रामीण क्षेत्र में 8.3 फीसदी से बढ़कर 21 फीसदी हो गयी. राष्ट्रीय स्तर पर बेरोजगारी डर 8.4 फीसदी से बढ़कर 21 फीसदी हुयी है.


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पहले से बदहाल भारतीय अर्थव्यस्था नई चुनौती झेलने में कितनी सक्षम

ऐसा नहीं है कि अर्थव्यवस्था में इसके पहले गिरावट नहीं आयी थी. दुनिया की अर्थव्यवस्था ने 70 के दशक की मंदी देखी और 2009 की भी आर्थिक मंदी देखी है. भारतीय अर्थव्यवस्था मूल रूप से उपभोक्ता आधारित है. देश की कुल जीडीपी का 60 फीसदी योगदान उपभोक्ता की तरफ से होता है. ऐसे में उपभोक्ताओं का बदहाल होना अर्थव्यवस्था को दुबारा खड़ा होने कि राह में मुश्किलें पैदा करेगा. पहले अनुमान लगाया जा रहा था कि देश कि जीडीपी 3.3 फीसदी तक नीचे आएगी लेकिन अचानक हुए लॉकडाउन से यह 1.6 फीसदी तक आने का अनुमान है.

अगर ऐसा हुआ तो इसे दुबारा संभालने में वर्षों लग जायेंगे. लॉकडाउन का प्रभाव इसलिए भी अलग होगा क्योंकि पहले आयी मंदी में एयर कंडिशन जैसी चीज़ों पर टैक्स कम हुए थे. तब सामान की कीमत कम होने पर लोग उसे ख़रीद रहे थे लेकिन लॉकडाउन में अगर सरकार टैक्स ज़ीरो भी कर दे तो भी कोई ख़रीदने वाला नहीं है.

बदहाल होती अर्थव्यवस्था से बेखबर इमेज बिल्डिंग में व्यस्त नेता

एक तरफ अर्थव्यवस्था लगभग कोमा में पहुच चुकी है, वहीं दूसरी तरफ सत्ताधारी पार्टी और उसके नेता अपनी इमेज बिल्डिंग में लगे हुए हैं. पीएम मोदी अपने प्रचार और राजनीति के इवेंट मैनेजमेंट के लिए जाने जाते हैं. जिस समय पहली बार राहुल गांधी ने सरकार को कोरोना के आगामी खतरे से आगाह किया था. उस समय प्रधानमंत्री लिट्टी चोखा खाकर बिहार चुनाव की तैयारी करने और मध्यप्रदेश में सरकार बनाने में लगे हुए थे. अगर समय रहते तैयारी कर ली जाती या लॉकडाउन के लिए जनता को थोड़ा वक़्त दे दिया गया होता तो शायद पहले से ध्वस्त अर्थव्यवस्था इतनी बदहाल नहीं होती. सरकार को चाहिए कि चुनावी मुद्रा से बाहर आकर धीरे-धीरे लॉकडाउन को खोले, चिकित्सा व्यवस्था दुरुस्त करे ताकि अर्थव्यवस्था की गाड़ी फिर से पटरी पर आ जाए.

(लेखक डॉ उदित राज लोकसभा के पूर्व सांसद और वर्तमान में कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता हैं. )

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